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उपन्यास

पल्लवी

रमेश पोखरियाल निशंक


पल्लवी

(उपन्यास)

प्रकाशक / लेखक की अनुमति के बिना इस पुस्तक को या इसके किसी अंश को

संक्षिप्त, परिवर्धित कर प्रकाशित करना या फ़िल्म आदि बनाना कानूनी अपराध है।

पल्लवी

 

रमेश पोखरियाल 'निशंक'

भारतीय ज्ञानपीठ

लोकोदय ग्रन्थमाला : ग्रन्थांक 1053

ग्रन्थमाला सम्पादक

रवीन्द्र कालिया

सह-सम्पादक

गुलाबचन्द्र जैन

ISBN 978-81-263-2012-7

प्रकाशक:

भारतीय ज्ञानपीठ

18, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड

नयी दिल्ली-110003

मुद्रक : विकास कम्प्यूटर ऐंड प्रिंटर्स, दिल्ली-110032

आवरण-चित्र : माधव भान

आवरण-सज्जा : ज्ञानपीठ कला प्रभाग

पहला संस्करण : 2010

मूल्य : 200 रुपये

© डॉ. रमेश पोखरियाल 'निशंक'

PALLAVI

(Novel)

by Ramesh Pokhriyal 'Nishank'

Published by

Bharatiya Jnanpith

18, Institutional Area, Lodi Road

New Delhi-110003

e-mail : jnanpith@satyam.net.in, sales@jnanpith.net

website : www.jnanpith.net

First Edition : 2010

Price: Rs. 200

पल्लवी

भोर में झकझोर कर किसी अतिथि के आने की आहट दे जाता 'कागा' आज न जाने क्यों मँडेर पर 'अलसाये बैठा है। नीचे पगलाई-सी 'चन्दा' अपना खटा उखाड़ डालने पर आमादा है। दूर कहीं बिछड़े बछड़े की मर्मान्तक पुकार कानों में पड़ती, तो वह और बिलबिला उठती। पीठ से जा चिपकते, पेट के भीतर कहीं गहराई से निकलती- 'अम्माह' ... अम्माह' ... की उसकी ममता भरी चीत्कार जैसे कलेजा चीर जाती।

पास ही बूढी हो चली 'बिन्दा' पथराई-सी खड़ी है। सुबह से उसने आज तिनका तक मुँह में नहीं डाला। बस आँसू बहाये जा रही है।

बेचैन माँ 'थू-थू' कर थक गयी, लेकिन मनहूस सियारों का रोना रुकने का नाम नहीं ले रहा। न जाने क्यों, पल्लवी का उचाट मन भी आज माँ की तरह खूब थूकने को कर रहा है। आँख फड़की तो जी और घबरा गया। एक अजीब-सी छटपटाहट और दमघोंटू उदासी ने उसे घेर लिया।

बाहर बारिश जैसे प्रलय ढा रही है। सूरज को धुर काले बादल ऐसे ढाँप गये हैं, मानो दिन में ही रात उतर आई है। वज्र गिराती आसमानी बिजली और दिल-दहलाती बादलों की गड़गड़ाट से धरती काँप उठी। लगा जैसे साक्षात शिव तांडव नृत पर उतर आये हों।

सामने दूर तक पसरी धुन्ध-भरी पहाड़ियाँ और दीपावली की आतिशबाजी-सा नजारा। पर उत्सवी माहौल की जगह चारों ओर उन्मादी मंजर। गोलियों की ऐसी बौछार कि लगता ओलो की बरसात हो रही है। आग बरसाते गोले जैसे धरती को अग्नि स्नान करा रहे हों। सैनिक अपने साजो-सामान के साथ युद्ध के मोर्चे पर डटे पड़े हैं। हवा में चारों तरफ बारूद की ही गन्ध फैली है। और इससे धुआँ इतना बढ़ गया है कि बिजली की तेज चमक में भी आस-पास सिर्फ डरावनी परछाइयाँ ही नजर आ रही हैं।

दुश्मन की फौज जैसे कहर बरपा रही है। अचानक कैप्टन ध्रुव की टुकड़ी चट्टान की तरह आगे खड़ी हो गयी। एक पल के लिए उसने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिये। पर अगले ही पल आग का एक दहकता गोला ध्रुव के पास ही आ फटा। और देखते ही देखते उसका बंकर मय चट्टान के मलबे में बदल गया।

पूरी घाटी पहाड़ी के दरक कर लुढ़कने की गगनभेदी गड़गड़ाहट से गूँज उठी। ध्रुव ने इधर-उधर खूब हाथ-पांव मारने की तमाम कोशिशें की, लेकिन असहाय-सा अन्ततः वह भी मलबे के साथ खाई में समा गया।

चारों ओर जैसे मरघटी सन्नाटा छा गया। जवानों के क्षत-विक्षत शव इधर-उधर पड़े थे। कुछ में अभी साँसें चल रही थीं।

निश्चेत पड़े ध्रुव में थोड़ी सी हरकत लौटी और पूरे शरीर की ताकत मानो अपनी जुबान पर समेट लाते हुए वह धीरे से बुदबुदाया-

"पल्लवी...!"

...और फिर निढाल पड़ गया।

"ध्रुव..!"

..पसीने से तर-बतर पल्लवी चीखकर उठ बैठी।

"हे भगवान्! ये क्या देखा मैंने! ऐसा दुःस्वप्न!" वह बुरी तरह छटपटा उठी। उसकी जीभ सूखकर ऐंठ गयी। कुछ पल वह सन्न-सी बुत बनी सर पकड़कर बैठी रही। फिर अँधेरे में हाथ फेरते हुए उसने सिरहाने रखी टॉर्च जलाकर घड़ी पर निगाह डाली। ढाई बज रहे थे। वह उठी और पूरा एक लोटा पानी गटक गयी। अब भी हाँफे जा रही थी वह। उसका दिल बुरी तरह धड़क रहा था। वह मन ही मन इष्ट देव का स्मरण करने लगी-

"भगवान! ध्रुव को ठीक रखना।"

"क्या हुआ बहू?" खटर-पटर की आवाज से बगल के कमरे में लेटी सास की नींद भी खुल गयी।

"कुछ नहीं माँ जी, प्यास लगी थी।"

वह सकपकायी और फिर सोने का बहाना कर लेट गयी। लेकिन आँखों से नींद अब कोसों दूर जा चुकी थी।

शंका भरे मन में तरह-तरह के विचार उमड़ने-घुमड़ने लगे। वह सिहर उठी। कितने झंझावात झेलने के बाद बमुश्किल तीन माह पहले ही तो शादी हुई थी उसकी ध्रुव से। किसी की नहीं सुनी उसने। पिता तो आज भी माफ नहीं कर पाये थे उसे। विवाह तो बहुत दूर, वे तो ध्रुव का नाम भी बेटी की जुबान से सुनना नहीं चाहते थे।

गाहे-बगाहे वे सुनाते भी रहते

"ये हर किसी से मेलजोल ठीक नहीं। आखिर 'स्टेटस' भी कोई चीज होती है। और हाँ, देश और समाज का ये जो भूत तुम्हारे सिर पर सवार है न, जमीनी सच्चाई सामने आते ही खुद-ब-खुद उतर जाएगा।"

पर उन्हें कौन समझाता कि भूत तो खुद उनके सिर पर भी सवार है, अपने अभिजात्य होने का। ऐसा भूत जिसने उनकी मानवता को ही लील लिया था। पैसा और चमक-दमक के सिवा उन्हें अब कुछ दिखता ही नहीं था। दया, धर्म और मानवता जैसी बातें उन्हें बकवास लगतीं।

'हम बड़े लोग' के दम्भ से बुरी तरह ग्रसित थे वे। वही उनका दायरा था और वही दुनिया भी।

उधर, बेचारे ध्रुव के पिता कल्याण सिंह थे, धुर पहाड़ के गरीब मामूली काश्तकार। पल्ले में बस तीन बंजर खेत और एक जर्जर मकान। परिवार पालने के लिए वह अन्य सम्पन्न लोगों के खेतों में हल चलाते, तो उनकी पत्नी गाय-भैंसों का दूध-घी बेचकर उनका हाथ बँटाती।

सो उनके नाम से ही पल्लवी के पिता की नाक-भौं सिकुड़ जाती। वे चाहते थे उनके बच्चे भी उन्हीं की राह पर चलें। पर पल्लवी की सोच उनके विचारों के कतई उलट थी। उसका यही रवैया देख वे भड़क उठते। कभी-कभार तो वे आपा खोकर सम्पन्न लोगों की विपन्न मानसिकता की भी सीमा लाँघ जाते। वह भूल जाते कि बच्चों के लिए पिता ही सबसे बड़ा नायक होता है। उनके कटु, अविवेकी जुमले उन्हें खलनायकी के कटघरे में ला खड़ा करते। वे बकने लगते-

"तुम्हारी तो मति मारी गयी है, जानती हो उसका स्तर क्या है? मेल-मिलाप तो दूर, वह तो हमसे बात करने लायक भी नहीं है, और उसका भाई श्रवण, जिसे तुम लिये घूमती रहती हो, एक दिन अपने से भी बदतर हालत में पहुँचा देगा तुम्हें! अच्छा होगा समय रहते सँभल जाओ।"

श्रवण, ध्रुव का छोटा भाई था, बचपन से ही विकलांग। दोनों पैर खराब होने के कारण घिसट-घिसट कर चलने को मजबूर। इलाज के अभाव में धीरे धीरे यह बीमारी उसके हाथों की गति को भी मन्थर कर रही थी।

"इसे किसी बड़े डॉक्टर को दिखाओ। हमारी तो समझ से बाहर है ये बीमारी।"

गाँव से दो मील दूर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के कम्पाउंडर ने साफ जवाब दे दिया तो कल्याण सिंह, श्रवण के ठीक होने की आस ही छोड़ बैठे। उनके लिए तो वह कम्पाउण्डर ही बड़ा डॉक्टर था। वही क्या, आस-पास के गाँव वाले भी सम्मान से उसे डॉक्टर साहब ही कहा करते थे।

सबकुछ भगवान पर छोड़ दिया उन्होंने। आखिर करते भी क्या! जिस घर में चार प्राणियों के परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाना भी दूभर हो, शहर के डॉक्टर से बच्चे के इलाज का ख्वाब वे भला कैसे देखते!

ऐसे दीन-हीन परिवार के लिए पिता के मुख से निकले ये शब्द न सिर्फ पल्लवी के कलेजे को चीर गये, बल्कि उसके मन को वितृष्णा से भी भर गये। पिता का बहुत सम्मान करती थी वह। इसलिए उनसे तो वह कुछ नहीं कहती थी, लेकिन माँ से उसने एक दिन साफ कह दिया-

"ध्रुव ही अब मेरे सपनों का राजकुमार है। जीवन साथी बनाऊँगी तो सिर्फ उसी को, वरना जीवन भर कुँवारी रह कर श्रवण जैसे अन्य लाचार लोगों की सेवा के लिए अपना जीवन अर्पण कर दूँगी।"

पत्नी और बेटे के समझाने पर पिता मान तो गये, लेकिन पल्लवी से उन्होंने एक तरह से रिश्ता ही तोड़ लिया। पर अन्दर ही अन्दर वह सुलगते रहते। थी तो आखिर बेटी ही, इसलिए कभी-कभी बेचैन भी हो उठते। फिर मन को समझा लेते कि शहरी लड़की गाँव में कब तक रह पाएगी। एक न एक दिन खुद ही झख मारकर फौजी पति के पास चली जाएगी। लेकिन जब शादी के बाद उन्हें पता लगा कि उसने तो ध्रुव के माता-पिता के साथ गाँव में ही रहने का फैसला कर लिया है, तो फिर अशान्त हो गये।

इधर, विवाह के तीन महीने बाद ही सीमा पर अशान्ति के चलते, सभी फौजियों की छुट्टियाँ निरस्त कर, उन्हें वापस बुला लिया गया। ध्रुव कहीं और तैनात था, इसलिए सीमा पर जाने से पहले उसे एक दिन के लिए गाँव आने का मौका मिल गया।

नयी-नयी, वह भी मनपसंद नौकरी का नशा उसके सिर चढ़कर बोल रहा था। जो भी मिलने आता उससे यही चर्चा- "दुश्मन सीमा के अन्दर घुस आया और हमें पता ही न चला। यही वक्त है कुछ कर दिखाने का। एक बार मुँह तोड़ जवाब मिल गया, तो समझ में आ जाएगा सब।" ध्रुव का जोश देखते ही बनता था, लेकिन घर वाले हालात की विकटता भाँप बुरी तरह सहमे हुए थे।

विवाह के बाद बस पन्द्रह दिन ही घर पर रह पाया था ध्रुव। उसके बाद उसे वापस लौटना था। जाते-जाते वह पल्लवी को दिलासा दे गया।-

"हम लोग कुछ दिन के लिए कहीं बाहर भी नहीं निकल पाये। घर में ही छुट्टियाँ समाप्त हो गयीं। अगली बार तुम्हें अपने साथ लेकर जाऊँगा।"

ध्रुव के मन में यूँ भी बड़ा अपराध बोध था। शहर में ऐशो-आराम से पली-बढ़ी पल्लवी को कोई सुख नहीं दे पाया वह। और अब आया भी तो सीमा पर वापस जाने के लिए।

बॉर्डर पर लड़ाई की बात सुनकर माँ कुछ ज्यादा ही चिन्तित थी। बार-बार उसकी आँखों से आँसू निकल आते। उसका एकमात्र सहारा, एक मात्र आस वही था। असमय बूढी हुई आँखों ने अब कहीं जाकर कुछ सुनहरे सपने देखना शुरू किया ही था कि ऊपर वाले ने इम्तिहान लेने शुरू कर दिये। वह बार-बार अपने इष्ट देव का स्मरण किए जा रही थी। ध्रुव बस यहीं कमजोर पड़ जाता। वह माँ के सामने जाने से कतरा रहा था। उसकी डबडबाई आँखों का सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था वह। उसने पल्लवी को समझाया-

"तुम माँ को हिम्मत बँधाना। बहुत कष्टों से पाला है उसने मुझे। युद्ध में लड़ने के लिए भेजने का साहस नहीं जुटा पाएगी वह।" पल्लवी का हाथ अपने हाथ में रखते हुए वह भावुक हो उठा।

वैसे भी माँ को लेकर ध्रुव की भावुकता छिपी नहीं थी पल्लवी से। अपने जीवन के बेशकीमती पलों को परिश्रम की चक्की में पीसकर मिटा दिया था उसने। यह वह भली-भाँति जानती थी और फिर ध्रुव कहा भी करता- "माँ के उन अनमोल पलों को हम लौटा तो नहीं सकते, पर उन्हें आगे कोई ठेस न लगे, यह कोशिश तो कर ही सकते हैं। कम से कम अब तो कुछ खुशी मिल जाए उन्हें।"

रही बात पिता की, तो बेटे के सीमा पर जाने की खबर से कल्याण सिंह का मन एक पल को भी विचलित नहीं दिखा। पर ऐसा जताकर वह बेटे की हिम्मत भी बढ़ा रहे थे- "फौजी बेटा है, लड़ाई नहीं लड़ेगा तो किस बात का फौजी?" जीवन-भर हल के बोझ से झुके उनके कन्धे आत्मविश्वास से तने हुए थे। उनका यही आत्मविश्वास ध्रुव की ताकत बन गया था।

माँ हर समय बेटे की सलामती की दुआ किए जा रही थी। इसी बीच दूर कहीं सियारों के रोने की आवाज आयी, तो पल्लवी को आवाज की दिशा में सास के थू-थू करने की आवाज भी सुनाई दी। जब कभी भी सियार के रोने की आवाज आती, माँ ऐसा ही करती।

कभी-कभी वह बताती थी-- "सियारों का रोना अपशकुन होता है।" और फिर उसी दिशा में 'थू-थू' करने लगती। उसकी ये बात सुन कर पल्लवी मन-ही-मन हँसती। लेकिन उसे ठेस न पहुँचे सो वह बाहर ऐसा कुछ जाहिर नहीं होने देती।

लेकिन आज न जाने क्यों, पल्लवी का मन हुआ कि वह भी ऐसा ही करे। एक तो सुबह के समय का भयावह सपना, ऊपर से सियारों के रोने की वह आवाज- दोनों उसे अन्दर तक झकझोर रहे थे। पल्लवी ने एक बार फिर सोने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रही।

दो

पल्लवी और ध्रुव की पहली मुलाकात कॉलेज के वार्षिकोत्सव में हुए सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान हुई थी। पल्लवी तब बी.एस-सी. प्रथम वर्ष की छात्रा थी और ध्रुव बी.ए. द्वितीय वर्ष का।

अपनी प्रस्तुति के बाद जैसे ही पल्लवी स्टेज से नीचे उतरी, तो अगली प्रस्तुति के लिए ध्रुव का नाम पुकारा गया।

"ध्रुव! ये नाम तो कहीं सुना-सा लगता है। लेकिन कहाँ?" याद नहीं आ रहा था उसे। मुड़ कर देखा तो दोनों हाथों से स्टेज की धूल माथे पर लगाता हुआ ध्रुव माइक के समक्ष आ खड़ा हुआ।

"पर ये शक्ल तो जानी-पहचानी नहीं लगती।" अपने दिमाग पर जोर डालती पल्लवी कामिनी की बगल में जाकर बैठ गयी।

"पिछले साल का टॉपर है।" कामिनी ने कोहनी मारकर पल्लवी को बताया, तो उसे झट याद आ गया। कॉलेज बोर्ड पर नाम लिखा था उसका।

"कितना सीधा लड़का है, यहाँ शहर की हवा इसे छू तक नहीं पायी है।" पल्लवी मन-ही-मन सोच रही थी।

उधर छात्र-छात्राओं के बीच में भी खुसर-फुसर चल रही थी। कोई उसे अट्ठारहवीं सदी का लड़का कह उसका मजाक उड़ा रहा था तो कोई उसकी तारीफों के पुल बाँधे जा रहा था।

ध्रुव ने गाना शुरू किया तो पूरे हॉल में सन्नाटा छा गया। जो छात्र-छात्राएँ कुछ समय पहले तक उसका मजाक उड़ा रहे थे, वे अब बुत बने उसका गीत सुन रहे थे, गीत के बोलों का एक-एक शब्द देश भक्ति के जज्बे से ओत-प्रोत था। ऊपर से उसका सधा हुआ सुरीला स्वर किसी का भी मन मोहने का माद्दा रखता था।

गीत के बोलों में ध्रुव इतना डूब गया कि उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे। उन्हें पोंछने का प्रयास भी नहीं किया उसने।

गीत समाप्त हुआ तो लगा जैसे पूरे हॉल में लोग साँसें भी थामे बैठे थे। तभी एक ओर से तालियाँ बजनी शुरू हुई और फिर पूरा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।

ध्रुव जैसे मीठी नींद से जागा। उसने आँसू पोंछे और सबका अभिवादन करता हुआ धीरे-धीरे मंच से उतर आया।

और पल्लवी! वह तो गीत के शब्दों, उसके भावों और उससे भी अधिक गीत के प्रस्तुतीकरण में खो गयी थी।

"चला गया वह स्टेज से, अब तो पलकें झपका ले।" कामिनी ने कोहनी मारी तो पल्लवी की तन्द्रा टूटी। अपनी इस हरकत पर वह झेंप गयी। कामिनी कुछ कहना चाह रही थी, लेकिन तभी मंच पर अगली प्रस्तुति आरम्भ हो गयी।

कार्यक्रम समाप्त होते ही कई छात्र-छात्राओं ने ध्रुव को घेर लिया। सभी लोग उसके गीत की प्रशंसा कर रहे थे और ध्रुव सकुचाता-सा धन्यवाद अदा किये जा रहा था।

अपने चारों ओर लगी भीड़ को देख उसे कॉलेज में अपना पहला दिन याद हो आया। इसी तरह बहुत से सीनियर छात्र-छात्राओं की भीड़ उसे घेरे थी। कोई उसे डांस करने को कहता तो कोई कुछ और। चारों तरफ हँसी के ठहाके गूँज रहे थे। उसे लग रहा था जैसे वह कोई जोकर है- इन सब लोगों के मनोरंजन का साधन।

"ये पैंट-कमीज कौन सी नुमाइश से खरीदी है आपने?" एक लड़की ने पूछा और सब लोग ठहाका मारकर हँस पड़े।

अपनी छात्रवृत्ति से कुछ पैसे बचाकर बड़ी मुश्किल से दो जोड़ी कपड़े बनवा पाया था ध्रुव। गाँव में जो भी मिला, वहीं खरीदा और वहीं के दर्जी से सिलवा लिया। अब गाँव का दर्जी है, अपने हिसाब से तो ठीक ही सिला था उसने। वह बेचारा क्या जाने शहर का फैशन!

"ये तो बिल्कुल मजनुओं वाली ड्रेस है। ऐसा करो, सामने जो लड़की

खड़ी है, उसे फूल देकर आओ और कहो कि तुम उससे प्यार करते हो।" कहते हुए झट एक मनचले-से लड़के ने आगे बढ़कर उसके हाथ में एक प्लास्टिक का फूल पकड़ा दिया।

ध्रुव का ध्यान उसकी ओर गया। लम्बे-लम्बे बाल, छोटी-सी दाढ़ी, मानो कोई बकरा चला आ रहा हो। कपड़े भी आधुनिकता के फैशन के नाम पर ऐसे कि जिन्हें कोई भी शरीफ व्यक्ति पहनने में संकोच करता। छाती तक खुले बटन, किस फैशन का प्रतिनिधित्व कर रहे थे उसको समझ से बाहर था।

"मैं ऐसा कैसे कह सकता हूँ!' उनका फरमान सुन कर ध्रुव हकला गया।

'चटाक!' एक जोरदार आवाज आयी। ध्रुव के गाल पर पाँचों उँगलियों के निशान उतर गये। उसका गोरा चेहरा पहाड़ी सेब की तरह लाल पड़ गया।

उसके बाद भी कई दिनों तक उसके कपड़ों के तरीकों पर फब्तियाँ कसी जाती रहीं।

क्या वह सचमुच इन लोगों के बीच रहने लायक नहीं है? ध्रुव सोचता और उसका मन होता कि वह तुरन्त गाँव वापस लौट जाए। लेकिन दूसरे ही पल अपने गरीब असहाय माता-पिता की आँखों में पलते सपने उसे ये कदम उठाने से रोक देते।

तब से अब तक तो जैसे कायापलट हो गयी। इसके पीछे उसकी प्रतिभा और गुणों का कमाल था। यही वजह थी कि आज सारे गुरुजन भी उसके मुरीद थे। धीरे-धीरे ध्रुव का आत्मविश्वास बढ़ने लगा और आज इसी की परिणति थी कि वह स्टेज पर न सिर्फ अपना गीत प्रस्तुत करने की हिम्मत कर पाया था, बल्कि खूब वाहवाही भी बटोरी।

"बहुत अच्छा गाते हैं आप।" पीछे से एक स्वर सुनाई दिया, मानो वीणा के कई तार एक साथ झंकृत हो उठे हों।

ध्रुव ने पीछे मुड़कर देखा। गुलाबी सलवार-सूट में एक लड़की सामने खड़ी थी। वह भी ठगा-सा बस इतना ही समझ पाया कि यह तो वही है, जिसने उससे ठीक पहले अपनी प्रस्तुति दी थी।

"आप ही से बात हो रही है। धन्यवाद तो बोल दीजिए जनाब!" तभी पीछे से दूसरी लड़की ने आकर शरारती अन्दाज में कहा तो ध्रुव सकपका गया।

पल्लवी ने आँखें दिखायीं तो वह चुप हो गयी, पर उसकी आँखों से अभी भी शरारत झलक रही थी।

झपट कर पल्लवी ने जवाब दिया, "जी, मैं पल्लवी। बी.एस-सी. प्रथम वर्ष में हैं। आपका गीत इतना प्यारा लगा कि अपने आप को यहाँ आने से रोक नहीं पायी।"

"जी मैं तो बस यूँ ही..." वह सकपका कर इतना ही कह पाया था कि तुरन्त पल्लवी ने बड़ी उत्सुकता से पूछा, "यह रचना किसकी है? बहुत अच्छे बोल हैं इसके।"

"मेरी ही है।" वह बस इतना ही बोला।

"मेरा मतलब, किसने लिखी है?" पल्ल्वी को लगा शायद ध्रुव उसका मतलब नहीं समझ पाया।

"मैंने ही लिखी है।" ध्रुव ने इस बार अपने शब्दों पर जोर देकर कहा।

पल्लवी स्तब्ध रह गयी। इतना साधारण-सा दिखने वाला यह लड़का तो बहुमुखी प्रतिभा का धनी है।

इतने में ध्रुव को कुछ और लोगों ने घेर लिया और पल्लवी पीछे हो गयी।

"कहो तो पीछे-पीछे चलें?" कामिनी एक बार फिर शरारत पर उतर आयी थी।

"ये तो गाने के साथ-साथ लिखता भी है। वो भी इतने अच्छे बोला!" कामिनी की बात को अनसुना कर पल्लवी अपनी ही धुन में बोले जा रही थी।

अब वह मचलने लगी थी ध्रुव से मिलने को। पूछना चाहती थी उससे कि कहाँ से आते हैं उसके मन में ऐसे मोहक भाव? कैसे इतने सुमधुर स्वर देता है वह अपने बोलों को?

लेकिन उसकी मन की मुराद मन में ही रह गयी। ध्रुव छात्र-छात्राओं से घिरा हुआ उसके सामने से निकल गया। संकोचवश पल्लवी दोबारा पहल नहीं कर पायी।

कामिनी बड़े गौर से पल्लवी के हाव-भाव देख रही थी। किसी और समय की बात होती तो कामिनी की शरारत पर पल्लवी उसे एक लम्बा-चौड़ा लेक्चर पिला चुकी होती, लेकिन आज तो वह अप्रत्याशित रूप से शान्त और विचारमग्न थी। इसलिए कामिनी ने भी उसे और अधिक छेड़ना उचित नहीं समझा।

सभी छात्र-छात्राएँ कॉलेज से निकलने लगे थे। पल्लवी और कामिनी भी बाहर निकल रिक्शे में बैठ गयीं।

तीन

पल्लवी ने इसी साल शहर के एक प्रतिष्ठित स्कूल से बारहवीं पास कर कॉलेज में दाखिला लिया था। उसके पिता रमाकान्त सरकारी सेवा में उच्च पद पर आसीन थे, माँ पार्वती सीधी-सादी, पूजापाठी, घरेलू महिला थी। बड़ा भाई सिद्धार्थ पिता की आज्ञा को शिरोधार्य कर डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा था।

पल्लवी को रमाकान्त इंजीनियर बनाना चाहते थे, पर उसे यह मंजूर नहीं था। उसकी एक ही ख्वाहिश थी, वह गरीब और लाचार बेबसों के बीच रहकर उनके भी जीवन में रंग भर दे।

इसीलिए, बारहवीं की पढ़ाई के साथ-साथ जब पिता ने इंजीनियरिंग की प्रवेश-परीक्षा के लिए कोचिंग का सुझाव दिया, तो उसने बड़े संयत, पर दृढ़ स्वर में साफ इनकार कर दिया, "मैं इंजीनियर नहीं बनना चाहती, पापा। मुझे इसमें कोई रुचि नहीं।"

अब पिता को कौन समझाए, उन्होंने सारा घर सर पर उठा लिया, "अच्छा, बेटी अब इतनी बड़ी हो गयी कि उसे अपनी रुचि-अरुचि का भी पता लगने लगा है! क्या अपने भविष्य के फैसले अब तुम खुद ही लोगी? क्या पिता की कोई जरूरत नहीं रही तुम्हें?... तो किसमें रुचि है तुम्हारी? अरे, पढ़ाई में अच्छी हो और फिर तुम्हारा भविष्य कहाँ सुरक्षित है, यह हमसे बेहतर कौन जान सकता है! कल से तुम कोचिंग ज्वाइन कर रही हो।" उन्होंने एकतरफा फैसला सुनाया और गुस्से में कमरे से बाहर निकल गये।

पिता का यह तल्खी भरा फरमान सुन पल्लवी के आँसू निकल आये, लेकिन उनका बहुत अधिक विरोध करने की हिम्मत उसमें नहीं थी। उसका एक मात्र सहारा अब माँ ही थी।

पल्लवी की बात सुन पार्वती देवी की समझ में नहीं आया कि वह क्या करे। वह बड़े धर्मसंकट में फंस गयी। बेटी की सुने या पति की!

पर बेटी की योग्यता पर माँ को पूरा भरोसा था। इंजीनियर न भी बनी, तो क्या? जो भी करेगी, अच्छा ही करेगी। आखिर स्कूल की होनहार छात्राओं में से है वह। सभी टीचर कितनी तारीफ करती हैं उसकी। अब वह इंजीनियर नहीं बनना चाहती, तो क्या जान ले लें उसकी! इंजीनियर-विंजीनियर के अलावा और कोई नौकरी नहीं है क्या? बेटी की हालत देख आहत माँ की ममता जोर मारने लगी।

हालाँकि पति के कड़क स्वभाव से लोहा लेने की न उनमें हिम्मत थी और न उन्होंने कभी हिमाकत की, पर इस बार वह पति के सामने जा खड़ी हुईं, "देखो सिद्धू के पापा, अगर पल्लवी इंजीनियर नहीं बनना चाहती, तो आप क्यों जबरदस्ती कर रहे हैं? आखिर वह होनहार है, अपनी रुचि से कुछ करेगी तो हो सकता है और अच्छा कर ले।"

"ओ हो, तो बेटी की तरफदारी में आयी हैं आप!" अखबार पर ही नजरें गड़ाए रमाकान्त उसी रुखाई से बोले।

"एक ही तो बेटी है हमारी और आज तक उसने ऐसा कुछ नहीं किया कि हमें नीचा देखना पड़ा हो। हमारा मस्तक हमेशा गर्व से ऊँचा ही किया है उसने। आप एक बार उसकी बात मान कर तो देखिए।"

यह पत्नी की मनुहार का असर था या फिर बेटी के लिए अन्दर हिलोरें लेता प्यार, वह मान गये। पल्लवी को पता लगा तो वह खुशी से माँ के गले में झूल गयी।

"निर्णय तो हमने लिया और प्यार उड़ेला जा रहा है माँ पर।" रमाकान्त ने प्यार भरी चुटकी ली तो पल्लवी दौड़कर पिता के सीने से जा लगी।

यद्यपि रमाकान्त स्वयं इस निर्णय से बहुत खुश नहीं थे, लेकिन बेटी के प्यार ने उनके मन को अपना निर्णय थोपने से रोक दिया था।

इस तरह पल्लवी ने बारहवीं परीक्षा पास करने के उपरान्त कॉलेज में दाखिला ले लिया। कब ये तीन माह गुजर गये, पल्लवी को पता भी न लगा।

सबकुछ ठीक-ठाक ही चल रहा था कि आज ध्रुव के गीत ने उसे अन्दर तक झकझोर कर रख दिया। बरबस ही उसके अन्दर आत्मीयता का ज्वार फूटने लगा। न जाने क्यों, ध्रुव के बारे में सबकुछ जान लेने का मन हो रहा था उसका।

सुबह जल्दी ही तैयार हो, पल्लवी नाश्ता करने टेबल पर आकर बैठ गयी। पिता को उसकी बेचैनी भाँपते देर न लगी।

"आज जल्दी जाना है क्या?"

"जी पापा।"

आगे कुछ और भी कहना चाहती थी लेकिन चुप लगा गयी।

"पढ़ाई कैसी चल रही है?"

"जी ठीक।"

"भविष्य के बारे में कुछ सोच पाई हो या अभी भी अनिश्चितता ही है?" वह उसके इंजीनियरिंग न करने के निर्णय की कसक को अभी तक मन से मिटा नहीं पाये थे।

"नहीं पापा! मैं कुछ ऐसा करना चाहती हूँ, जिसमें आत्मिक सन्तोष मिले। लगे कि समाज के लिए कुछ किया है। सिर्फ पैसा कमाने के लिए मैं अपना भविष्य नहीं बनाना चाहती।" पल्लवी बोलती जा रही थी और माता-पिता ध्यान से उसकी बातें सुनते जा रहे थे।

"बहुत जल्दी ये भूत उतर जाएगा तुम्हारे दिमाग से।" पिता के अन्दर की झुंझलाहट एक बार फिर बाहर फूट आयी।

"चलो तुम्हें कॉलेज छोड़ देता हूँ, उधर ही जाना है मुझे।" गाड़ी की तरफ इशारा कर वे बोले तो पल्ल्वी ने पहले कामिनी के घर जाने का बहाना कर पल्ला झाड़ लिया।

"जल्दी तैयार हो। हमें अभी कॉलेज जाना है।" कामिनी के घर पहुँचते ही पल्लवी ने चहकते हुए फरमान सुनाया तो कामिनी चौंकी, बोली, "हमारी क्लास तो डेढ़ बजे से है। अभी से जाकर क्या करेंगे।"

पल्लवी ने उसकी बातों को अनसुना कर उसे दस मिनट में बाहर निकलने का हुक्म सुना दिया।

कामिनी के तैयार होते ही पल्लवी उसका हाथ खींचकर ले जाने लगी।

"जल्दी चल।"

"लेकिन मैंने तो नाश्ता भी नहीं किया।"

"कॉलेज कैण्टीन में करवा दूँगी। फटाफट चल।" दोनों जल्दी से रिक्शे में बैठे और कॉलेज की ओर चल दिये।

कामिनी की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था और पल्लवी बिल्कुल चुप्पी साधे हुए बैठी थी। पर उसकी बेचैनी देख ऐसा लग रहा था कि अगर उसका वश चलता तो वह रिक्शा छोड़ खुद दौड़ लगाकर उससे पहले कॉलेज पहुँच जाती।

हुआ भी यही। वह इतनी उतावली थी कि कॉलेज पहुँचते ही वह दौड़ कर बी.ए, द्वितीय वर्ष की कक्षा के बाहर जाकर खड़ी हो गयी। कामिनी को उसकी ये हरकतें आज उसके स्वभाव के कतई विपरीत लग रही थीं। लेकिन वह समझ नहीं पा रही थी कि पल्लवी में अचानक यह बदलाव क्यों? अपनी जिज्ञासा नहीं दबा पायी, तो पूछ ही लिया, "हम यहाँ क्यों खड़े हैं?"

"क्योंकि यहाँ अभी सेकण्ड इयर की अंग्रेजी की क्लास शुरू होने वाली है।" पल्लवी ने जवाब तो दिया, लेकिन उसका ध्यान कक्षा की ओर आते हुए छात्र-छात्राओं की ओर ही था।

"ये तो मुझे भी पता है, लेकिन हम यहाँ खड़े क्यों हैं?"

इस बार कामिनी की झुंझलाहट को अनसुना कर पल्लवी अचानक एक ओर चल दी।

सामने से ध्रुव और उसका साथी कमल उसी ओर आ रहे थे कि पल्लवी ने अभिवादन कर उन्हें रोक लिया।

"मैं कल ही आपसे बात करना चाहती थी, लेकिन आप बहुत लोगों से घिरे थे। मैंने सोचा आज आपसे बात करूँ।"

ध्रुव कुछ समझ नहीं पाया और न ही उसके मुँह से बोल फूटे। लड़कियों से बात करने के मामले में वह हमेशा पीछे ही रहता था। सवालिया निगाह से उसने पल्लवी की ओर देखा तो पल्लवी ने ही बात आगे बढ़ायी, "दरअसल कल आपने जो रचना सुनायी थी, वह आपने ही लिखी है, यह जानकर मुझे बेहद खुशी हुई है। मैं उसे पढ़ना चाहती हूँ। प्लीज, आप देंगे मुझे?"

"क्यों, आप क्या करेंगी उसका?" साथ में खड़ा ध्रुव का दोस्त कमल बीच में ही टोकते हुए बोल पड़ा। फिर खुद ही सफाई भी देने लगा, "खूब जानता हूँ मैं कॉलेज की इन लड़कियों को। भोले-भाले ध्रुव से कभी नोट्स लेने के बहाने तो कभी कोई मुश्किल सवाल हल करने के बहाने, ऐसे मक्खनबाजी करती हैं और अपना मतलब निकलते ही पीठ पीछे उसे अट्ठारहवीं सदी का लड़का, गोबर गणेश इत्यादि न जाने किन-किन विशेषणों से सुशोभित करती फिरती हैं।"

फिर उसने ध्रुव को भी समझाने की कोशिश की। लेकिन ध्रुव या तो समझना नहीं चाहता था या सचमुच ही यह खेल उसकी समझ से परे था।

आज पल्लवी को सामने देख अपने मन का गुबार रोक नहीं पाया था कमल, सो पल्लवी पर ही अपनी सारी खीज उतार दी उसने।

"अपने नाम से मैग्जीन में छपवाएँगे। कोई आपत्ति है आपको?" सेर को सवासेर-सा जवाब देती कामिनी उतर आयी पल्लवी के पक्ष में।

"हाँ-हाँ ऐसा कर भी सकती हैं आप, कोई भरोसा है क्या?" कमल भी जैसे हार मानने को तैयार नहीं था।

बात और आगे न बढ़े, ध्रुव ने मामला शान्त कराते हुए कक्षा समाप्त होने के बाद, शाम को कविता देने का वादा किया और कमल को खींचकर क्लास के अन्दर ले गया।

"तू जानता नहीं इन लड़कियों को। तेरे सीधेपन का फायदा उठाती हैं ये।" कमल के स्वर में खिसियाहट भरी खीझ थी।

"सभी लोग एक जैसे नहीं होते कमल।" ध्रुव उसे समझा ही रहा था कि तभी प्रोफेसर साहब कक्षा में आ गये और बातचीत को वहीं विराम लग गया। लेकिन कमल था कि अब भी मन-ही-मन ध्रुव की सरलता पर कुढ़ा जा रहा था और उसके ये भाव उसके चेहरे पर भी साफ झलक रहे थे।

ध्रुव बस मन-ही-मन मुस्करा दिया और फिर लेक्चर सुनने में तल्लीन हो गया।

कमल और ध्रुव छात्रावास में एक साथ रह रहे थे। कमल ध्रुव के समान पढ़ने-लिखने में प्रखर तो नहीं था, लेकिन ध्रुव के बनिस्बत उसकी आर्थिक स्थिति बेहतर थी। ध्रुव पढ़ाई-लिखाई में उसकी मदद कर दिया करता तो कमल समय पर उसकी फीस इत्यादि जमा करने का प्रबन्ध कर दिया करता था।

ध्रुव के सरल स्वभाव ने कमल को उसके करीब ला दिया था और धीरे-धीरे यह दोस्ती इतनी आत्मीयता में बदल गयी कि जब भी वह किसी को ध्रुव का मजाक उड़ाते देखता तो उसका खून खौल उठता।

आज भी पल्लवी को ध्रुव से कविता माँगते देख कमल अपनी भावनाएँ नहीं रोक पाया और भड़क उठा।

उधर कामिनी एक ओर तो पल्लवी के सिर्फ एक कविता लेने के लिए जल्दी कॉलेज आने पर तमतमाई हुई थी तो दूसरी ओर कमल के कटु व्यंग्यों ने उसे आहत कर दिया था।

"समझता क्या है अपने आप को! हमारा कोई भरोसा नहीं तो इन लड़कों का भरोसा है क्या?" कामिनी बड़बड़ाए जा रही थी।

"और ऐसा क्या था उस कविता में जो मुझे सुबह-सुबह कॉलेज ले गयी तू ये जली-कटी सुनवाने?" फिर पल्लवी पर बरस पड़ी कामिनी।

पल्लवी चुप रही। उसे लगा, कामिनी ने कल ध्रुव की जो कविता सुनी, उसके बोलों की ओर उसका ध्यान नहीं गया। अगर उसने बोल ढंग से सुने होते तो ऐसी बात न करती वह।

इसलिए सिर्फ मुस्करा भर दी वह, पर उसकी मुस्कराहट कामिनी को चिढ़ाती हुई-सी लग रही थी।

कक्षाएँ आरम्भ होने में अभी समय था, इसलिए दोनों कैण्टीन की ओर चल दीं।

कामिनी और पल्लवी की दोस्ती स्कूल के जमाने से ही चली आ रही थी। वे दोनों पक्की सहेलियाँ थीं। पल्लवी सम्पन्न घर से थी तो कामिनी सामान्य घर से। पर यह आर्थिक, सामाजिक अन्तर कभी दोस्ती में आड़े नहीं आया। पल्लवी कामिनी की सहृदयता और बेबाकी की कायल थी तो कामिनी पल्लवी की सोच, समझ और दिमाग की मुरीद।

दोनों में इतने गजब का तालमेल था कि वो एक-दूसरे को समझने में कभी भूल नहीं करतीं। फिर दोनों कई वर्षों से साथ थीं तो एक दूसरे की आदतों को जानने भी लगी थीं, लेकिन इधर अब तो कभी-कभी पल्लवी को समझना कामिनी के वश के बाहर की बात होती जा रही थी।

जैसे आज ही, वह समझ नहीं पा रही थी कि पल्लवी को क्या जरूरत थी सिर्फ उस लड़के से बात करने के लिए इतनी जल्दी कॉलेज आने की? वह हैरान थी कि आज तक तो उसने किसी को भी सामान्य शिष्टाचार से आगे बढ़ने नहीं दिया, लेकिन आज स्वयं ही किसी से मिलने की इतनी उत्कण्ठा, इतना उत्साह कामिनी ने पल्लवी में पहली बार महसूस किया।

इधर पूरे दिन पल्लवी खामोश, खोई-खोई-सी रही। कामिनी की बातों का भी उसने संक्षिप्त-सा जवाब दिया और आज अपनी ओर से तो उसने कामिनी से कोई बातचीत ही नहीं की।

चार

इधर आज पल्लवी को कविता देकर ध्रुव को एक बार फिर कमल का कोपभाजन बनना पड़ा। खैर, किसी तरह ध्रुव ने कमल को शान्त किया और फिर दोनों मित्र बातें करते हए कॉलेज के छात्रावास की ओर चल दिये। वहाँ नोटिस बोर्ड पर ध्रुव ने जानी-पहचानी लिखावट में अपने नाम का पत्र देखा तो उसका चेहरा खिल उठा।

कमल भी समझ गया कि पत्र उसके किशन भैया का ही है। आखिर एक वर्ष से अधिक समय हो गया था कमल को ध्रुव के साथ रहते हुए। बस दो ही जगह से पत्र आते थे उसके। एक तो गाँव से माता-पिता का और दूसरा उसके किशन भैया का। फिर वह किशन की लिखावट भी पहचानने लगा था।

किशन भैया ध्रुव के आदर्श थे। उनकी देखादेखी ही वह बचपन से सेना में भर्ती होने का सपना पाले बैठा था।

"कल किशन भैया आ रहे हैं।" खुशी से ध्रुव बताने लगा तो कमल ने चुटकी ली, "तभी मैं कहूँ तेरे चेहरे पर चाँद सितारे क्यों चमक रहे हैं! इस उम्र में तो गर्ल-फ्रैंड के पत्र आने पर ये हाल होता है।"

ध्रुव उसका यह डायलॉग सुनते ही गम्भीर हो उठा, "कमल, तुम जानते हो, भैया मेरे लिए आदर्श हैं। और रही गर्ल-फ्रैंड की बात, तो ये मैं सोच भी नहीं सकता।"

"अरे तू तो मजाक का भी बुरा मान गया यार!" कमल ध्रुव की भावनाओं को आहत नहीं करना चाहता था। जानता था कि ध्रुव का लक्ष्य क्या है। घोर अभावों में पला-बढ़ा ध्रुव अपनी कॉलेज की पढ़ाई का खर्चा तो निकाल ही रहा था, साथ ही हर महीने घर भी कुछ पैसा भेजना न भूलता। सुबह-शाम जब सभी छात्र-छात्राएँ अपनी पढ़ाई कर मनोरंजन के साधन तलाशते, तब ध्रुव जीविकोपार्जन के लिए ट्यूशन पढ़ाता।

उसकी युवा आँखों में बस दो ही सपने थे। एक फौज में जाकर देश की सेवा करना और दूसरा अभावों के बोझ से असमय ही दोहरे हो चले अपने माता-पिता को सुकून के कुछ पल देना। इसके अलावा उसने कभी कोई और सपना देखा ही नहीं।

कुछ पल चुप्पी साध वह कमल से बोला, "भैया ने कहा है उनके साथ गाँव चलने के लिए। दो दिन कॉलेज नहीं आ पाऊँगा।"

ध्रुव बहुत अधिक मजबूरी होने में ही कॉलेज से छुट्टी लेता, पर किशन भैया के लिए उसके दिल में इतना आदर था कि उन पर कई छुट्टियाँ कुर्बान हो सकती थीं।

किशन सिंह ने एक साधारण सिपाही के रूप में सेना में शुरुआत की थी, लेकिन अपने परिश्रम और योग्यता के बल पर कमीशन पाकर वह आज कैप्टन के पद पर जा पहुंचा था। ध्रुव बचपन से ही किशन भैया को देखता आ रहा था और तभी से वह भी वैसी ही वर्दी पहनने का सपना देखने लगा।

यूँ तो किशन और ध्रुव के गाँव एक दूसरे से कोसों दूर थे, पर किशन की बुआ झबरी देवी ध्रुव के ही गाँव में ब्याही थीं। बताते हैं, तब चौदह-पन्द्रह साल की थी वह, जब यहाँ ब्याह कर आईं। पर नियति को शायद यह मंजूर नहीं था। उसी साल गाँव में हैजा फैला और वह बेचारी बाल-विधवा हो गयीं।

तब से अब तक कई साल बीत गये, झबरी देवी ने गाँव के जच्चे-बच्चों की सेवा को ही अपना लक्ष्य बना लिया। इसी को प्रभु-सेवा भान वह इसमें ऐसी लीन हो गयीं कि फिर तरुणाई में भी उन्होंने कभी अपना मन भटकने नहीं दिया। गाँव तो क्या, दूर-दूर तक लोग उनकी नजीर देते नहीं अघाते। आज वह सारे गाँव के बच्चों की दादी हैं तो बड़ों की काकी।

किशन यहीं अपनी बुआ से मिलने आता था। फौज में भर्ती होने के बाद पहली बार जब वह अपनी बुआ से मिलने आया, तभी उसने देखा था कि बच्चे इधर-उधर ऊधम काट रहे हैं, लेकिन एक बालक सहमा-सिमटा-सा चुपचाप बैठा, बड़ी ही हसरत भरी निगाहों से एकटक उसे निहारे जा रहा है। मासूम बालक की आँखों में उतराते उत्सुकता भरे सवाल देख उसका मन उद्वेलित हो उठा। उसने प्यार से पुचकारते हुए उसे अपने पास ही बिठा लिया। किशन उससे कुछ पूछता कि इससे पहले ही उत्साहित बच्चे ने उल्टे सवालों की झड़ी लगा दी, "क्या आप सिपाही हैं? सिपाही हैं तो आपकी बन्दूक कहाँ है?"

"तुम्हें कैसे पता कि सिपाही के पास बन्दूक होती है।"

"किताब में पढ़ा था।"

"तो मैं बिना बन्दूक का सिपाही हूँ।"

"हो ही नहीं सकता, आपने बन्दूक कहीं छिपा रखी है।"

खैर, फिर किशन ने अपनी समझ से जितना हो सकता था उस बालक को समझाया, तो उसका मन भी फौजी बनने को ललक उठा।

"भैयाजी, बड़ा होकर मैं भी सिपाही बनूँगा और फिर ढेर सारे दुश्मनों को मार डालूँगा।"

"बेटा, सिपाही बनने का मतलब सिर्फ दुश्मनों को मारना नहीं होता।"

"तो फिर! और क्या होता है?"

"देश की और देशवसियों की रक्षा करना होता है।"

ऐसे ही कई और भी सवाल ध्रुव किशन से पूछता रहा और वह प्यार से जवाब देता रहा। दरअसल, किशन इस बात का कायल था कि खेलकूद का मोह छोड़ वह बालक एक फौजी की वर्दी पर मोहित हो गया था। धीरे-धीरे समय गुजरा, मुलाकातें बढ़ीं तो प्रगाढ़ता भी बढ़ने लगी। अब तो वह जब भी छुट्टी पर यहाँ आता, खुद ही ध्रुव से मिलने को लालायित रहता। एक बार तो किशन खुद कह भी गया, "जैसे ही तुम दसवीं पास करोगे, तुम्हें भर्ती कराना मेरी जिम्मेदारी है।"

लेकिन उसने देखा कि ध्रुव पढ़ने में भी प्रखर है। दसवीं का रिजल्ट आया तो उसका नाम मेरिट लिस्ट में था। किशन ने उसे आगे पढ़ने की सलाह देते हुए सीधे उच्च पद पर भर्ती के लिए जोर डालना शुरू कर दिया। अब तो वह खुद भी इम्तिहान देकर कमीशन में निकलने की तैयारी करने लगा। ध्रुव ने भी मन बना लिया। किशन भैया उसके 'जीवन नायक' बन गये।

आज उन्हीं किशन भैया के आने की खबर सुन ध्रुव उनसे मिलने को बेताब हो उठा था। उसने हिसाब लगाया सुबह सात बजे ही किशन भैया की ट्रेन यहाँ पहुँच जाएगी और उसके बाद बस से तीन साढ़े तीन घंटे का रास्ता और मान लो। कल का दिन उनके साथ बिताने के बाद एक दिन माता-पिता के पास रहने को मिल सकता है। अचानक उसे घर आया देख कितने खुश होंगे वह और माँ तो और भी। इन्हीं विचारों में डूबा वह जाने की तैयारी में लग गया।

सुबह किशन भैया से मिलने की उत्कण्ठा में वह छह बजे ही रेलवे स्टेशन पहँच गया। सात बज गये फिर भी ट्रेन नहीं पहुँची। पता लगा, एक घंटा लेट है। बेचैनी में ध्रुव कभी प्लेटफॉर्म के इस कोने से उस कोने तक टहलता तो कभी चाय पीने लगता।

छोटे शहर का छोटा-सा रेलवे स्टेशन। न ट्रेनों की संख्या ज्यादा और न यात्रियों की। किसी ट्रेन के जाने का समय होता तो यात्री नजर आते और कुछ देर प्लेटफॉर्म पर चहल-पहल रहती। उसके बाद फिर सन्नाटा। कुछ लोग उसी ट्रेन के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे, जिसकी ध्रुव कर रहा था।

जैसे ही घड़ी की सुई ने आठ बजाये, वैसे ही ध्रुव को इंजन की सीटी की आवाज सुनाई दी। थोड़ी ही देर में छुक-छुक की आवाज करता इंजन अपने ढेर सारे डिब्बों के साथ प्लेटफॉर्म पर आ खड़ा हुआ।

ध्रुव टहलता हुआ डिब्बों से उतरते हुए यात्रियों को ध्यान से देखता रहा। तभी एक डिब्बे से फौजी वर्दी में किशन उतरता नजर आया तो वह भागकर उसके पास पहुँचा। पाँव छूते ही गले से लगा लिया किशन ने उसे। कुशल-क्षेम पूछने के साथ ही बातों का सिलसिला जो चला तो बस में सवार होने तक भी रुका ही नहीं।

"भैया! कैप्टन बन कर तो बहुत अच्छा लगता होगा।"

"हाँ ध्रुव! वैसे तो फौज की नौकरी ही जिम्मेदारी का भाव देती है, लेकिन जैसे-जैसे पद बढ़ता है तो यह एहसास भी बढ़ने लगता है।"

"भैया, भाभी तो बहुत खुश होंगी आपके प्रमोशन पर।" लेकिन इसका कुछ जवाब देने की बजाय किशन बस की खिड़की से बाहर इधर-उधर नजरें दौड़ाने लगा।

ध्रुव भी चुप हो गया। उसने कभी किशन की पत्नी को देखा नहीं था, लेकिन किशन कई बार अपने आप ही पत्नी बिन्दु और बेटे सोनू के बारे में जिक्र कर चुका था। ध्रुव के लिए अब यह पहला मौका था उनसे मिलने का।

यूँ तो शहर से किशन के गाँव की दूरी अधिक नहीं थी, लेकिन कुछ किलोमीटर की पक्की सड़क के बाद जब बस ऊबड़-खाबड़, धूल भरी सड़क पर चलने लगती तो उसकी गति स्वयं ही कम हो जाती। यह कच्ची सड़क भी दो वर्ष पहले ही गयी है गाँव तक। पहले तो एक घंटे के बस के सफर के बाद पैदल ही चलना पड़ता था।

गाँव बहुत सुन्दर था। पहाड़ की तलहटी में बसा बिल्कुल हरा-भरा। पास ही कलकल ध्वनि करती पहाड़ी नदी बहती। इससे खेत हमेशा हरे-भरे रहते और धरती जैसे सोना उगलती।

गाँव के ऊपर पहाड़ी पर साल का घना जंगल था, जिससे गाँव को चारा-लकड़ी तो मिलती ही, साथ ही पर्यावरण भी शुद्ध रहता। बस से उतरकर लगभग पाँच सौ मीटर पर ही किशन का घर था। पहाड़ी शैली में बना दो मंजिला मकान। आँगन पठालों से बना था और साथ ही लकड़ी का बना कलात्मक 'जँगला' मकान की शोभा को और बढ़ाता।

किशन के पिता जँगले पर बैठे हुक्का पी रहे थे कि उनकी निगाह घर की ओर आते किशन और ध्रुव पर पड़ी। गौर से चश्मा ऊपर-नीचे कर उन्होंने दोनों को पहचानने का प्रयास किया और अगले ही पल नीचे उतर आँगन में आ गये।

अपने पति की आवाज सुन किशन की माँ भी रसोई से निकल आँगन में आ गयी।

"तू तो अगले महीने आने वाला था, फिर आज अचानक?" किशन ने पिता के पैर छुए, तो उन्होंने उसके अचानक आने का कारण पूछ लिया।

"मेरा तबादला राजस्थान हो गया है, इसलिए जल्दी छुट्टी मिल गयी। मैंने सोचा अचानक पहुँचकर आप लोगों को चौंका दूँ।"

किशन ने ध्रुव का परिचय कराया तो उसे लगा कि देखो वह तो इनसे कभी मिला भी नहीं, लेकिन ये लोग उसके बारे में इतना जानते हैं जैसे वह उनका खासा परिचित ही हो। दरअसल किशन ने उसका जिक्र घर में इतनी बार किया था कि ध्रुव को लगा ही नहीं कि वह यहाँ पहली बार आया है।

हाथ-मुँह धोकर दोनों आँगन में बैठे तो एक पच्चीस-तीस वर्षीया महिला चाय ले कर आयी।

भाभी होंगी शायद, ध्रुव का अनुमान सही निकला। भाभी ने भैया के पैर छुए और चाय रखकर जाने लगी तो भैया ने ध्रुव का परिचय करवाया। भाभी ने उसी अन्दाज में अभिवादन किया और फिर रसोई में चली गयी।

गाँवों में अभी भी ये परम्परा है कि घर की बहुएँ सास-ससुर और बाहर वालों के सामने पति से बहुत अधिक बात नहीं करतीं और किशन की पत्नी भी इस परम्परा को बखूबी निभा रही थी।

किशन के आने की खबर सुन गाँव के अन्य लोग भी आँगन में जुटने लगे थे। किशन उनसे बात करने में व्यस्त हो गया। उधर सोनू पिता की लाये खिलौना मोटर से खेलने में मस्त हो गया। ध्रुव वहाँ अकेला-सा पड़ गया।

थोड़ी देर में वह उठ कर भाभी के पास चला गया। वह भोजन व्यवस्था में जुटी थी। उसने पास ही पड़ी चौकी उठायी और उस पर बैठ गया।

संकोची स्वभाव का ध्रुव बात आरम्भ नहीं कर पाया तो भाभी ने ही बात शुरू की,"काफी बातें करते हैं ये तुम्हारे बारे में।"

"आप लोगों के बारे में भी वह मुझसे खूब बातें किया करते हैं। मेरे तो आदर्श हैं किशन भैया। बचपन से उन्हें ही देखकर फौजी बनने का सपना देखा है मैंने।"

"छिः देवर जी, तुम भी फौज में भरती होना चाहते हो!"

वह कुछ देर सन्न रह गया। आखिर ऐसा क्यों कह रही हैं भाभी? क्या बुराई है फौज में? क्या भाभी, भैया से खुश नहीं? भाभी की बात ध्रुव को अच्छी नहीं लगी। पर जब उससे न रहा गया, तो उसने पूछ ही लिया, "क्यों भाभी! क्या बुराई है फौज में? भैया को देखो कैप्टन बन गये हैं। कितना सम्मान है उनका!"

"कैप्टन!"

भाभी ने बुरी-सी शक्ल बनाकर मुँह बिचकाया, "वो कैप्टन बनें या जनरल, मुझे तो इसी गाँव में सड़ना है और उन्हें हमेशा बॉर्डर में ही। भला, कोई जिन्दगी है इन फौजियों की!"

ध्रुव की समझ में आ गया कि भाभी गाँव में नहीं रहना चाहतीं, पर हालात ऐसे हैं कि किशन भैया उन्हें साथ नहीं ले जा सकते।

लेकिन गाँव में ही पली-बढ़ी भाभी को अचानक ही गाँव इतना बुरा क्यों लगने लगा, ये मनोविज्ञान उसकी समझ में नहीं आया।

तभी किशन की माँ रसोई में आ गयी और बातों का क्रम टूट गया।

"बहू! किशन को हरी सब्जी बहुत पसन्द है। मैं थोड़ी-सी चौलाई काट लाई हूँ, इसे भी छौंक दे।" और उन्होंने एक थाली में कटी हुई सब्जी बिन्दु के सामने रख दी।

भाभी ने फिर उसी अन्दाज में अपना मुँह बनाया और खाना बनाने में व्यस्त हो गयी।

"जैसे सारी चिन्ता इन्हीं को रहती है उनकी। मुझे तो कुछ परवाह ही नहीं।" माँ के जाते ही भाभी ने व्यंग्य-वाण छोड़ा और फिर जैसे सफाई देते हुए बोली, "सारा दिन घर का, खेतों का काम करो और फिर इन दोनों की बकबक सुनो। देवर जी! ऐसी जिन्दगी होती है फौजी की बीवियों की।"

भाभी की बातें सुन ध्रुव का मन अवसाद से भर गया। बातें वहीं खत्म कर ध्रुव बाहर निकल आया। किशन भैया तब भी गाँव के लोगों से घिरे फौज के किस्से सुना रहे थे।

देखो, कितने लोकप्रिय हैं किशन भैया गाँव में! पर भाभी हैं कि उनमें बुराई ही ढूँढती रहती है।

मन हल्का करने को ध्रुव किशन के माता-पिता के साथ बैठ गया। उसे लगा जैसे सभी माँ-बाप एक जैसे ही होते हैं। बच्चे कितने ही बड़े क्यों न हो जाएँ, माँ-बाप के लिए तो वे छोटे ही रहते हैं। वह महसूस कर रहा था, किशन भैया के लिए वे दोनों वैसे ही चिन्तित हो रहे थे, जैसे किसी छोटे बच्चे को घर से बाहर भेजने पर उसके माता-पिता चिन्तित हो उठते हैं।

वह काफी देर उनसे बतियाता रहा। उनकी बातें सुनता रहा, पर बात-व्यवहार में कहीं कोई तल्खी नजर नहीं आयी। न जाने भाभी को ही अपने सास-ससुर से क्यों शिकायत थी!

शाम को ध्रुव किशन के साथ गाँव घूमने निकल पड़ा तो बातों ही बातों में किशन ने अपनी पत्नी का जिक्र छेड़ दिया, "बिन्दु गाँव में रहना नहीं चाहती। शहर में घर लेने की जिद कर रही है। लेकिन माँ-पिताजी गाँव नहीं छोड़ना चाहते। समझ में नहीं आता क्या करूँ!" किशन की बेबसी उसके शब्दों में फूट निकली। उसकी हालत देख ध्रुव भी एक पल को भावुक हो उठा। कैसे दो पाटों के बीच पिस रहे हैं किशन भैया! किसकी सुनें और किसके मन की करें? पर वह भला क्या कर सकता है?

उसे अपनी हालत याद आ गयी। वह मन ही मन बोला, "अगर मैं फौज में भर्ती हो सका तो कभी शादी नहीं करूँगा। मेरी घर की स्थिति तो और भी खराब है।" उसका मन विचलित हो उठा।

रात को वहाँ रुककर ध्रुव अगले दिन सुबह अपने गाँव के लिए निकल पड़ा।

पाँच

रास्तेभर भी किसी न किसी उधेड़बुन में फँसा ही रहा ध्रुव। किशन भैया की बेबसी, माँ-बाप की स्थिति, अपना भविष्य, श्रवण की पीड़ा। अब इस छोटी-सी उम्र में, क्या-क्या बोझ ढोए वह इन नाजुक कन्धों पर! सिर भारी और मन बोझिल हो गया तो सम्बल देते खुद ही ये बोल अन्दर से फूट निकले उसके-

अभी भी है जंग जारी,

वेदना सोई नहीं है।

मनुजता होगी धरा पर,

संवेदना खोई नहीं है।

किया है बलिदान जीवन,

निर्बलता ढोई नहीं है।

कह रहा हूँ ऐ वतन!

तुझसे बड़ा कोई नहीं है।

बाँज-बुराँश की शीतल मनमोहक छाँह में धरती माँ की दिव्य छटा देख वह गद्गद हो उठा। कहीं ऊँचे पहाड़ तो कहीं पाताल को छूती नदी। अद्भुत सौन्दर्य को देखकर उसके मन में प्रकृति और मातृभूमि के प्रति प्रेम एकाएक कविता में इस तरह ढल आया-

प्यार सदा ही करती रहती,

कभी न दु:ख को प्रकट किया।

शैशव, किशोर, तरुणाई में भी,

तूने हमसे कुछ न लिया।

भरी अंजलि तेरे जल की,

जीवन भर हमने खूब पिया।

धन्य हुआ हूँ देवभूमि मैं

जन्म तेरी माटी में लिया।

और कुछ पल मौन रह उसने आँखें मूँद लीं। फिर घुटनों के बल बैठ उसने माटी की एक चुटकी ली और माथे से लगा ली। मन की यह अगाध श्रद्धा बरबस होठों पर उतर आयी

चाह न मन में रहे,

वतन की ही चाह हो।

हम करें पुरुषार्थ यूँ,

बाधित न कोई राह हो।

इधर ध्रुव की रचनाओं पर मुग्ध पल्लवी हैरान थी कि कैसा विलक्षण इंसान है ये! इतनी कम उम्र में इतनी परिपक्वता, इतनी संवेदनशीलता और इतनी व्यापक दृष्टि! देशप्रेम से ओतप्रोत यह शख्स मानवता का तो पुजारी ही लगता है। इन्हीं में से कुछ पंक्तियों को वह जोर से पढ़ने लगती है

प्रेम की गंगा बहे नित,

विद्वेष का ना नाम हो,

स्वदेश के संगीत में ही,

डूबी हुई हर शाम हो।

एक के बाद दूसरी, तीसरी और फिर चौथी...। कितनी ही कविताएँ! न जाने कितनी बार पढ़ चुकी थी पल्लवी इन पंक्तियों को। अब तो उसे ध्रुव की कविताएँ कंठस्थ भी हो गयी थीं।

शब्दों को कितनी खूबसूरती से पिरोया है ध्रुव ने अपनी इन कविताओं में! और भाव-विचार भी कितने सुन्दर और गहरे हैं।

मैं मुसाफिर हूँ अकेला,

एक पथ पर चल रहा हूँ।

सुबह उठकर जिधर जाऊँ,

कष्ट-दुःख क्या-क्या न पाऊँ।

पक्षियों की भाँति डेरा,

कुछ ठिकाना है न मेरा।

आज तेरे द्वार था,

उस द्वार पर भी कल रहा हूँ।

मैं मुसाफिर हूँ अकेला,

एक पथ पर चल रहा हूँ।

पढ़-पढ़कर पल्लवी मन-ही-मन गद्गद थी। फिर सोचने लगी, "ध्रुव के पास तो और भी गीत होंगे। मैं कल ही मिलूँगी उसे। उसकी और रचनाएँ भी माँगूँगी पढ़ने के लिए।" बस फिर उसी के ख्यालों में खो गयी वह। माँ ने कई बार आवाज दी तब वह कमरे से बाहर निकली।

"कोई परेशानी तो नहीं है बेटी!"

रात्रि-भोजन के समय बेटी को खोया-खोया-सा देख माँ से पूछे बिना न रहा गया।

"नहीं माँ।" पल्लवी ने सिर हिलाते हुए जवाब दिया। लेकिन उसे अपने में ही खोया और गुमसुम खाना खाते देख माँ ताड़ गयी कि कुछ तो है। पर फिर सोचकर, शायद पढ़ाई की चिन्ता हो, वह चुप लगा गयी।

बस फटाफट भोजन कर पल्लवी फिर सीधे अपने कमरे में चली गयी। मन अन्दर से बेचैन था कि कब सुबह हो और कब कॉलेज भागूँ।

"इधर-उधर क्या देख रही है तू? किसे ढूँढ रही है इतनी बेताबी से!"

कामिनी अपनी बातों को लगातार अनसुना किए जाने या फिर हाँ-हूँ में जवाब मिलता देख अँझला उठी।

"नहीं तो, मैं किसी को नहीं ढूँढ रही..."

कामिनी के झिड़क देने से हड़बड़ाई पल्लवी को लगा जैसे उसकी चोरी पकड़ी गयी हो। लेकिन कामिनी भी कहाँ मानने वाली थी। पल्लवी का ध्यान कहीं और है, यह समझ गयी थी वह, पर ऐसी क्या बात हो सकती है जो पल्लवी उससे छुपा रही है। वह गौर से उसका चेहरा पढ़ने की कोशिश करने लगी।

तभी सामने से कमल आता दिख गया तो पल्लवी वहीं ठिठक गयी। लगा जैसे उलझन सुलझ गयी। उसने झट पूछा, "आपके मित्र... ध्रुव कहाँ मिलेंगे?"

"वो गाँव गया है। दो-तीन दिन में आयेगा।"

कमल की बेरुखी उसके बात करने के तरीके से साफ झलक रही थी। मन ही मन वह कुढ़ रहा था कि यह लड़की तो हाथ धोकर ध्रुव के पीछे ही पड़ गयी है।

"जब आएँगे तो प्लीज जरूर कह दीजिएगा कि मैं मिलना चाहती हूँ।" पल्लवी ने कहा। यह देख कामिनी का मुँह खुला का खुला रह गया। वह कुछ बोलती, इससे पहले ही मौके की नजाकत भाँप पल्लवी झट पलटकर अपनी क्लास की ओर चल दी।

"अब समझ में आया, क्या ढूँढ रही थी तू।" पीछे-पीछे भागते हुए कामिनी भी कहाँ चूकती बोलने से।

"क्या समझ में आया तुझे?" "यही कि एक गीत क्या गाया उसने कि तू तो दीवानी हो गयी उसकी!"

"हाँ-हाँ हो गयी, लेकिन उसकी नहीं, उन शब्दों की जो उसने लिखे हैं। उन भावों की जो उन कविताओं में उसने गूँथ दिये हैं। और पल्लवी ने वह रचना कामिनी को सुनाई, जो उसे याद हो गयी थी

कभी-कभी अच्छा लगता है,

चुप-चुप हो कर रहना।

और कभी अच्छा लगता है,

आँसू का छिपकर बहना।

सबसे अच्छा बस लगता है,

चुप रहकर पीड़ा पीना।

खुशी-खुशी स्वीकार किया है,

ऐसा ही जीवन जीना।

ऐसी रचना क्या कोई साधारण सोच का इंसान लिख सकता है? पल्लवी ने कामिनी को समझाया।

"समझी कुछ या नहीं?"

पल्लवी आज भावावेश में बोले जा रही थी और हैरान कामिनी टुकुर-टुकुर उसका मुँह ताकती रह गयी।

पर अगले ही पल ध्रुव के शहर से बाहर होने की खबर ने पल्लवी को उदास कर दिया। क्लास में वह गयी जरूर, लेकिन वहाँ उसका मन नहीं लगा। आज अपनी यह मन:स्थिति वह खुद नहीं समझ पा रही थी।

घर पहुँची तो भी मन अनमना-सा ही रहा। अब उसे कौन समझाए कि ध्रुव कोई हमेशा के लिए थोड़े ही गया है! कामिनी ने झिड़का भी, "अरे गाँव छुट्टी लेकर तो गया है, दो-तीन दिन में लौट आएगा।" लेकिन पल्लवी का मन

था कि मान ही नहीं रहा था। कॉलेज में इतने सारे लोग थे, लेकिन उसे लगता कि इस भीड़ में भी वह अकेली है।

"अभी ध्रुव से दो-चार बार ही तो मुलाकात हुई है, तब भी ऐसा क्यों लग रहा है जैसे बरसों की जान-पहचान हो? क्या यह उसके गीतों के बोलों का ही असर है या कुछ और?"

खुद ही से सवाल पूछती पल्लवी का मन और उचाट होने लगा तो उसने अपना ध्यान सामने खुली पड़ी कैमिस्ट्री की किताब पर लगाने की कोशिश की। पर ये क्या, उसे लगा कि आँखों से पढ़े जाने वाले शब्द उसके दिमाग तक पहुँच ही नहीं पा रहे। फिर उसने पास ही रखी एक पत्रिका निकाल ली और उसे पढ़ने लगी।

पर आज इसमें भी मन नहीं लग रहा था उसका। वह भी समेटकर किनारे रख दी उसने। यूँ तो पल्लवी विज्ञान की छात्रा थी, लेकिन पढ़ाई के साथ-साथ विभिन्न साहित्यिक व सामाजिक सरोकारों से जुड़ी पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ना भी उसका प्रिय शौक था। यही नहीं, स्कूल के समय से ही जिस किसी भी विषय पर भाषण या वाद-विवाद प्रतियोगिता होती, वह भाग लेने से नहीं चूकती।

और फिर पल्लवी के लिए तो आज यह समय गुजारने के साथ-साथ मन बहलाने का भी एक बहुत अच्छा जरिया था। वैसे और दिन भी उसके सहपाठी व अन्य छात्र-छात्राएँ जहाँ फुरसत के पलों में मनोरंजन के लिए टी.वी., फिल्में आदि देखा करते, वहीं पल्लवी ढूँढ-खोज कर लायी इन्हीं पत्रिकाओं को खोलकर बैठ जाती।

आज भी अपने उचाट मन को किसी तरह शान्त करने के इन्हीं उपक्रमों में लगी थी वह। पर मन की बेचैनी थी कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। कब ध्रुव आए और कब वह उससे मिले! यही उत्कंठा उसके मन में जाग रही थी।

छह

कंकरीले-पथरीले, ऊँचे-नीचे घुमावदार रास्ते पर हिचकोले खाती बस कालूडांडा बस स्टेशन पहुँची, तो सुबह के नौ बज चुके थे। ध्रुव सुबह सात बजे चला था सुन्दर गाँव से। यहाँ से उसे अब अपने गाँव देवीधार पहुँचने के लिए दो मील आगे पैदल भी चलना था। सीढ़ीनुमा खेतों व जंगलों से गुजरती सँकरी पगडंडियों से होते हुए ध्रुव फटाफट गाँव की ओर चल पड़ा। इन्हीं बीहड़ रास्तों को नापते हुए ही तो उसने स्कूली पढ़ाई पूरी की थी।

शहर के अपने सहपाठियों को जब वह बताता तो उन्हें यकीन ही नहीं होता। उन बेचारों को तो यह भी नहीं मालूम था कि घोर दरिद्रता में पले-बढ़े इस बालक को जूते तो दूर, चप्पल भी नसीब नहीं थे।

शुरू में जब वह छोटा था तो घर पहुँचकर कंकड़-पत्थरों से लहूलुहान पाँव माँ को दिखाता। धीरे-धीरे समझ आयी तो माँ के झर-झर झरते आँसू उससे सहे न जाते। और फिर माँ की नजरों से बचाकर चुपचाप रात में अपने पाँव सहला लिया करता। इन घावों को अपनी चुनौती मान उसने और परिश्रम शुरू कर दिया। इसी का नतीजा था, वह दसवीं में पूरा जिला टॉप कर गया। बेचारे अनपढ़ माँ-बाप क्या जानें! उन्हें तो अभी तक ध्रुव के कक्षा में प्रथम आने का ही पता था, लेकिन जब गुरुजनों ने घर आकर कल्याण सिंह को बधाई दी, तो उनका सीना गर्व से चौड़ा हो गया।

"बहुत होनहार पुत्र है आपका। भविष्य में जरूर आपका नाम रोशन करेगा।" गाँव के पण्डित जी ने जन्मपत्री बाँच यह सुनाया, तो माँ बड़े यत्न से बचाये सवा रुपए का प्रसाद कुलदेवता को चढ़ा आयी।

दसवीं बाद ध्रुव को योग्यता छात्रवृत्ति मिलने लगी तो उसके कॉलेज का मार्ग स्वतः प्रशस्त हो गया। वरना मजदूरी करके कल्याण सिंह कहाँ ध्रुव को शहर भेज पाते। उनकी हालत देखते हुए कई लोगों ने तो दसवीं पास करते ही ध्रुव को फौज में भर्ती करवा डालने की सलाह तक दे डाली थी।

लेकिन एक तो किशन का सुझाव और फिर ध्रुव के गुरुजनों का जोर देख

कल्याण सिंह ने उसे आगे पढ़ाना ही ठीक समझा।

साथ के ही कुछ छात्रों व गुरुजनों की मदद से ध्रुव ने ग्यारहवीं में दाखिला ले लिया। वजीफे के पैसे उसने आगे की पढ़ाई के लिए बचा लिए, लेकिन किस्मत ऐसी कि वह बारहवीं में पहुँचा तो माँ गम्भीर रूप से बीमार हो गयी।

पिता जी के तो होश ही फाख्ता हो गये। कैसे हो इलाज का प्रबन्ध? वह इधर-उधर कर्जे का जुगाड़ करने लगे। ध्रुव ने ढाँढस बंधाया, डाकखाने में उसकी छात्रवृत्ति की रकम जमा है, चिन्ता न करें। पिता की जान में जान आयी. पर झेंप भी लगी, बेटे की पढ़ाई की रकम! क्या सोचेगा ध्रुव!

ध्रुव समझ गया उनकी मनोदशा। पर माँ के लिए यह छोटी सी रकम तो क्या, कई जीवन कुर्बान कर सकता था वह। उसने भगवान का शुक्रिया अदा किया कि कम से कम अपनी यह कमाई तो वह माँ की सेवा में लगा सका।

उसने पिता से कहा, "बारहवीं में इतने नम्बर लाऊँगा कि फिर से मुझे वजीफा मिल जाएगा।" और ध्रुव जी-जान से जुट गया पढ़ाई में।

कहते हैं, मेहनत जरूर रंग लाती है। ध्रुव की मेहनत भी रंग लाई। बारहवीं बोर्ड में प्रदेश की मेरिट में आकर उसने पूरे इलाके का नाम रोशन कर दिया।

अब कॉलेज में प्रवेश लेने के कुछ समय बाद ही उसने अपने सहपाठियों के सहयोग से ट्यूशन भी पढ़ाना शुरू कर दिया। इससे कॉलेज की पढ़ाई के साथ-साथ माता-पिता के लिए भी थोड़ी बहुत मदद होने लगी।

काफल, बाँज, बुराँश का दिलकश जंगल पार करते ही ध्रुव को लगा जैसे गाँव आ गया। इन्हीं पगडंडियों को नापते, गधेरे-गड्ढे फाँदते और पेड़-पौधों से बतियाते वह आज यहाँ तक पहुँचा था। न जाने कितनी यादें जुड़ी थीं इनसे उसकी। उसने प्यार से माटी को चूमा और फिर माथे से लगा लिया। मन में माता-पिता, श्रवण व गाँव के सगे-साथियों से मिलने की बेताबी और बढ़ गयी। वह जितनी बार गाँव आता, उसे पहले से अपना यह गाँव कहीं और ज्यादा प्यारा लगता।

इस बीच कानों में पड़ी एक कशिश भरे गाने की स्वर लहरी ने जैसे मन के तार झंकृत कर दिए। अचानक उसके पाँव ठिठक गये। आँखें मूंदकर वह उस पहाड़ी लोकगीत के मधुर बोलों में खो गया-

"घुघूति घुराण लगी म्यारा मैत की,

बौड़ि-बौड़ि ऐगे, ऋतु..ऽ..ऋतु चैत की।

डांडि काँठियूँ कू ह्यूँ गौळि गे होलू,

म्यारा मैत् कू बोण, मौळि गे होलू..."

मतलब है, पहाड़ी पक्षी- 'घुघुती' यानी फाख़्ता की मधुर कूक ने नवविवाहिता में मायके की तड़प और बढ़ा दी है। मानो मायके से बुलावा लेकर आयी यह घुघुती कह रही हो- बेटी तू आ नहीं रही? चैत ऋतु फिर लौट आयी है। यह सुनते ही वह नवविवाहिता खो जाती है मायके की याद में। सोचने लगती है, अब तो बर्फ भी पिघल गयी होगी। चारों तरफ मखमली हरियाली, बुराँश के फूल खिल गये होंगे, उदास पिता और माँ सब उसकी राह तक रहे होंगे...।'

सुनकर गद्गद ध्रुव का जैसे रोम-रोम पुलकित हो उठा। कितना प्यारा गीत है यह! और गाने वाले ने तो जैसे अमृत घोलकर जान ही फूंक दी है इसमें। कौन होगा यह सुर-साधक! यही सब सोचता हुआ वह अपने घर के करीब पहुँचा तो चौंक गया। आवाज तो उसी के घर से आ रही है।

माँ आँगन में गेहूँ साफ कर रही थी। शेरू अचानक भौंकने लगा। कोई आ तो नहीं रहा! यह सोचकर माँ एकदम उठ खड़ी हुई। नजरें अब जवाब देने लगी थीं। आँखों पर जोर डालकर उसने सामने रास्ते की ओर नजर दौड़ाई। कौन होगा ये? जब तक ध्रुव पास नहीं आ गया, वह एकटक नजरें गड़ाए रही। और पास आते ही वह पहचान गयी- अरे, ये तो अपना ध्रुव है। माँ की ममता पिघल आयी। ध्रुव ने ज्योंही पाँव छुए, माँ ने उसे गले से लगा लिया। फिर जिज्ञासावश अचानक आने का कारण पूछने लगी, "तू अचानक कैसे आया, सब ठीक तो है न बेटा!"

"जी माँ, सब ठीक है।" और फिर ध्रुव ने किशन भैया के घर छुट्टी पर आने से लेकर उनके गाँव जाने तक की पूरी कहानी माँ को सुना दी। कुछ देर बाद गाने की आवाज भी थम गयी।

ध्रुव का ध्यान तो जैसे उस गाने की ओर ही लगा था। रह नहीं पाया तो उसने माँ से पूछ ही लिया, "कौन गा रहा था ये माँ?"

"वह तो अपना श्रवण ही है बेटा। अब तो दिन रात गाने-बजाने में ही डूबा रहता है। क्या करें, तू तो जानता है बेटा। इलाज के लिए हम लोगों के पास सामर्थ्य तो है नहीं। अब ईष्ट देव का ही सहारा है।" अचानक उसका गला भर आया और फिर छलछलाई आँखों को अपनी धोती के पल्लू से पोंछने लगी।

यूँ तो श्रवण ध्रुव से मात्र तीन वर्ष ही छोटा था, लेकिन शारीरिक अपंगता के कारण वह कभी विद्यालय का मुँह नहीं देख पाया। जब तक ध्रुव गाँव में था, उसे घर पर पढ़ा देता। ध्रुव की किताबों से ही उसने पढ़ना-लिखना सीखा। पर कहते हैं ऊपर वाला, कहीं कोई कसर छूट जाए तो उसकी भरपाई को कोई हुनर जरूर देता है।

श्रवण को यह सुरीला गला भगवान का ही दिया तोहफा था। वह बचपन से ही इतना मधुर गाता कि लोग झूम उठते। गढ़वाली कुमाऊँनी गानों में वह नयी जान फूंक देता। पर ध्रुव को उसके गाने में आज लय-मिठास के साथ गहरे दर्द का भी एहसास हुआ। बहुत देर तक वह उसी के बारे में सोचता रहा।

मुँह-हाथ धोकर ध्रुव बैठा ही था कि माँ दूध का गिलास लेकर आ गयी, "कितना कमजोर हो गया है तू। चल पहले यह दूध पी ले।" और फिर जब तक उसने गिलास खाली नहीं कर दिया, वह वहीं बैठी रही।

"पिछले महीने ही चन्दा ब्याई है, बहुत सुन्दर बछड़ा है उसका। माथे पर तिलक, बड़ी-बड़ी आँखें। बिन्दा तो अब दूध देना बन्द कर देगी।"

माँ ने अपनी गाय के कुनबे का किस्सा सुनाना आरम्भ कर दिया। यह कुनबा भी उन लोगों के लिए बिल्कुल परिवार के सदस्यों जैसा ही था। इसीलिए उसी प्यार और आत्मीयता से उन्होंने उनका नामकरण भी किया हुआ था। घर के निचले हिस्से में ही उनकी गौशाला थी और ऊपर के हिस्से में, जिसमें दो कमरे और एक छोटी-सी रसोई थी, यहीं उनका चार प्राणियों का परिवार रहता था।

घर का गुजारा हो सके, उतना दूध माँ अपने पास रख बाकी दूध बेच देती। उनके ग्राहकों में निकट में ही स्थित प्राथमिक विद्यालय के अध्यापक और स्वास्थ्य केन्द्र के कर्मचारी आदि थे।

स्कूल में गर्मियों और सर्दियों की छुट्टियाँ होने पर अध्यापक अपने-अपने घर चले जाते तो माँ दूध का घी बनाकर रख लेती और उससे कुछ अतिरिक्त आय अर्जित कर लेती। जब तक ध्रुव दूध पीता रहा, माँ उसे गाँव-घर के किस्से भी सुनाती रही। उसके बाद गिलास उठा दोपहर के भोजन की तैयारी में जुट गयी।

श्रवण को लेकर ध्रुव बहुत चिन्तित रहता। सबकुछ ठीक होता तो इस समय वह दसवीं पास कर चुका होता। पर वह करे भी तो क्या? अभी तो वह खुद की पढ़ाई का खर्च ही बड़ी मुश्किल से उठा पा रहा है। एक बार व्यवस्थित हो जाए तो श्रवण को शहर के डॉक्टरों को दिखा देगा।

दौड़ भागकर दिन में पिता भोजन करने आए, तो ध्रुव को अचानक आया देख गद्गद हो गये। - ध्रुव ने झट पाँव छुए और एकटक उन्हें देखता रह गया- असमय ही कितने बूढ़े दिखने लगे हैं पिताजी। दिन-रात की कड़ी मेहनत और चिन्ता ने उन्हें कैसा सुखा दिया है।

बेटे को देख पिता का जैसे रोम-रोम खिल गया- देखो, आज मुझसे लम्बा हो चला है यह। इस बार सेहत भी ठीक लग रही है। फिर थोड़ी देर पलकें बन्द कर ली उन्होंने। मानो ईष्ट देव से कह रहे हों, नजर न लगे मेरे बेटे को। कितनी मुश्किलों से पाला है उसे। छह साल का हो जाने तक तो उन्होंने उसे स्कूल में पढ़ाने के बारे में सोचा भी नहीं था। गाँव में ही जब किसी ने बताया कि ध्रुव स्कूल के बाहर घंटों खड़े होकर अन्दर बच्चों को पढ़ते देखता रहता है तो उन्हें लगा कि वह स्कूल जाना चाहता है।

सरकारी स्कूल था। फीस भी तो अधिक नहीं थी, लेकिन किताबें, स्कूल ड्रेस का खर्चा तो करना ही पड़ता। सोच में पड़ गये कल्याण सिंह। पर उन्होंने कमर कस ली और किसी तरह अपने मालिकों से उसके लिए पुरानी किताबों और कपड़ों का इन्तजाम कर ही लिया।

सम्पन्न घरों के बच्चों के बीच अभावों से जूझते ध्रुव ने अपनी प्रखरता से जिस तरह गुरुजनों का दिल जीत लिया, उसी से उसके आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त हो गया। यह उन्हीं की प्रेरणा, प्रताप और मार्गदर्शन का परिणाम था कि आज वह अपनी सीमा और सामर्थ्य से कहीं आगे का सपना देख रहा था।

"एक दो दिन तो रहेगा तू।" भोजन के समय माँ ने पूछा तो ध्रुव ने अगले ही दिन जाने की बात कर उसका मन उदास कर दिया।

खाने के साथ में माँ ने घी की कटोरी भर कर ध्रुव के सामने रख दी तो ध्रुव चौंक पड़ा, "इतना सारा! मैं नहीं खा सकता इतना।"

"खा ले बेटा, घर में बनाया है और कुछ तो दे नहीं सके तुझे। उल्टा तुझ पर ही बोझ बने हुए हैं।" माँ की आँखें एक बार फिर भर आई।

गाँव के स्कूल से पाँचवीं पास करने के बाद आस-पास स्कूल न होने के कारण गाँव से दो मील दूर पैदल जाना पड़ता। शुरू-शुरू में तो माँ उसे भेजने को तैयार ही नहीं थी, परन्तु ध्रुव के अध्यापकों के समझाने पर बड़ी मुश्किल से वह तैयार हुई।

सुबह का निकला ध्रुव शाम को थका-हारा घर पहुँचता। उसका सूखा-सा मुँह देखकर माँ के न जाने कितनी बार आँसू निकल आते।

"छुड़ा दो इसका स्कूल, हमें कौन सा उसे कलक्टर बनाना है। मुरझा गया है मेरा बच्चा।" न जाने कितनी बार पति कल्याण सिंह के आगे अपना दुःखड़ा रो चुकी थी वह।

लेकिन कल्याण सिंह धुन के पक्के थे। साथ ही मन के भी। "खून पसीना बहा कर ही सफलता मिलती है सुमित्रा। फिर मुझ जैसे गरीब मजदूर के बच्चे ऐसे कोमल बनकर कैसे पनप पाएँगे!" पति की यह बात सुमित्रा का मुँह बन्द कर देती और इसी जिद के चलते देखते-देखते आज ध्रुव कॉलेज पहुँच गया।

हर महीने सुमित्रा को जब ध्रुव का भेजा हुआ मनीऑर्डर मिलता तो वह फूले नहीं समाती, पर अगले ही पल उसकी कष्टमय जिन्दगी का एहसास कर उसके भीतर ममता उमड़ पड़ती।

"बहुत भाग्यवान हैं आप, जो ऐसा बेटा मिला है। वरना इस उमर में तो माँ-बाप बच्चों को मनीऑर्डर भेजते हैं, और वह है कि पढ़ाई के साथ-साथ उल्टा आपको मनीऑर्डर करता है। वह भी हर महीने समय से।" डाकिया जब भी मनीऑर्डर देने आता तो यह कहना न भूलता।

अगले दिन सुबह ध्रुव के ना-ना करते भी पिता कल्याण सिंह उसे बस अड्डे तक छोड़ने आ ही गये। माँ भी गाँव के ऊपर धार तक चली आयी और तब तक खड़ी रही जब तक ध्रुव आँखों से ओझल न हो गया।

शहर पहुँचकर उसने अनुमान लगाया कि अब तक तो पहली क्लास छूट ही गयी होगी। अब दूसरे पीरियड में ही जा पाऊँगा। तीन दिन की लगातार भागदौड़ से वैसे भी उसका तन थक कर चूर हो गया था। मन किया, ऑटो लेकर जल्दी से छात्रावास पहुँच जाए। जेब में हाथ डाला। एक सौ रुपए का नोट और थोड़ी-सी रेजगारी थी। पर उसी पल आँखों में माता-पिता और श्रवण की तस्वीर कौंध गयी। उसने नोट को कस कर मुट्ठी में भींचा और बस की प्रतीक्षा करने लगा।

सात

ध्रुव को पिछले तीन दिन से कॉलेज में न पाकर बहुत बुझी-बुझी सी थी पल्लवी, कहीं अपने में ही खोई जैसी। आज भी वह कामिनी के साथ रिक्शे में आयी जरूर, पर गुमसुम-सी। यहाँ भी वह उतरी और छतरी तान कॉलेज की ओर चल दी।

बारिश अब तेज हो चली थी। रास्ते में जगह-जगह पानी भर गया। आते-जाते वाहनों से बचते-बचाते हुए वह दोनों किनारे-किनारे चलने लगीं। कुछ छात्र तो सड़क पर जमा पानी देख खुद ही वाहनों की गति धीमी कर देते, पर कुछ शरारती जानबूझकर उन्हीं तलैयों से छपाक कर निकल जाते।

ऐसी ही एक शरारती मोटरसाइकिल के गुजरने पर सारा पानी पल्लवी के ऊपर आ गिरा, तो उसने ज्यों ही गुस्से से नजरें उठा कर देखा सामने से ध्रुव चला आ रहा था। वह भूल गयी कि अभी-अभी कोई बद्तमीज मोटरसाइकिल सवार सड़क का गन्दा पानी उसके ऊपर छलका गया है।

"ध्रुव जी।"

झमझमाती बारिश के चलते ध्रुव के कानों में पल्लवी की आवाज नहीं पहुँच पायी और वह अपनी ही धुन में कॉलेज की ओर चलता रहा।

"ऐसे तो सुन लिया उसने!" पल्लवी को झिड़कते हुए कामिनी ने इस बार खुद ही ध्रुव को जोर से आवाज लगायी।

ध्रुव वहीं ठिठक गया। देखा, सामने पल्लवी और कामिनी खड़ी थीं। वह पूरी तरह भीग चुका था। उसके पास छतरी तो थी, पर बड़ी जीर्ण-शीर्ण-सी।

मन-ही-मन वह बारिश को कोसने लगा। स्टेशन से चला था तो अच्छी-खासी धूप थी, लेकिन कॉलेज पहुँचते-पहुँचते मौसम बदल गया। किसी तरह से खरीदी छतरी बमुश्किल एक ही बरसात झेल पायी। एक बरसाती लेने का मन बना रहा था, लेकिन जब भी पैसे इकट्ठे होते, पाँव दुकान की बजाय स्वतः पोस्ट ऑफिस की ओर मुड़ जाते। उसे लगता, बरसाती बगैर तो फिर भी काम चल जाएगा, पर पैसों के बिना माँ-बाप का गुजारा नहीं चल पाएगा।

पल्लवी और कामिनी के सामने अपनी हालत उसे दयनीय लगी। कमल साथ होता तो शायद इस हालत से बचा लेता उसे।

"मैं तो परसों से आपको ढूँढ रही थी, लेकिन पता चला आप गाँव गये हुए हैं।"

ध्रुव पूछना चाहता था क्यों? पर पूछ न पाया।

पल्लवी ने खुद ही जवाब दे दिया, "एक तो आपकी कविता वापस करनी थी, दूसरा पूछना था कि आपके पास तो और भी रचनाएँ होंगी, क्या आप उन्हें मुझे पढ़ने को दे सकते हैं?"

"हाँ, बिल्कुल। पर वो कुछ ज्यादा तो हैं नहीं। बस यूँ ही, मैं कभी-कभी लिख लेता हूँ। मालूम नहीं कैसी होंगी।" ध्रुव की समझ में नहीं आ रहा था कि यह शहरी लड़की उस जैसे तथाकथित गँवार की इन रचनाओं में इतनी रुचि क्यों ले रही है?

"आप कितना अच्छा लिखते हैं, इसका शायद आपको एहसास नहीं है। आप अगर मुझे अपनी और रचनाएँ भी पढ़ने के लिए दे दें, तो यह मेरा सौभाग्य होगा।" पल्लवी को इस तरह गिड़गिड़ाते देख ध्रुव और कामिनी दोनों ही उसका मुँह देखते रह गये।

"क्या मैं सचमुच अच्छा लिखता हूँ या कोई और बात है?" ध्रुव सोच में पड़ गया।

कामिनी भी हैरान थी, "ये पल्लवी को क्या हो गया है! ये तो कभी किसी को घास ही नहीं डालती, पर इसने इस लड़के में ऐसा क्या देखा, जो इस तरह गिड़गिड़ा रही है?"

"मैं कविताएँ पढ़कर आपको लौटा दूँगी। आप दे देंगे न मुझे?" पल्लवी की आवाज सुन दोनों अपनी-अपनी सोच से बाहर निकल आए।

"जी, कल ला दूँगा।" सकुचाए ध्रुव ने जैसे पीछा छुड़ाने की कोशिश की और फिर तेजी से कॉलेज की ओर चल दिया।

"क्या जरूरत पड़ी थी तुझे इतना हाथ-पाँव जोड़ने की? देखा! कैसे पीछा छुड़ाकर भाग गया वो!" ध्रुव के जाते ही कामिनी उस पर फट पड़ी। जिस लड़की से मिलने को, बात करने को छात्र बहाने ढूँढ़ते हैं, वह एक साधारण से लड़के के सामने इस तरह अनुनय-विनय करे, यह बात कामिनी को कतई गवारा नहीं थी।

"कैसा अकड़ रहा था। जैसे तू उसकी कविताएँ खा जाएगी।" पल्लवी को मुस्कुराहट बिखेरते देख कामिनी का पारा और चढ़ गया।

"पगली! वो उसकी अकड़ नहीं, सरलता थी, ज्यादा बातें बनाना नहीं आता उसे।" कामिनी जितनी क्रोधित थी, पल्लवी ने उतने ही शान्त भाव से जवाब दिया।

"ओ हो! तो दो ही मुलाकातों में सबकुछ जान लिया उसके बारे में?" कामिनी के गुस्से ने परिहास का रूप ले लिया था। "बता ना! क्या चक्कर है ये?" फिर अचानक ही कामिनी बाल सुलभ सरलता पर उतर आई।

अजीब लड़की है यह! पल में तोला, पल में माशा। हैरान हो उठी थी पल्लवी। "पागल है तू, चल क्लास के लिए देर हो रही है।" और वह कामिनी का हाथ पकड़ कर खींचती हुई उसे क्लास की ओर ले गयी। जब तक कक्षा आरम्भ न हुई, कामिनी कुछ न कुछ बड़बड़ाती रही। टीचर आयी तो पल्लवी ने बड़ी चैन की साँस ली।

"गाँव का सफर कैसा रहा?"

"अच्छा"

"माँ जी-पिता जी कैसे हैं?"

"ठीक"

"और तेरे प्रिय किशन भैया?"

"वो भी ठीक है।"

"कर क्या रहा है यार तू? कहाँ खोया हुआ है?"

ध्रुव के अनमने जवाब सुन कमल खीझ उठा। छात्रावास पहुँचने के बाद ध्रुव ट्यूशन पढ़ाने चला गया। और अब लौटा तो कागजों का गट्ठर लेकर बैठ गया। उसे कुछ तलाशने में डूबा देख कमल बोला, "तुझे तो यार अब मुझसे बात करने की भी फुर्सत नहीं रही!"

"गुस्सा मत हो यार, कुछ कविताएँ ढूँढ़ रहा हूँ। तुझे मालूम है न पल्लवी माँग रही थी" ध्रुव ने फाइल में डूबे हुए ही जवाब दिया।

पल्लवी का नाम सुन अब और भड़क उठा कमल। "ओ हो तो इसलिए बिजी हैं जनाब! अब पता चला वह तीन दिन से क्यों मेरा भेजा खाये जा रही थी- ध्रुव कहाँ गया-ध्रुव कहाँ गया।" और फिर बिस्तर से उठकर ध्रुव के पास आ खड़ा हुआ।

"मेरे भोले दोस्त! इन शहर की लड़कियों से तू दूर ही रह तो अच्छा। वरना पछताएगा बुरी तरह।" कमल की भाव-भंगिमा ऐसी थी कि ध्रुव को हँसी आ गयी।

"पल्लवी ऐसी नहीं है यार।" फिर वह शान्ति से कमल को समझाने लग गया।

कमल तो और भी जैसे हत्थे से उखड़ गया, "तू तो बड़ा अन्तर्यामी है भाई! दो-चार दिन में ही सबकुछ जान गया उसके बारे में। मेरा तो फर्ज था तुझे सावधान करना। बाकी तेरी मर्जी!" कमल क्या कह रहा था, ध्रुव को इसका कोई होश नहीं था। वह तो एक अलग ही दुनिया में खो गया था।

"आप कितना सुन्दर लिखते हैं, आप नहीं जानते।"

बार-बार ये शब्द ध्रुव के कानों में गूँज कर दिल में उतर जाते। पहली बार किसी ने उसकी रचना को सराहा था और वह भी इस कदर। वरना वह तो अन्तर्मुखी व्यक्तित्व का स्वामी रहा है और मजाक उड़ने के डर से वह तो यह कहने में भी हिचकिचाता है कि वह लिखता भी है। गरीबी और संघर्ष ने उसे इस कदर सरल, संवेदनशील और सलीकेदार बना दिया था कि अतिरेक के क्षणों में भी वह कभी सीमाएँ नहीं लाँघता। मौन रह कर भी उसकी यह कति उसके संस्कारों की झलक दे जाती-

"याद मुझे उस कंटक वन की,

जिससे होकर मैं निकला हूँ।

विपदानल की पीड़ाओं में, .

मैं सदा मोम-सा पिघला हूँ।"

ध्रुव ने अपनी छोटी सी उम्र में जितना दुःख-दर्द देखा, झेला और महसूस किया, शायद वही सब उसकी रचनाओं के विषय बन गये-

क्या बताऊँ इस हृदय की,

वेदना की उस व्यथा को!

इतिहास बहुत लम्बा है जिसका

कहूँ कैसे उस व्यथा को?

लेकिन आज उसका मन उत्साह से भर उठा था। पर कहीं इससे कमल के दिल को ठेस न पहुँचे, ध्रुव तो इसका भी पूरा खयाल रखे हुए था।

आठ

'सम्बन्धों में किया गया वायदा तो फिर वायदा ही होता है।' यह भला ध्रुव से बेहतर और कौन जान सकता था? इसलिए पल्लवी से किये अपने वायदे पर खरा उतरते हुए, वह सबकुछ छोड़, सुबह पहले उसे अपनी रचनाएँ सौंपने आ पहुँचा। गद्गद पल्लवी ने दिल से उसका शुक्रिया अदा किया और शाम को घर पहुँचते ही वह अपने कमरे में बन्द हो गयी।

ध्रुव की लिखी कविताएँ कई बार पढ़ डालीं उसने। इनमें कहीं तो देशभक्ति का जज्बा कूट-कूटकर भरा था, तो कहीं दया व ममता हिलोरें लेती थीं। कहीं संवेदनाएँ फूट पड़तीं, तो कहीं सपने कुलाँचे भरते। कहीं रिश्तों की ऊष्मा गद्गद कर जाती, तो कहीं लक्ष्य का संकल्प कुछ ऐसे चट्टान की तरह आ खड़ा होता! पल्लवी ध्रुव के शब्द पढ़ रही थी-

"मुझे विधाता बनना है,

अन्तस में ज्योति जलानी है।

निज में निज को निर्णय देकर,

बस आज सफलता पानी है।

विश्वास जगाना है मुझको

अब गीत विजय के गाने हैं।

गगन चूमते, पर्वत ऊँचे मुझे धरा पर लाने हैं।

मिटते उन पगचिन्हों पर,

आँख मूँद नहीं जाना है।

निज पौरुष का बना दीप,

मुझको निजमार्ग बनाना है।

कुछ कविताएँ पल्लवी के मन में थिरकन पैदा करतीं, तो कुछ लोगों के दुःख दर्दों की खातिर अपने स्वार्थों पर कुछ इस तरह बेड़ियाँ भी डाल देतीं-

सब कुछ देना, पर मुझको

तुम इतना नेह नहीं देना।

खो जाऊँ मैं तुममें इतना,

भूलूँ जग से दुःख लेना।

ध्रुव की कविताओं में कहीं संघर्ष था, तो कहीं जीवन के उतार-चढ़ावों का भोगा हुआ यथार्थ झलक रहा था। पर सबकुछ होते हुए भी, आत्मीय रिश्तों के लिए ऐसा जबर्दस्त समर्पण अन्यत्र दुर्लभ था-

मैं जाने-अनजाने भी

सौगन्ध यही खाता हूँ।

तुम्हारी साधना में प्रिय!

स्वयं का संकल्प पाता हूँ।

कुछ कविताएँ मानवता की पीठ थपथपाने वाली थीं, तो कुछ पैसे के लिए हर हद पार करते लोगों पर व्यंग्य और निर्मम प्रहार भी करती थीं-

पैसे की खातिर तुमने तो,

अपना सबकुछ खो डाला?

भूल गये अपनत्व, नेह सब,

पैसे ने यह क्या कर डाला?

पल्लवी खो गयी ध्रुव की इन कविताओं में। वह जितना उन्हें पढ़ती जाती थी, उतनी ही वह ध्रुव के बहुआयामी व्यक्तित्व से परिचित भी होती जा रही थी। फिर कुछ पंक्तियों पर उसकी नजर ठिठक गयी। जीवन में संघर्षों से जूझने की ध्रुव की जिजीविषा का आईना थीं वे पंक्तियाँ-

जहर भी है जिन्दगी तो,

पलक घुटते जा उसे,

कंठ ही तो नील होगा,

परवाह उसकी है किसे?

यही नहीं, ध्रुव की कविताएँ मानवता का पुजारी होने के साथ-साथ उसके सच्चे राष्ट्रभक्त होने की भी गवाही दे रही थीं पल्लवी को।

ये कविताएँ पढ़-पढ़कर पल्लवी भाव विह्वल हो गयी और ध्रुव की मुरीद भी। इससे पहले उसे ध्रुव के बारे में कुछ अधिक मालूम भी नहीं था। हाँ उसके रहन-सहन, बातचीत से उसे यह एहसास तो हो गया था कि वह ग्रामीण परिवेश का संसाधनहीन छात्र है। पर ध्रुव के प्रतिभावान होने का परिचय पल्लवी को उसकी कविताओं से ही मिला। धीरे-धीरे ध्रुव के लिए उसके दिल में और जगह बनने लगी-

"ऐसे ही कठिनाइयों से पार पाकर निकलने वाले बिरले लोग ही जीवन में कुछ कर पाते हैं।" पल्लवी के मन में ध्रुव के प्रति श्रद्धा का भाव अनजाने ही पैदा होता जा रहा था। उसने ध्रुव के जो शब्द अगली कविता में पढ़े, उनसे उसकी धारणा' और भी पुष्ट हो गयी-

संघर्षों की पीड़ा है जो

मुझमें नव ऊर्जा भरती है।

मैंने उसको जीवन माना,

जिससे मौत भी डरती है।

कितनी सहजता से ध्रुव ने अपनी सोच को इन शब्दों में व्यक्त किया है! पल्लवी ने मन ही मन कहा!

"पल्लवी, आ बेटा खाना खा ले।" माँ की आवाज उसे इस स्वप्निल दुनिया से बाहर ले आयी।

"मुझे भूख नहीं है माँ।" पल्लवी का जवाब सुन माँ खुद ही उसके कमरे में चली आयी।

"क्यों भूख नहीं है, तबीयत तो ठीक है न?"

माँ को चिन्तित देख पल्लवी ने अपनी बाँहें प्यार से उसके गले में डाल दी, "माँ मैं बिल्कुल ठीक हूँ। कैंटीन में कुछ ज्यादा खा लिया था बस। और कोई बात नहीं।"

"बड़ा लाड़ आ रहा है आज माँ पर, क्या बात है?"

"कुछ भी नहीं माँ, क्या तुम्हें प्यार नहीं कर सकती मैं?"

"क्यों नहीं बेटा?" माँ ने उसका माथा चूमा और खाना परोसने चली गयी। पल्लवी फिर ध्रुव की कविताओं में खो गयी।

मैं मुक्त हूँ,

उन बन्धनों से

जो मृत्यु तक

हैं कैद जाते।

खुशकिस्मत कहता

उन्हें मैं

जो नेह की

जंजीर पाते...।

कितने गजब के विचार हैं ध्रुव के! निश्चित बात है कि इतना ही गजब का इंसान भी होगा यह। आदमी जैसा होता है, वह उसकी लेखनी, बातों, विचारों और हावभावों में साफ परिलक्षित हो जाता है।

पल्लवी के मन में एक आदर्श इंसान का मूर्त रूप लेने लगा था ध्रुव। पर ये क्या? अगले ही दिन उसकी भावनाओं को सिरे से खारिज करने पर तुल गयी कामिनी।

"अरे तू नहीं जानती इन लिखने वालों को? लिखते कुछ और हैं ये सब और करते कुछ और हैं। करेंगे बड़ी आदर्शवादी बातें, लेकिन हकीकत जानोगी तो शर्म आएगी पल्लवी जीऽऽऽ!"

"लेकिन कामिनी, जिसके कर्म बुरे हों, उसके मन में अच्छे विचार आ ही कैसे सकते हैं?" पल्लवी हार मानने को तैयार नहीं थी।

हम बहस क्यों करें? तू खुद ही देख लेना। देश के लिए बड़ी-बड़ी बातें करने वाला यही ध्रुव एक दिन किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में नौकरी करके पैसे कमाने की मशीन बन जाएगा।" कामिनी ने बहस को विराम लगाना चाहा।

पल्लवी चुप तो हो गयी, लेकिन मन के भीतर उथल-पुथल जारी रही। यह बात उसकी समझ से परे थी कि मन की सुन्दरता के बिना लिखने, बोलने और आचार-विचार में सुन्दरता कैसे आ सकती है? उसे विश्वास था कि कामिनी को जल्दी ही इस बात का एहसास हो जाएगा कि ध्रुव के बारे में उसकी सोच गलत थी।

कक्षाएँ समाप्त होने के बाद पल्लवी पुस्तकालय पहुँची तो ध्रुव वहीं किसी किताब में डूबा हुआ मिला। पल्लवी बात करना चाहती थी, पर उसने नजरें उठा कर भी नहीं देखा।

अपनी किताब लेकर पल्लवी वापस लौटी तो ध्रुव नदारद था। "ज्यादा दूर क्या गया होगा!" यह सोच कर वह तुरन्त बाहर निकल आयी।

उसका अनुमान सही निकला। ध्रुव धीरे-धीरे छात्रावास की ओर बढ़ा जा रहा था। पल्लवी भी उसके पीछे-पीछे तेज कदमों से बढ़ निकली और फिर रहा न गया तो पीछे से आवाज भी दे डाली। पल्लवी की आवाज सुन कर ध्रुव ठिठक गया।

"आपकी कविताएँ वापस लायी हूँ, बहुत अच्छा लिखते हैं आप।" कुछ तेज चलने और कुछ उससे मिलने के कारण उसकी साँस धौंकनी-सी चल रही थी।

ध्रुव से कुछ भी जवाब देते न बना। चुपचाप सिर झुकाए खड़ा रहा।

"आप पढ़ाई में भी अव्वल आते हैं, साथ में इतनी सुन्दर रचनाएँ भी लिखते हैं। आखिर कैसे समय निकाल लेते हैं इसके लिए?" .

ध्रुव को चुप देख पल्लवी ने खुद ही बात आगे बढ़ाने की पहल की।

"जब भी मन में कुछ विचार आता है, उसे झट लिख डालता हूँ, और फिर शायद यही कविता बन जाती है।" कहना तो ध्रुव ये भी चाहता था कि पढ़ाई के साथ-साथ वह सुबह-शाम ट्यूशन पढ़ाने के लिए भी समय निकालता है, ताकि उसकी पढ़ाई निर्बाध रूप से चलती रहे। साथ में और भी बहुत कुछ, पर इतना ही कह पाया वह।

"अगले वर्ष तो आपका ग्रेजुएशन पूरा हो जाएगा। आगे क्या करने का इरादा है?" पल्लवी के मन में कामिनी की बातें घूम रही थीं। और फिर वह ध्रुव को अपनी इस मनोवैज्ञानिक कसौटी पर कसना भी चाहती थी कि इंसान भविष्य में जो करना चाहता है, या जो बनना चाहता है, वह बहुत कुछ उसके जीवन मूल्यों, सिद्धान्तों पर निर्भर करता है। लेकिन वह लक्ष्य पाता है या नहीं, यह तो परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

"सेना में जाना चाहता हूँ।" एक पल भी सोचे बगैर ध्रुव का दो-टूक जवाब था।

"सेना में ही क्यों?"

"बचपन से इसके अलावा और कोई सपना ही मैंने नहीं देखा। देश की सेवा करने का इससे अच्छा मौका और कहाँ मिलेगा!"

"और भी तरीके हैं देश-सेवा करने के। किसी भी सरकारी सेवा में समर्पण से काम करके भी तो देश की प्रगति में सहायक हो सकते हैं।" पल्लवी ध्रुव के मन की थाह ले रही थी।

"जहाँ देश के लिए अपने अमूल्य प्राणों को न्यौछावर किया जा सके, ऐसी कोई सेवा मुझे नजर नहीं आती। इंसान सबसे ज्यादा अपने जीवन से प्यार करता है और उन्हीं प्राणों की आहुति देश के लिए दे देने से बड़ा जज़्बा कोई और हो ही नहीं सकता।"

"तो क्या सी.डी.एस. वगैरह की तैयारी कर रहे हैं?"

"अभी तो कुछ खास नहीं। अगले वर्ष ही मन लगाकर तैयारी करूँगा।" थोड़ी देर दोनों के बीच सन्नाटा पसरा रहा।

"और आप! आप तो विज्ञान की विद्यार्थी हैं। इंजीनियरिंग, मेडिकल के लिए कोशिश नहीं की आपने?"

यह पहला मौका था जब ध्रुव पल्लवी के किसी निजी मामले में रुचि ले रहा था। मन ही मन प्रफुल्लित हुई वह।

"जी नहीं, मेरा कतई रुझान नहीं है इस ओर।"

"तो फिर क्या करने का मन है आपका? प्रशासनिक सेवा, बी.ए.-एम.ए. या कुछ और।"

"ना, इस ओर भी नहीं, सच कहूँ तो मैंने अभी सोचा ही नहीं कि क्या करना है।"

"लेकिन ये अनिश्चितता तो कतई अच्छी नहीं।"

"आप बिल्कुल ठीक कहते हैं, लेकिन मैं समझ नहीं पा रही। कुछ ऐसा करना चाहती हूँ, जिसमें सच्ची मानव सेवा समाहित हो। निरीह, लाचार और अशक्तों को नया जीवन मिल सके और खुद को आत्मसन्तुष्टि भी।"

ध्रुव बड़े ध्यान से उसकी बातें सुन रहा था। उसकी उलझन और उसके मन की गहराई को महसूस कर रहा था।

"तू यहाँ है! मैं तुझे पूरे कॉलेज में ढूँढते-ढूँढ़ते परेशान हो गयी।" कामिनी की खीज भरी आवाज से दोनों चौंके।

बातों में मशगूल दोनों न जाने कब छात्रावास के गेट पर पहुँच गये, उन्हें पता भी न चला।

"मुझे कविताएँ वापस करनी..." पल्लवी ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी, झेंप और लज्जा के मिले-जुले भाव उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। वह तो भूल ही गयी थी कि कामिनी भी उसकी प्रतीक्षा बेसब्री से कर रही होगी।

"अच्छा मैं चलता हूँ।" सकुचाए ध्रुव ने खिसकने में ही भलाई समझी।

"पल्लवी, अब तू मुझे साफ-साफ बता, ये चक्कर क्या है? मैंने तुझे पहले कभी किसी लड़के से ऐसे बातें करते नहीं देखा।" कई दिन से खीझी बैठी कामिनी मौका पाकर आज पल्लवी पर चढ़ ही बैठी।

"क्या बात कर रही है तू, मुझे उसकी कविता वापस करनी थीं, बस।" पल्लवी को लग रहा था जैसे उसकी चोरी पकड़ी गयी हो। उसे तो पता भी न चला कि कब बातें करते-करते वह कामिनी को छोड़ इतनी दूर निकल आयी।

"मुझसे छुपाने की कोशिश मत कर। तेरा चेहरा बता रहा है कि कुछ तो जरूर है।"

"नहीं कामिनी, कुछ भी नहीं। बस उससे बातें करना अच्छा लगता है। कहीं कोई दुराव-छुपाव नहीं है उसमें। जो बात मन में, वही जुबाँ पर। आज की दुनिया में कहाँ मिलते हैं ऐसे लोग!" और फिर उसने ध्रुव से हुई बातों का शब्दशः विवरण कामिनी को सुना दिया।

ठगी-सी कामिनी, पल्लवी की इन भावनाओं और आत्मीय सम्मान पर मुग्ध थी। उसके मन के उपवन में प्यार की पावन कोंपल के प्रस्फुटन को भाँपते उसे पल भर नहीं लगा। पर उसकी भावनाओं का आदर करते हुए, उसने पल्लवी को छेड़ना उचित नहीं समझा। दोनों रिक्शे की तलाश में कॉलेज के गेट पर खड़ी हो गयीं।

नौ

किशन जब से घर आया, तनाव में ही था। बिन्दु अब एक दिन भी गाँव में नहीं रहना चाहती थी। यूँ तो शादी के बाद से ही वह उसके साथ जाने की कोई न कोई जुगत भिड़ाती रहती, पर इस बार सोनू का बहाना बनाकर अड़ गयी। बार-बार वह उसे उलाहना देती, "खुद तो अफसर बने हो और बच्चों को यहाँ गाँव में पढ़ाकर उनका भविष्य चौपट कर दोगे क्या?"

"लेकिन माँ-पिता जी! वो तो शहर जाने को कभी तैयार न होंगे।"

"तो उन्हें गाँव में ही रहने दो न। रह लेंगे दोनो साथ-साथ। वैसे भी पुरखों की जमीन को छोड़ना ठीक नहीं।" बिन्दु उनसे पल्ला झाड़ना चाह रही थी। वह इधर-उधर कहती भी फिरती थी कि कम से कम शहर जाकर इन बूढ़े सास-ससुर से पीछा तो छूटेगा। इतने सालों से कैसे झेल रही हूँ उनको, मैं ही जानती हूँ।

लगभग छह साल पहले जब किशन और बिन्दु का विवाह हुआ था, तब वह फौज में एक मामूली सिपाही था। बड़ी दोनों बहनों का विवाह हो चुका था। घर में सिर्फ अब ये ही दो बूढ़े माँ-बाप बचे थे।

बिन्दु का मायका पास ही के गाँव में था। उसके दोनों भाई शहर में सरकारी नौकरी पर थे और बच्चे भी सब पिता के साथ थे। बिन्दु के विवाह के बाद उसके माँ-बाप नितान्त अकेले हो गये थे। उसकी भाभियाँ और तो कुछ सीख दे नहीं पायीं, पर शादी होने के बाद से ही उसे शहर चली आने के लिए उकसाती रहती थीं।

शुरू-शुरू में तो कुछ लोक-लाज का डर, और कुछ नया-नया माहौल, सो बिन्दु चुप ही रहना ज्यादा पसन्द करती, लेकिन कुछ समय बाद ही उसने गाँव में रहने को लेकर नाक-भौं सिकोड़ना शुरू कर दिया।

अब जब भी किशन छुट्टी पर घर आता, वह यही रोना लेकर बैठ जाती, "मेरी नहीं, तो कल बच्चे होंगे, कम से कम उनकी तो सोचो। अपने साथ नहीं रख सकते तो भाइयों के साथ ही रह लँगी।" पर हर बार वह 'ठीक है, देखेंगे' कह कर टाल जाता। इस बार भाई-भाभियों ने बिन्दु को नयी तरकीब सुझायी।

"मेरे भाई कह रहे थे कि हमारे लिए उन्होंने जमीन देखी है शहर में, लेकिन मैंने कह दिया उनसे पूछकर ही बताऊँगी।"

"जमीन का टुकड़ा!" किशन चौंका। "पैसा कहाँ से आएगा उसके लिए? और हम अपना घर-बार छोड़कर क्यों जाएँगे वहाँ?" बिन्दु की माँग सीधे शब्दों में खारिज कर दी किशन ने।

बिन्दु मन मसोसकर रह गयी, लेकिन यह बात उसके गले में फाँस की तरह गड़ गयी थी।

किशन फौजी था, साल में एक या दो बार ही छुट्टी आ पाता था, लेकिन बिन्दु इस बीच सास-ससुर से सीधे मुँह बात न करती।

सास-ससुर बेचारे बड़े सज्जन थे, उन्होंने इस बात की चर्चा कभी किसी से नहीं की। किशन छुट्टी आता तो घर को खुशियों से भर जाता। अपने स्नेहिल स्वभाव के कारण वह गाँव भर में लोकप्रिय था। स्कूल के जमाने से ही गाँव में होनेवाली रामलीला, नाटक इत्यादि में भाग लेना उसका प्रिय शौक था। वह जब भी छुट्टी पर आता, उसका काम सबसे पहले अपनी मण्डली को एकत्रित कर गाँव में कोई न कोई रंगारंग कार्यक्रम कराने का होता। बिन्दु को यह सब अच्छा नहीं लगता था।

"दो दिन के लिए तो आते हो, लेकिन जैसे घर आने के लिए नहीं। घर पर भी तो समय देना चाहिए। जब देखो घर से बाहर।"

"अरे ये सब तुम ही लोगों के लिए तो करता हूँ! शहर में तो मनोरंजन के कितने साधन हैं, लेकिन गाँव में तो कुछ नहीं। सिर्फ काम और काम।" बिन्दु की उलाहना सुन किशन उसे समझाने की कोशिश करता।

"तो हमें भी शहर क्यों नहीं ले चलते?" बिन्दु फिर वही रट पकड़ लेती।

"समय आने पर ले चलूँगा, जरूर चलेंगे हम।" किशन ने पत्नी को शान्त करना चाहा, लेकिन जब बिन्दु ने रोना-धोना शुरू कर दिया तो किशन ने उसे शहर लेकर चलने का आश्वासन दे ही डाला। पर वह यह भी जानता था, इतनी आसानी से यह सम्भव न होगा। माँ-बाप शहर जाने से रहे और उन्हें अकेले छोड़ने को उसका मन गवाही नहीं दे रहा था। दो बहनों का अकेला भाई। कितने लाड़-प्यार से पाला था उन्होंने! इसी ने उसे थोड़ा जिद्दी और लापरवाह भी बना दिया था। पढ़ाई से ज्यादा उसका मन खेल-कूद और नाटक-नौटंकी में लगता। दिमाग तेज था, सो एक के बाद एक वह तमाम कक्षाएँ पास करता गया।

गाँव का माहौल। माँ-बाप बेचारे अनपढ़। और कोई राह दिखाने वाला था नहीं। दसवीं पास करते ही किसी ने उसे फौज में भर्ती होने की सलाह दी और पहले ही प्रयास में वह सफल भी हो गया।

यहाँ फौज में आने के कुछ समय बाद भी अगर किशन पढ़ाई कर लेता तो उच्च पद पर आ सकता था। लेकिन बाद में उसे होश आ गया। उसे कमीशन प्राप्त करने की धुन सवार हो गयी।

विवाह के दो साल बाद बिन्दु ने सोनू को जन्म दिया तो घर खुशियों से भर गया। बिन्दु भी कुछ समय सोनू के लालन-पालन में डूब गयी और दूसरी बातें भूल सी गयी। नन्हें सोनू की देखभाल में उसे अपनी सास की भी मदद मिल जाती तो दादी को पोता गोद खिलाने का सुख मिल रहा था। लेकिन अब सोनू चार वर्ष का हो चुका था और बिन्दु ने अब उसके भविष्य का बहाना कर शहर जाने की जिद करनी फिर शुरू कर दी।

दिन-रात की झिकझिक से झल्लाकर किशन का भी मन होता कि बिन्दु से कह दे, जिस सरकारी स्कूल का बहाना कर वह शहर जाने की रट पकड़े हुए है, उसी सरकारी स्कूल से पढ़कर ही वह आज इस मुकाम तक पहुँचा है। लेकिन कह न पाता।

वह सोचता, "चलो, क्यों कलह बढ़ाएँ! पर अन्दर ही अन्दर वह बड़ी उलझन में था कि क्या करे। होने को तो अब वह भी सेना में उच्च पद पर था, लेकिन सीमा पर नियुक्ति होने के कारण परिवार वह अपने साथ नहीं रख सकता था। फैमिली क्वार्टर मिल तो जाता, लेकिन हमेशा गाँव में रही बिन्दु अकेले छोटे बच्चे को लेकर कैसे रहेगी, यह भी बड़ी समस्या थी।

इस बाबत माता-पिता का मन भी टटोल चुका था किशन। पर वही हुआ जिसका अन्देशा था। माँ-बाप ने एक स्वर से पुरखों की जमीन और मकान छोड़ने से साफ मना कर दिया था।

बिन्दु के पास तो रेडीमेड विकल्प तैयार था। "फैमिली क्वार्टर छोड़िए, भाई-भाभी अपने ही बगल में किराये का घर दिलवा देंगे। उनके सहारे रह लूँगी मैं वहाँ पर।"

"अभी तो स्कूल में दाखिले होंगे नहीं। अगले सत्र से पहले तुम्हें शहर छोड़ दूँगा।" किशन ने फिर कुछ महीने के लिए मोहलत ले ली। लेकिन वह जानता था कि इस बार जो कह दिया, वह करना ही पड़ेगा।

"हमारी फिक्र छोड़ बेटा, बच्चों के भविष्य के लिए कुछ तो त्याग करना ही पड़ेगा। जब तक हाथ-पैर चल रहे हैं, तब तक तो हम गाँव छोड़ नहीं सकते। आगे फिर देखी जाएगी।"

माता-पिता की तरफ से कोई आपत्ति नहीं थी, उनकी हरी झंडी ने किशन को निश्चिन्त कर दिया। अब अगली छुट्टी में उसे सोनू का अच्छे स्कूल में दाखिला करवाकर उन्हें शहर भेजना ही होगा।

दस

इधर अब पल्लवी और ध्रुव की मुलाकातें बढ़ने लगीं। कभी ध्रुव की नयी रचनाएँ, उसके सपने, तो कभी पल्लवी के भविष्य समेत और बातें दोनों में होती थीं। धीरे-धीरे यह सिलसिला बढ़ने लगा तो खुसर-फुसर भी बढ़ने लगी। एक दिन तो खुद मजाक में कमल ने ही कह दिया, "यार जिस लड़की से बात करने के लिए सारे कॉलेज के लड़के तरसते हैं, तूने तो अपने गीतों से उसे अपना मुरीद बना लिया।"

कमल के ये शब्द ध्रुव को जहर बुझे तीर-से लगे। अपना दोस्त और वह भी इतनी छोटी सोच रखता है! उसने तुरन्त प्रतिवाद किया, "सबकुछ जानते हुए भी कैसी बातें कर रहा है तू! जैसे तू मेरा दोस्त, वैसे ही वह भी है। और यह भी जान ले, वह आम लड़कियों जैसी नहीं, बहुत ही धीर-गम्भीर है, और मेरे मन को बहुत गहराई से समझने लगी है।"

ध्रुव में अचानक यह बदलाव देख कर कमल हैरान था। कमाल है, इस लड़की ने क्या जादू कर दिया! वह ठगा-सा ध्रुव का मुँह देखता रह गया। कमल यह भाँपने की कोशिश करने लगा कि ध्रुव जो बोल रहा है, उसमें कोई सच्चाई भी है या फिर उससे हकीकत छुपा रहा है वह।

ध्रुव मन-ही-मन समझ तो रहा था कि कमल का सन्देह गलत नहीं है, पर उसने झट सफाई पेश की, "तू तो जानता है मेरे जीवन का एक ही ध्येय है, उससे पहले मैं कुछ और सोच भी नहीं सकता।"

ध्रुव की यह बात बिल्कुल सही थी, यह कमल भी जानता था। माता-पिता और श्रवण के लिए वह कुछ भी कर सकता है और खुद ध्रुव भी यह कहते हुए भावुक हो उठा। खैर, बात आयी-गयी हो गयी। पर संवेदनशील ध्रुव कई दिन तक मन के इस बोझ से मुक्त नहीं हो पाया। उसे पल्लवी पर उठ रही अंगुली की चिन्ता ज्यादा थी। लेकिन वह यह भी सोचने लगा कि क्या सचमुच इस बीच उसके मन के किसी कोने में पल्लवी के लिए भी अपनेपन का अंकुर फूटने लगा है!

वह भीतर ही भीतर कबूलने लगा कि कमल सच कह रहा है। आखिर उसकी निगाहें भी तो कॉलेज जाकर पल्लवी को ही ढूँढ़ा करती हैं। उससे बातें करना, उसके सान्निध्य में रहना उसे अच्छा लगने लगा है।

इतने दिनों में पल्लवी के परिवार के बारे में भी काफी कुछ जान गया था ध्रुव। उन दोनों के परिवेश व आर्थिक असमानताओं को जानते हुए भी उससे यह गलती क्यों हो रही है। ध्रुव समझ नहीं पा रहा था, वह खुद को आगाह भी करने लगा था, "अच्छा हुआ कमल की बातों ने गहरी नींद से जगा दिया मुझे, नहीं तो अनर्थ हो जाता। माफ करना पल्लवी, एक पल को मैं अपने हालात, अपने मिशन को भूल गया था।"

आगे अब ऐसा न होने देने के संकल्प के साथ मन को दृढ़ करके ध्रुव किताब खोल पढ़ाई करने बैठ गया।

पर यह हालत सिर्फ ध्रुव की ही नहीं थी। उधर पल्लवी को भी अब ध्रुव से मिलकर बहुत अच्छा लगता। कॉलेज में उसकी उपस्थिति तपती धूप में शीतल छाँव के समान प्रतीत होती। उसकी सरलता, उसका भोलापन व मन की शुचिता, सभी कुछ मन को मोह लेती।

पल्लवी अब उससे अधिक से अधिक बात करना चाहती। उसके बारे में, उसके घर-परिवार के बारे में जानना चाहती, लेकिन बहुत कुरेदने पर भी ध्रुव एक-दो बातें कर चुप हो जाता।

पल्लवी में आये परिवर्तन से कामिनी अनभिज्ञ नहीं थी। वह समझ रही थी कि पल्लवी का रुझान ध्रुव की ओर बढ़ रहा है। वह अच्छा लड़का है, इतना तो अब कामिनी भी समझ चुकी थी, लेकिन दोनों के पारिवारिक परिवेश में जमीन-आसमान के फर्क का एहसास भी हो चला था उसे। और फिर पल्लवी के पिता के आचरण को भी भली प्रकार जानती थी वह।

कामिनी पल्लवी से तो कुछ नहीं कह पाती, लेकिन इस रिश्ते के भविष्य को लेकर मन-ही-मन चिन्तित हो जाती। पल्लवी का मन बहुत कोमल है। उसके मन को कोई ठेस न पहुँचे, कामिनी मन-ही-मन यह दुआ करती रहती थी भगवान से।

दो-तीन दिन ध्रुव जानबूझ कर पल्लवी के सामने नहीं पड़ा। सोचा, मुलाकात नहीं होगी तो धीरे-धीरे अपने आप दूरियाँ बढ़ती जाएँगी। मन विद्रोह करता, लेकिन ध्रुव संयम बरतने का हर सम्भव प्रयास कर रहा था।

तीन दिन हो चुके थे पल्लवी से मिले। शाम को बेमन-सा वह छात्रावास के नोटिस बोर्ड के सामने खड़ा था। किशन भैया के पत्र को देखकर उसके चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गयी। पर पत्र पढ़ते ही उसकी सारी खुशी जैसे काफूर हो गयी।

उन्होंने लिखा था, "अगले माह घर आऊँगा, सोनू और तेरी भाभी को शहर छोड़ना है। चाहता तो था कि सभी लोग साथ रहते, लेकिन माँ-पिता जी घर-गाँव छोड़ने को तैयार नहीं।"

उसकी आँखें भर आयीं। कितने दुःखी हैं किशन भैया! एक तरफ पत्नी की जिद तो दूसरी तरफ माता-पिता का दर्द! दो पाटों के बीच में पिस गये हैं वह।

वह जानता था सोनू की पढ़ाई का तो मात्र बहाना था भाभी का। उसने देखा था सास-ससुर के प्रति भाभी का व्यवहार। वह तो बस जैसे भी उनसे पीछा छुड़ाना ही चाहती थी।

"एक तो फौजी की जिन्दगी वैसे ही अत्यन्त दुरूह होती है। फिर जीवन-साथी का सहयोग न हो, तो परेशानियाँ और भी बढ़ती जाती हैं। इससे अच्छा तो शादी ही न करो।" ध्रुव मन-ही-मन बुदबुदाया। किशन भैया की हालत पर तरस आ रहा था उसे।

उधर, पल्लवी परेशान थी। पूरे तीन दिन हो गये थे ध्रुव से मुलाकात हुए। कॉलेज के हर कोने में उसे ढूँढने की कोशिश की, लेकिन वह कहीं नहीं दिखा। बस उसकी क्लास के बाहर खड़ी होने की हिम्मत नहीं जुटा पायी थी पल्लवी।

"कमल ही कहीं दिख जाता तो उसी को पूछ लेती। लेकिन वह भी गायब है।" उसे चिन्ता हुई कि सब ठीक तो है न!

कामिनी पल्लवी के मन की स्थिति समझ रही थी, लेकिन कुछ बोली नहीं।

"ये ध्रुव भी पता नहीं कहाँ चला गया!"

"अच्छा तो तू उसके लिए परेशान है!" कामिनी ने चुटकी ली।

"परेशान! भला परेशान क्यों होने लगी मैं?"

"ये तो तुझे ही पता होगा। नहीं पता, तो मैं बताऊँ?" "तू बतायेगी!" पल्लवी ने आश्चर्य से कामिनी की ओर देखा।

"ध्रुव से मुलाकात नहीं हो पा रही, इसलिए न!" कामिनी के स्वर में इस बार चंचलता नहीं, बल्कि गाम्भीर्य था। उसकी गम्भीरता पल्लवी ने भी महसूस की।

और फिर उसी गम्भीरता से उसने कामिनी ओर देखा। मानो आँखें पूछ रही हों, "तुझे कैसे पता?"

"सब पता लग जाता है पगली! तू बहुत प्यार करती है न उससे!"

"नहीं कामिनी, वह मेरा अच्छा दोस्त है, बस। और कुछ नहीं।"

"क्यों झूठ बोलती है तू? ये छटपटाहट, ये बेचैनी, सिर्फ दोस्ती के कारण नहीं हो सकती।"

क्या कामिनी की बात में दम है? वह क्या वाकई ध्रुव से प्यार करने लगी है! क्या वह इसीलिए छटपटाया करती है? कुछ पल वह इसी अन्तर्द्वन्द्व में फँसी रह गयी। फिर तुरन्त प्रतिवाद करती हुई बोली, "नहीं, ऐसा कुछ नहीं है।"

कामिनी जोर से हँस दी। मानो कह रही हो, तुम कुछ भी कहो, लेकिन हकीकत यही है।

उधर, पल्लवी की हालत अब घर में माँ से भी छुपी न रही। यूँ भी पति तो अक्सर काम में व्यस्त रहते। बेटा दूसरे शहर में डॉक्टरी की पढ़ाई कर रहा था। ऐसे में उनका पूरा ध्यान पल्लवी पर ही रहता।

पिछले दो-तीन दिन से उसके स्वभाव में बदलाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था माँ को। कॉलेज से आकर चुपचाप वह अपने कमरे में बन्द हो जाती। पूछने पर पढ़ाई का बहाना कर टाल जाती।

"ऐसी भी क्या पढ़ाई है! आखिर दिमाग की इतनी तेज रही है वह। इस तरह किताबी कीड़ा बनने की कभी जरूरत ही नहीं रही तो अब अचानक ऐसा क्या हो गया! कहीं कोई और बात तो नहीं?"

युवा होती बेटी की माँ होने की चिन्ता पहली बार महसूस कर रही थी वहा हालाँकि पल्लवी पर पूरा भरोसा था उसे, लेकिन फिर भी माँ का मन है, चिन्तित होना स्वाभाविक ही था।

सोने से पहले कई बार वह बेटी के कमरे में चुपचाप झाँक आती, लेकिन पल्लवी को हर समय किसी पत्रिका या किताब में ही डूबा हुआ पाती।

तीन दिन ध्रुव से मिले बिना बीत गये। चौथे दिन सुबह पल्लवी को अकेले ही कॉलेज जाना पड़ा। शाम से ही कामिनी बुखार से तप रही थी।

कॉलेज में पल्लवी अकेली थी। ध्रुव से भी मुलाकात नहीं हुई थी, इसलिए कामिनी के न होने का एहसास पहली बार बुरी तरह खल रहा था उसे।

लाख कोशिश पर भी उसका मन नहीं माना, तो अन्ततः ध्रुव की क्लास के बाहर रेलिंग का सहारा लेकर खड़ी हो गयी वह और फिर क्लास समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगी।

"ध्रुव! कहाँ हैं आप तीन दिन से? तबीयत तो ठीक है न!" ध्रुव के बाहर निकलते ही उसने सवालों की झड़ी लगा दी। बदहवास-सी वह बुरी तरह हॉफ भी रही थी।

पल्लवी को अचानक सामने देख ध्रुव की भी वही हालत थी। वह बत सा बना खड़ा रह गया। क्या जवाब दे, कहाँ था वह तीन दिन से! क्यों बच रहा था उसकी छाया से भी?

"आप ठीक तो हैं?" पल्लवी ने अपना प्रश्न फिर दोहराया।

"मैं बिल्कुल ठीक हूँ। बस थोड़ी सी व्यस्तता थी।" जवाब दिया ध्रुव ने, लेकिन उसका मन अन्तर्द्वन्द्व में ही फंसा था।

क्या यह सब ठीक कर रहा है वह पल्लवी के साथ? क्यों कतरा रहा है वह उससे? सिर्फ इसलिए कि कमल ने उससे मजाक कर दिया? क्या इतनी सी बात से वह अपना एक सच्चा मित्र खो दे? और फिर क्या यह सिर्फ मित्रता ही है? क्या इतने भर के लिए पल्लवी तीन दिन छटपटाती रही? और वह खुद परेशान-सा रहा? तमाम सवालों से जूझते हुए ध्रुव ने एक बार फिर पल्लवी पर नजर डाली तो वह बुरी तरह बेचैन दिख रही थी।

"क्या व्यस्तता थी ऐसी? कुछ नया लिखा है क्या आजकल? मुझे भी दिखाओ।"

"नहीं, लिखा तो कुछ नहीं। बस यूँ ही...।" वह आगे कुछ नहीं कह पाया।

और कॉलेज के गलियारे में दोनों यूँ ही चुप्पी साधे कुछ देर चलते रहे। दोनों ओर से आने-जाने वाले छात्र-छात्राओं का रेला था। कुछ जोर-जोर से बतियाये जा रहे थे, तो कहीं ठहाकों की गूँज थी। सब अपने-अपने में मस्त। बस यहीं चुप्पी छाई हुई थी।

"अरे आज आप अकेली कैसे? वो आपकी बातूनी सहेली... क्या नाम है उसका... खैर, नाम जो भी हो, लेकिन ये दो हंसों का जोड़ा आज बिछुड़ कैसे गया?" आते ही कमल ने सन्नाटा तोड़ा। ध्रुव ने बड़ी राहत की सांस ली। चलो, इसके बहाने बात तो होगी कुछ। वरना उसकी तो समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहे पल्लवी से।

"उसे बुखार है।"

"ओ हो! तभी मैं कहूँ कॉलेज आज सुनसान क्यों है!"

"चुप कर कमल। बीमार है वह। कम से कम ऐसे में तो मजाक मत कर।" ध्रुव ने नाराजगी प्रकट की और फिर पल्लवी से कामिनी की कुशल-क्षेम पूछ ली।

ध्रुव जानता था कि पल्लवी का कामिनी के अलावा कॉलेज में और किसी से मिलना-जुलना है नहीं। इस कारण वह और भी अकेलापन महसूस कर रही थी। उसे लगा, इसीलिए शायद वह उसकी क्लास के बाहर खड़ी थी।

"कैंटीन चलें?" ध्रुव के मुँह से निकल गया।

कमल ने बड़ी हैरानी से ध्रुव की ओर देखा। "तु! और कैंटीन! कहीं जुबान तो नहीं फिसल गयी! लाइब्रेरी की जगह मुँह से कैंटीन निकल गया हो।"

ध्रुव झेंप गया, फिर तीनों कैंटीन की तरफ चल दिए।

पल्लवी अब खुश थी। ध्रुव से मुलाकात हो गयी। उसे तो पता भी नहीं था कि ध्रुव के मन में क्या चल रहा है! पूरी बातचीत के दौरान ध्रुव भी सामान्य बने रहने का प्रयास करता रहा।

कॉलेज समाप्त होते ही पल्लवी कामिनी का हालचाल पूछने उसके घर जा पहुँची।

"ध्रुव से मुलाकाल हो गयी न?" कामिनी ने उसके चेहरे पर नजरें गड़ाते हुए पूछा।

"तुझे कैसे पता?"

"चेहरा देख अपना आईने में। साफ बता रहा है वह।"

पल्लवी का चेहरा सुर्ख हो आया। कॉलेज कैंटीन में कमल की कही बात याद आ गयी उसे।

"मैं आपका शत-शत धन्यवाद करना चाहता हूँ, पल्लवी जी। मेरे इस दोस्त को बोलना सिखा दिया आपने।"

अचानक उसके चेहरे पर मुस्कान तैर गयी।

"कहाँ खो गयी मेम साहब? वैसे आप मेरी तबियत के बारे में पूछताछ करने आयी थीं शायद?" कामिनी का बुखार अब सुबह से कुछ कम था। पर यहाँ भी चुटकी लेने से नहीं चूकी वह। पल्लवी को अपनी भूल का एहसास हो आया।

"तूने आते ही बक-बक शुरू कर दी, तो क्या पूछती मैं?"

तभी कामिनी की माँ चाय ले आयी तो पल्लवी ने कुछ खाने की भी मांग कर दी, "आण्टी! बहुत भूख लगी है।"

"देखा माँ, मेरे बीमार होने से कितनी खुश है यह! अब अकेले-अकेले खाएगी मुझे चिढ़ाकर।"

माँ ने प्यार से पल्लवी के सिर पर हाथ फेरा और मुस्कराकर रसोई की ओर चल दी।

कामिनी के पिता किसी सरकारी दफ्तर में सामान्य बाबू थे। यूँ तो मियाँ-बीवी और दो बच्चे, छोटा-सा ही परिवार था उनका। लेकिन इस महँगाई के जमाने में उसे पालना भी मुश्किल लगता। इसलिए ऑफिस से लौटते हुए वह किसी बनिए की बही भी उठा लाते और देर रात तक उसी में जूझते रहते।

मामूली आर्थिक स्थिति होते हुए भी पल्लवी को इस परिवार का वातावरण बहुत स्नेहिल लगता। छोटा-सा परिवार और परिवार के सभी सदस्य एक-दूसरे की खुशी के लिए तन-मन से समर्पित। रहन-सहन, खान-पान में कोई दिखावा नहीं। यही सब बातें पल्लवी के मन को छू गयी थीं और ऊपर से कामिनी का स्वभाव तो उसे बेहद पसन्द था।

चाय-नाश्ते के बाद कामिनी से ढेर सारी बातें कर पल्लवी आज बड़ी खश थी। और दिन तो वह चुपचाप कब घर में घुस आयी पता भी न लगता, पर आज उसे गुनगुनाते हुए अन्दर घुसते देख माँ अपने को रोक नहीं पायी, "क्या बात, आज बहुत खुश लग रही है बेटा।"

"वो कामिनी को बुखार था और...."

"उसे बुखार था और तू खुश है!" वह आगे बोलती कि माँ ने बीच में ही टोक दिया, "क्या हो गया है इस लड़की को! कल तक मुँह से आवाज नहीं निकल रही थी और आज क्या बोले जा रही है, ये भी नहीं सोच रही।"

"अरे नहीं माँ। दरअसल सीधे उसके घर से आ रही हूँ और आप तो जानती हैं मुझे वहाँ बहुत अच्छा लगता है।"

सब जानती थी पार्वती। कामिनी और उसके परिवार के साथ-साथ उनकी दोस्ती को भी। और फिर कितनी बार पति रमाकान्त इस बात के लिए बेटी को समझाने के लिए कह चुके थे। कई बार तो खुद उसे भी झिड़क चुके थे।

"दोस्ती बराबर वालों में ही ठीक होती है। स्कूल तक तो कोई बात नहीं, लेकिन ये घर आने-जाने वाली बात मुझे समझ में नहीं आती। समझाओ पल्लवी को।"

पर क्या समझाती पार्वती उसे! यही कि वह एक अमीर बाप की बेटी है और उसके लिए गरीबों से दोस्ती तो दूर, उनकी तरफ झाँकना भी पाप है! क्या बच्चों में ऐसी मानसिकता के बीज बोए जाने चाहिए? वह बहुत सुलझी और विराट सोचवाली महिला थी। उसका मन नहीं माना कि इसके लिए वह पल्लवी को समझाए। हाँ, तबसे उसने रमाकान्त के सामने कामिनी का जिक्र करना ही बन्द कर दिया। न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी।

आज बेटी को खुश देख उसे बड़ी सुखद अनुभूति हुई। बच्चे ऐसे ही खिलखिलाते रहें, माँ को और चाहिए भी क्या? पल्लवी अपने कमरे में चली गयी, तो पार्वती रात के खाने की तैयारी में जुट गयी।

ग्यारह

समय जैसे पंख लगा कर उड़ रहा था। ध्रुव अपने संकल्प के अनुसार पल्लवी से दूरियाँ तो नहीं बढ़ा पाया, लेकिन कोशिश करता कि उससे अकेले में मुलाकात न हो।

चारों मित्रों का अच्छा ग्रुप बन गया था। इस ग्रुप में जहाँ कमल और कामिनी अपनी बातों और जिन्दादिली से माहौल खुशनुमा बनाए रखते, वहीं ध्रुव और पल्लवी की गम्भीरता और प्रखरता संस्कारिक एवं बौद्धिक खुराक का काम करती।

फरवरी का आधा महीना बीत चुका था। परीक्षाएँ सिर पर थीं। सभी अपनी-अपनी पढ़ाई में जुटे थे। पिछले वर्ष का टॉपर होने के नाते ध्रुव पर अपनी पोजिशन बनाये रखने का दबाव था तो पल्लवी पर कॉलेज में अपने आप को साबित करने का। कामिनी और कमल भी अपनी पढ़ाई में लगे थे, लेकिन कमल चंचल होने के कारण ज्यादा देर टिक कर नहीं बैठ पाता। वह तो ध्रुव था, जो बार-बार उसे टोकता रहता, वरना कमल की हो चुकी थी पढ़ाई।।

ध्रुव बहुत धीर-गम्भीर लड़का था। वह जरा भी समय जाया नहीं करता। एक पल्लवी ही थी, जिससे वह इतनी बातें कर लेता था। पर इस पर भी, उसे डर लगा रहता कि कहीं पल्लवी से उसकी मित्रता परीक्षा परिणाम पर कोई विपरीत असर न डाल दे। इसलिए वह सबकुछ छोड़ सिर्फ पढ़ाई पर ही ध्यान दे रहा था।

पल्लवी भी उसी की तरह पढ़ाकू थी, लेकिन इधर उसका मन ध्रुव को लेकर थोड़ा विचलित रहने लगा। दो-एक दिन भी मुलाकात न हो तो लगता जैसे महीने हो गये। आज वह फिर बेचैन थी। कॉलेज न जाने के कारण कुछ दिन से उसकी मुलाकात ध्रुव से नहीं हो पा रही थी। मन बहलाने को उसने ध्रुव की कुछ कविताएँ निकाल ली। ...वह उन्हीं को पढ़ने लगती। उसे लगता, जैसे ध्रुव पास ही है। अन्दर से गहरा लगाव होता जा रहा था उसे ध्रुव से।

मन-ही-मन वह मानने लगी थी कामिनी ठीक ही कहती है, उसे ध्रुव से प्यार हो गया है। लेकिन ध्रुव क्या सोचता होगा उसके बारे में क्या उसके मन में भी...? नहीं-नहीं! ऐसा नहीं होगा शायद। वह तो अपने लक्ष्य के सिवाय और कुछ भी नहीं सोचता। बस यही अन्तर्द्वन्द्व चलता रहता उसके भीतर।

परीक्षाएँ समाप्त हुईं तो सबने चैन की साँस ली। कमल और ध्रुव को अब अपने-अपने घर जाना था। डेढ़-दो महीने की छुट्टियाँ थीं। पल्लवी का मन डूबा जा रहा था। पिछली बार तीन दिन के लिए ध्रुव गाँव गया था तो क्या हाल हो गया था उसका। पर अब इतना लम्बा समय भला कैसे कटेगा! अब तो एक दिन काटना दूभर हो जाता है उसका ध्रुव से मिले बगैर।

घर जाने से एक दिन पहले उसने तीनों को अपने घर खाने पर बुला लिया। पिता टूर पर थे, इसलिए निश्चिन्त होकर बैठा जा सकता था। और इसी बहाने ध्रुव के साथ बैठना भी हो जाता।

"यही पता तो दिया है। ये ही घर होना चाहिए पल्लवी का।" कमल ने एक बहुत बड़े गेट के सामने खड़े होकर कहा तो ध्रुव सहम गया- इतना बड़ा घर! कितने लोग रहते होंगे इसमें?

"नहीं नहीं! यह नहीं होगा। हम गलत पहुँच गये इधर शायद।" ध्रुव कमल को खींचकर दूसरी ओर ले जाने लगा।

"अरे रुक, यही है।" कहते-कहते कमल ने घंटी बजा दी।

पाँच मिनट बाद गेट खुला।।

"पल्लवी।" कमल के मुँह से सिर्फ इतना ही निकला।

"आइए-आइए। बिटिया आपकी ही प्रतीक्षा कर रही है।"

"पल्लवी के पिता होंगे शायद।" ध्रुव ने मन-ही-मन सोचा। इधर उधर देखते हुए गेट के अन्दर प्रविष्ट हुआ वह। अन्दर का दृश्य भव्य था।

करीने से कटी हुई घास का बड़ा लॉन। चारों ओर छोटी-छोटी झाड़ीनुमा चाहारदीवारी, जिसे काट-छाँटकर विभिन्न आकार दिए गये थे। सैकड़ों गमले, जिनमें विभिन्न प्रजाति के फूल-पौधे अपनी अलग ही छटा बिखेर रहे थे।

कलात्मक पोर्च और पल्लवी के घर की भव्यता को और बढ़ाती हुई नीचे एक लम्बी-सी गाड़ी खड़ी थी। दूधिया रोशनी में कार और भी चमचमा रही थी। अन्दर का दृश्य और भी सुन्दर था। नीचे बड़ा-सा हॉल और उसमें सजा आलीशान फर्नीचर। हॉल से लकड़ी की रेलिंग लगी सीढ़ियाँ थीं, जो नीचे के हिस्से को ऊपर की मंजिल से जोड़ रही थीं।

ध्रुव यहाँ बहुत ही असहज महसूस कर रहा था। पल्लवी धनी परिवार से है, यह तो उसे पता था, लेकिन इतनी धनी है, यह उसकी कल्पना से भी परे था। चाय सामने आई तो उसे पता लगा कि जिन्हें वह पल्लवी के पिता समझ रहा था, वह इस घर का पुराना नौकर था।

थोड़ी ही देर में कामिनी भी आ गयी, तो माहौल खुशनुमा हो गया। ध्रुव ज्यादातर चुपचाप ही रहा। इस भव्यता में वह कहीं खो-सा गया। पल्लवी की माँ उसे बहुत स्नेही महिला लगीं। आग्रह कर वह उन्हें खाना खिलाने लगी तो ध्रुव को अपनी माँ याद आ गयी। आज रात की ही तो बात है, कल वह भी अपनी माँ के पास पहुँच जाएगा। यह सोचकर उसका मन उत्साह से भर गया।

देर रात पल्लवी के ड्राइवर ने उन्हें अपने-अपने गन्तव्य तक छोड़ दिया। हॉस्टल पहुँचने पर कमल पल्लवी के घर की तारीफ में जुट गया, लेकिन ध्रुव शान्त था। इतने अच्छे पैसेवाले घर की लड़की लेकिन व्यवहार, हाव-भाव में कहीं कोई उच्छृखलता नहीं, कोई दिखावटी बड़प्पन नहीं। पल्लवी के प्रति उसका मन और भी अधिक श्रद्धा से भर गया। ध्रुव जैसे साधारण लड़के से उसकी इतनी अच्छी मित्रता भी उसकी सरलता व महानता की परिचायक थी।

अगले दिन सुबह की बस से ध्रुव गाँव के लिए रवाना हुआ। गिनती भर की दो ही बसें जाती थीं उसके गाँव के लिए यहाँ से। एक सुबह सात बजे तो दूसरी दो बजे। कुछ वर्ष पूर्व तक तो यह हाल था कि बस मिलने तक की गारंटी नहीं रहती थी और प्रभु कृपा से अगर मिल भी गयी तो जितने यात्री बस के भीतर, उतने ही छत पर भी होते। लेकिन अब जीप इत्यादि चलने के कारण बसों पर यात्रियों का बोझ अपेक्षाकृत कम हो गया है, पर खतरा भी बढ़ गया है। नौसिखिया ड्राइवरों के चलाने के कारण दुर्घटनाएँ लगातार बढ़ रही थीं।

ध्रुव गाँव पहुँचा तो ग्यारह बज रहे थे, पिता खेतों में थे, माँ रसोई में। कच्ची लकड़ियों का किरकिरा आँख फोडू धुआँ सारे घर में फैला हुआ था। माँ को पता भी नहीं चला कि ध्रुव कब रसोई में आकर उसके पास बैठ गया। फूँक मार-मार कर उसका हाल बेहाल था। नाक और आँख दोनों से पानी बह रहा था।

"तू हट माँ! मैं जलाकर देखता हूँ चूल्हा।" माँ ने ध्रुव की आवाज सुनी तो चौंक गयी।

धुएँ से बुरी तरह किरकिराती आँखों को मलते हुए बोली, "कब आया तू?" डबडबाई आँखों में खुशी के आँसू भी छलक आए।

"माँ! ऐसे तो तुम अपनी आँखें खराब कर लोगी।" उसकी हालत देख ध्रुव व्यग्र हो उठा। मन-ही-मन सोचने लगा कि जब तक वह माँ को आराम देने लायक होगा, तब तक वह जिन्दा भी रहेगी कि नहीं।

"बेटा सूखी लकड़ियाँ मिलती कहाँ हैं?"

ध्रुव जानता था कि सूखी लकड़ियाँ मिलें भी तो उन्हें लाएगा कौन। दिन-भर मेहनत-मजदूरी करनेवाले पिता को इतनी फुर्सत थी नहीं और माँ जंगल से जैसी भी लकड़ी मिलती, उठा लाती।

ध्रुव जितने दिन रहा माता-पिता का हाथ बँटाता रहा। माँ नहीं चाहती थी कि कुछ दिन के लिए घर आया बेटा उनके साथ खपे, लेकिन उसकी जिद के आगे उनकी एक न चलती।

माँ अपना सारा लाड़-प्यार उसकी पसन्द का खाना बनाने में उँड़ेल देती, तो श्रवण अपने सुरीले गीत सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता।

ध्रुव के आते ही न जाने क्यों उसके जीवन में भी थिरकन आ जाती। पारिवारिक बातचीत में वह भी हिस्सेदार बन जाता, वरना और दिन तो वह कमरे में बन्द गाने-बजाने और अपने में ही खोया रहता। अब तक दोनों हाथों के सहारे चलने का अभ्यास हो गया था उसे। लेकिन सीढ़ियाँ उतरना अब भी उसके वश से बाहर था। सो घर में बन्द रहना ही उसकी नियति बन गयी थी।

ध्रुव उसके मन की पीड़ा बखूबी समझता था। जब भी वह गाँव में आस-पड़ोस में जाता, श्रवण को भी साथ ले चलता। रास्ते भर श्रवण उसे खूब गाने सुनाता और ध्रुव उसका खूब हौसला बढ़ाता।

यही नहीं, घर में ध्रुव जब भी कुछ लिखने-पढ़ने बैठता तो श्रवण भी वहीं आ जाता। कई दिन से वह एक गीत रचने में जुटा था। एक दिन ध्रुव ने श्रवण को उसके उसी गीत की दो चार पंक्तियाँ गुनगुनाते सुना तो वह हैरान रह गया। क्या गजब का हुनर है इसमें! सोचने लगा, यदि इसे सही ढंग से संगीत की शिक्षा मिली होती तो इसकी यह प्रतिभा और निखर आती। और यह विकलांगता भी फिर अभिशाप नहीं रहती। कब दे पाऊँगा मैं उसे यह नयी जिन्दगी? वह सोच में डूब जाता।

गर्मियों का समय। लम्बे दिन। खेतों में अपेक्षाकृत काम भी कम और स्कूल कॉलेज की छुट्टियाँ। कुल मिलाकर शाम को गाँव में उत्सवी माहौल रहता। बेटियाँ-बहुएँ घर-बाहर का काम जल्दी से निबटाकर पंचायती चौक में एकत्र हो, पारम्परिक लोकगीत 'थड्या-चौंफळा' से समाँ बाँध देतीं।

यह सब देख ध्रुव का मन भी मचल उठता। उसने सोचा, क्यों न यहाँ गाँव में दो-तीन दिन का कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम ही आयोजित कर लिया जाए। वह तैयारी में जुट गया। आसपास के एक-दो गाँवों के युवाओं से सम्पर्क कर इसे मूर्त रूप देने की तैयारी होने लगी।

पंचायती चौक पर ही रामलीला समिति के सहयोग से स्टेज आदि का निर्माण कर रामी बौराणी, तीलू रौतेली, वीर हकीकत राय जैसी कथाओं का मंचन किया गया। किताबों में ही डूबे रहने वाले ध्रुव को गाँव वालों ने इन गतिविधि यों में भी बढ़-चढ़कर भाग लेते देखा तो वे सब भी सहयोग को आगे आ गये। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात थी श्रवण का मुग्ध कर देने वाला गायन। नाटकों में गाये जाने वाले गीतों को श्रवण ने इतनी तन्मयता और मधुरता से गाया कि उस पर इनामों की झड़ी लग गयी।

कार्यक्रम के समापन पर जब श्रवण के हाथों में उसकी पुरस्कार राशि थमाई गयी तो उसकी आँखें खुशी से छलछला आयीं।

घर पहुँचकर ध्रुव के गले लग श्रवण फूट-फूटकर रो पड़ा। अभी तक अपने को सिर्फ एक अपंग और बोझ समझने वाले श्रवण को पहली बार अपनी इस प्रतिभा का एहसास हुआ।

"ध्रुव, तेरा पत्र आया है।" पोस्टमैन ने एक लिफाफा उसकी ओर बढ़ाया तो वह चौंक गया। अनजानी लिखावट, कहाँ से आया होगा यह पत्र! किसने भेजा होगा? उलट-पुलट कर मुहर देखने की कोशिश की तो वह भी साफ नहीं।

उत्सुकता में लिफाफा फाड़ा तो अन्दर एक अन्तर्देशीय पत्र था। देखा- अरे! ये तो किशन भैया का है, लेकिन यहाँ किसने भेजा! साथ में नत्थी टुकड़ा उसने एक साँस में पढ़ डाला।

"कॉलेज गयी थी। वहीं ऑफिस में तुम्हारा यह पत्र देखा। वहीं से गाँव का पता लिया। किशन भैया का पत्र है, इसलिए सोचा जितनी जल्दी तुम्हें मिल जाए, उतना अच्छा।... और क्या कर रहे हो आजकल? रिजल्ट भी आने वाला होगा। पिछले वर्ष की तरह इस बार भी तुम्हीं टॉपर होगे। मुझे पूरा भरोसा है। तुम्हारी पल्लवी।"

वहीं जड़वत् हो गया ध्रुव। दिल बुरी तरह धड़कने लगा। आत्मीय स्मरण में एक पल के लिए उसने आँखें मूँद लीं। मानो देवी मैया को बहुत-बहुत धन्यवाद कह रहा हो।

पर अगले ही पल पल्लवी की सम्पन्नता का ख्याल उसे फिर बहा ले गया।

"क्या वह सचमुच मुझे इतना ही प्यार करती है या फिर यह सब वह मेरी गरीबी पर तरस खाकर कर रही है!" अपने को अन्तर्द्वन्द्व में फंसा देख ध्रुव फिर खुद ही अपने पर झुंझला उठा, "क्यों भटक रहा हूँ मैं इधर-उधर! मुझे तो सबसे पहले अपना लक्ष्य हासिल करना है।" फिर वह अपना दिल मजबूत करने लगा।

किशन भैया राजस्थान सीमा पर तैनात थे आजकल। भाभी और सोनू को शहर भेज चुके थे। सोनू का स्कूल बन्द था। भैया के लाख कहने पर भी भाभी छुट्टियों में भी कुछ समय के लिए घर जाने को तैयार नहीं थी। इस बात से किशन भैया बड़े व्यथित थे। उनकी व्यथा उनके पत्र से भी साफ झलक रही थी।

पर ध्रुव के लिए उनका यह परम स्नेह ही था कि इस प्रतिकूल स्थिति में भी वह ध्रुव को परीक्षा की तैयारी में जुट जाने की सलाह और सफलता के कुछ मूल मन्त्र भी लिख भेजना नहीं भूले।

एक ओर किशन भैया के पत्र आने की खुशी, तो दूसरी ओर उनकी व्यथा-कथा से मन खिन्न। ध्रुव सोच में पड़ गया। किशन भैया कितने भले और अच्छे इन्सान हैं! औरों का भी वह कितना ख्याल रखते हैं। लेकिन भाभी न जाने क्यों इतनी आत्मकेंद्रित हैं! सिर्फ अपने से ही मतलब। कभी किसी के सुख-दुःख से कोई लेना-देना नहीं। अरे कुछ दिन के लिए सोनू को लेकर गाँव आ जाती तो किशन भैया के माता-पिता कितने खुश होते!

फिर ध्रुव ने एक लम्बी साँस ली। पता नहीं उसका अपना भविष्य क्या होगा!

"किसकी चिट्ठी है?" माँ ने उत्सुकतावश पूछा।

"किशन भैया की।" पल्लवी की बात पूरी तरह छुपा गया वह।

"क्या लिखा है?"

"खूब याद किया है सबको। और मेरी आगे की तैयारी के लिए चिन्तित हैं।"

"हाँ बेटा, कितना भला इनसान है वह। तेरा कितना ख्याल रखता है। भगवान उसे सुखी रखे।" फिर उसके परीक्षाफल का जिक्र छेड़ दिया माँ ने।

"बेटा, रिजल्ट भी अब तेरा आने वाला होगा।"

ध्रुव को भी चिन्ता होने लगी।

परीक्षाफल घोषित हो गया तो यहाँ तो कई दिन तक पता भी नहीं चलेगा। पिछली बार भी एक सप्ताह बाद ही उसे अपना परीक्षाफल पता लग पाया था।

शहर से शाम तक तो अखबार ही पहुँचता। वह भी डॉलूडांडा बस अड्डे तक। गाँव में कभी-कभार कोई वहाँ से मँगा भी लेता तो दो-तीन दिन पुराना अखबार मिल पाता पढ़ने को।

इस बार वह सम्भावित तिथि से कुछ दिन पहले ही बस अड्डे में बोल आयेगा किसी को। गाँव से लोग तो जाते ही रहते हैं। सन्देश मिल जाएगा। उसके कुछ समय बाद ही नये सत्र में प्रवेश प्रक्रिया आरम्भ हो जाएगी।

ध्रुव ने सोचा तब तक क्यों न माता-पिता के पास रह कर उनका हाथ ही बटाऊँ! इस बार बरसात आरम्भ होने से पहले ही उसने लकड़ियाँ सुखाकर रखवा दी, ताकि माँ को परेशानी न हो। माँ मना करते-करते थक गयी, लेकिन ध्रुव ने एक न सुनी।

"माँ शहर में पढ़ने ही तो गया है। पर हूँ तो गाँव का ही ना मेरी आदतें खराब मत करो।" वह उल्टा माँ को समझाने लगता।

कुछ दिन बाद तो चला ही जाएगा वह। इसलिए जिसमें उसकी सन्तुष्टि हो, वो करने दो उसे। यही सोचकर माता-पिता चुप्पी साध लेते और जी भरकर दुआएँ देते।

बारह

उधर ध्रुव के गाँव चले आने के बाद पल्लवी को एक अजीब-सी बेचैनी और सूनेपन ने घेर लिया।

डेढ़-दो महीने का लम्बा उबाऊ समय। वह क्या करे! इस बार तो भैया भी छुट्टियों में घर नहीं आया। वह अस्पताल में प्रशिक्षण ले रहा था बैचलर डिग्री के बाद। रहा नहीं गया तो उसने मन बहलाने के लिए पेंटिंग की कक्षा में प्रवेश ले लिया।

अजीब है यह इंसानी मन भी। न जाने क्यों किसी के लिए इतना मचलने लगता है! क्यों हो जाता है इतना लगाव कि पल भर का विछोह भी फिर बर्दाश्त नहीं होता! कल तक बिल्कुल ही अनजान यह रिश्ता अचानक ही क्यों जन्म-जन्मान्तरों का रिश्ता लगने लगता है! -इन्हीं सवालों में फिर उलझ गयी पल्लवी।

उधर रमाकान्त, जिन्होंने कभी गहराई से सोचना-विचारना सीखा ही नहीं, पैसा, शोहरत और रुतबे को ही सबकुछ मान बैठे थे। पर बेटी पल्लवी ने उनकी यह धारणा ही ध्वस्त कर दी। वह झल्ला उठते, "आखिर क्या कमी है इस घर। में! और फिर बच्चों को चाहिए भी क्या इस उम्र में? पर यह है कि इसे इन चीजों से कुछ लेना-देना ही नहीं। पता नहीं यह किस दुनिया में जी रही है।"

इधर कई दिनों से ध्रुव का जवाब नहीं आया तो उसे लगा, कहीं पत्र लिखकर उसने गलती तो नहीं कर दी। पता नहीं ध्रुव क्या सोच रहा होगा उसके बारे में। उसका पुरजोर प्रयास रहता, कहीं कोई बात आहत न कर दे उसे। इसलिए बड़ी सतर्क रहती थी वह।

ध्रुव की याद आती, तो पल्लवी उसकी कविताएँ पढ़ने लगती। और कभी-कभी तो अनायास ही ध्रुव की कविताओं में अपने-आप को भी ढूँढ़ने की कोशिश कर बैठती...।

आते-जाते हैं लोग हजारों,

कुछ दिल में बस जाते हैं।

लाख भुलाने पर भी ये तो,

याद हमेशा ही आते हैं।

लघु जीवन के लम्बे पथ में,

कुछ राही ऐसे मिल जाते हैं।

जिनको पथ से मंजिल तक,

हम साथ-साथ ही पाते हैं।

जब भी पल्लवी अकेली होती, ध्रुव की ऐसी ही प्रेरक कविताओं में खो जाती। कभी-कभी उसे लगता काश! वह भी अपने भावों को इसी तरह से शब्द दे पाती...!

इस बीच अब रिजल्ट भी आने वाला था। सुबह होते ही वह अखबार के इन्तजार में बैठ जाती। एक दिन वह घड़ी भी आ गयी। परीक्षा परिणाम देख वह भागी-भागी कामिनी को लेकर कॉलेज जा पहुँची। ध्रुव इस बार भी टॉपर रहा। अब तक हमेशा पहले नम्बर पर रही पल्लवी इस बार दूसरे स्थान पर रही, सिर्फ दो अंकों से बाजी मार कर ले गया था ध्रुव।

"इसने तो तुझे भी पीछे छोड़ दिया।"

हतप्रभ कामिनी ने हैरानी से पल्लवी की नजरों में नजरें डालीं। पल्लवी हल्के से मुस्कुरा दी। मानो कह रही हो, इस हार में भी बड़ी खुशी है।

"यार तू तो हँस रही है। क्या तुझे जरा भी अफसोस नहीं?" इस बार और ज्यादा हैरान थी कामिनी।

उसे याद था स्कूल के समय से ही पल्लवी अपने परीक्षा परिणाम को लेकर कितनी सजग रहती थी। प्रतियोगिता की भावना कूट-कूट कर भरी थी उसमें। किसी भी विषय में कम नम्बर आने पर किसी और को दोष देने की बजाय वह अपनी कमियाँ तलाशने लगती और फिर आगे के लिए जी-जान से जुट जाती।

पर आज खुश थी पल्लवी। पहली बार अपनी पराजय पर इतनी खुश! सोचने लगी, काश! ध्रुव इस वक्त साथ होता तो कितना खुश होता! वह आज प्रसन्न थी कि चलो, ध्रुव की मेहनत एक बार फिर रंग लाई।

शाम को पल्लवी घर लौटी, तो पिता जैसे उसके इन्तजार में ही बैठे थे।

"कौन सी पोजिशन रही?"

वह आश्वस्त थे मेरिट में तो आना ही है उसे।

"दूसरी।"

सुनते ही चौंके वह।

"कौन है ये ऐसा मेधावी, जो इस बार तुम्हें पीछे छोड़ गया!"

पल्लवी भी जैसे बेताब थी बताने को, "पापा, एक लड़का है, ध्रुव।"

और फिर उल्लास से वह उसकी खूबियाँ गिनाने लगी।

रमाकान्त चकित थे कि जो लड़की कभी किसी को अपने से आगे बर्दाश्त नहीं करती थी, वह आज इस लड़के के आगे निकलने पर खुश क्यों है!

उन्होंने तुरन्त ही उससे मिलने की इच्छा जाहिर कर दी, "मैं भी तो देखू कौन है ऐसा होनहार लड़का।"

अब इस सबके पीछे उनकी मंशा क्या थी, यह तो वही जाने पर वह शायद बेटी की गहरी रुचि उस लड़के में भाँप कर, उसे देखना-परखना चाहते थे।

उधर, परीक्षाफल घोषित होने के दो दिन बाद अपना रोल नम्बर अखबार में देख ध्रुव शहर लौटने की तैयारी में लग गया। माता-पिता प्रसन्न मन से सबको बता रहे थे कि उनका बेटा ध्रुव पास हो गया। पर ध्रुव मन-ही-मन, अपने अंकों को लेकर चिन्तित था। पता नहीं कैसे नम्बर आए होंगे इस बार!

हफ्ते भर बाद ही ध्रुव शहर पहुँच पाया। छात्रावास में सामान रखने के बाद वह सीधे कॉलेज की ओर चल दिया। कमल अभी तक भी लौटा नहीं था।

"ध्रुव!" पल्लवी ने आवाज दी। वह ठिठक गया।

वह कुछ बोलता, इससे पहले ही पल्लवी झट बोल उठी, "बधाई। कॉलेज टॉप करने के लिए।" उसके मन की खुशी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी। ध्रुव भी पल्लवी के मुँह से ये खबर सुनकर बड़ा खुश हुआ। उसके मुँह से बोल नहीं फूटे।

पल्लवी कुछ देर एकटक उसे निहारती रही, फिर बोली-

"मैं बहुत खुश हूँ तुम्हारे लिए ध्रुव।" उसकी आवाज भर्रा गयी। वह उन्हें छुपाने की कोशिश करती, इससे पहले ही आँसू पल्लवी के गालों पर छलक आए।

हैरान ध्रुव नतमस्तक हो गया- मेरे टॉप करने पर इतनी खुशी! इतना भावुक तो कोई अपना ही हो सकता है। मन हुआ, झट आगे बढ़कर उसके आँसू पोंछ दे, पर हिम्मत न हुई। वह भी भावुक हो उठा। बस इतना ही कह पाया, "पल्लवी...।"

ध्रुव की कँपकँपाती आवाज पल्लवी के कानों में पड़ी तो हड़बड़ाकर उसने अपने आँसू पोंछे और तेजी से चल दी।

ध्रुव तो वहीं बुत बना खड़ा रह गया। आज पहली बार उसने पल्लवी के मन में उसके लिए गहराई से घर कर गये प्रेम को बड़े करीब से महसूस किया। अचानक उसका मन हुआ कि पल्लवी को रोक ले, उसे अपने से दूर न जाने दे। उसके मन की बात सुने। उससे अपने मन की बात कहे। लेकिन जब तक वह पीछे मुड़कर देखता, पल्लवी आँखों से ओझल हो चुकी थी। गुमसुम-सा ध्रुव धीरे-धीरे दफ्तर की ओर चल दिया।

उस दिन के बाद पल्लवी और ध्रुव के जीवन का एक नया अध्याय शुरू हो गया। कुछ दिन तो पल्लवी ध्रुव के सामने ही नहीं पड़ी। ध्रुव की निगाहें बड़ी बेसब्री से उसे ढूँढा करतीं, कहीं तो दिखे! पर अगले ही पल वह घबराता, मिलेगी तो क्या कहूँगा? फिर मन को समझा लेता, अच्छा हुआ, नहीं मिली।

दो दिन बाद कमल भी आ गया तो ध्रुव ने राहत की साँस ली, वरना छात्रावास के कमरे में अकेले तो अब उसका दम ही घुटने लगा था। पल्लवी का चेहरा बार-बार आँखों के आगे घूमता तो मन बुरी तरह छटपटा उठता।

तीसरे दिन अचानक पल्लवी से उसका आमना-सामना हो गया। ध्रुव कमल के साथ था तो पल्लवी कामिनी के साथ। दोनों ने राहत की साँस ली। बात करने का बोझ उनके कन्धों पर नहीं था अब। कमल और कामिनी ही काफी थे इसके लिए।

औपचारिक बधाई से शुरू हुई वार्ता। इस दौरान पल्लवी और ध्रुव ज्यादातर चुप ही रहे।

कमल की एक बात का जवाब देने ध्रुव ने जैसे ही चेहरा उठाया, नजरें पल्लवी की नजरों से टकरा गयीं। पल्लवी ने तुरन्त निगाहें झुका लीं। ध्रुव भी कहीं और देखने लगा।

"तुम दोनों का झगड़ा हुआ है क्या!" कामिनी ने चुटकी ली।

"नहीं तो!" दोनों के मुँह से एक साथ यही शब्द निकले तो चारों जोर से हँस पड़े।

"घर में और कौन-कौन है?" ध्रुव को अकेला पा पल्लवी ने पछा तो उसने अपनी सारी कहानी बयाँ कर दी।

जीवन के जिस नितान्त निजी हिस्से को उसने सभी से छुपा कर रखा था. उसे आज पल्लवी के सामने खोलकर रख देने में उसे कोई संकोच नहीं हआ। यहाँ तक कि कमल को भी उसने कई पहलुओं से अनजान ही रखा था।

"पढ़ाई का खर्चा कैसे पूरा करते हो?" ध्रुव की कहानी सुन, उसी आत्मीयता से पल्लवी ने अपनी व्यग्रता जाहिर की।

"ट्यूशन से। सुबह-शाम ट्यूशन पढ़ाता हूँ।"

थोड़ी देर दोनों के बीच सन्नाटा पसरा रहा। ऐसी भी जिन्दगी होती है, पल्लवी को स्वप्न में भी अनुमान नहीं था। बचपन से ही ऐशो-आराम में पली-बढ़ी पल्लवी को गरीबी की इस हद का अन्दाजा होता भी कैसे! और फिर इस घोर दरिद्रता में कोई ऐसे निखर भी सकता है, ये तो उसकी कल्पना से परे ही था।

जैसे-जैसे पल्लवी को ध्रुव के बारे में पता लगता जा रहा था, वैसे-वैसे वह उसे अपने मन के और भी करीब पाती जा रही थी। यही हाल ध्रुव का भी था। वह उसकी विराटता के आगे नतमस्तक था। राजकुमारी की तरह पली-बढ़ी पल्लवी ने, उसके मन को समझा, उसकी प्रतिभा का आदर किया, ध्रुव की नजरों में ये उसका बड़प्पन था। उसकी महानता थी।

कमल और कामिनी भी अब इस रिश्ते की गम्भीरता को समझने लगे थे। पहले पल्लवी के ध्रुव से बात करने में खीझ उठने वाला कमल, अब पल्लवी की मन-ही-मन इज्जत करने लगा था।

पल्लवी चाहती थी कि ध्रुव सी.डी.एस. की तैयारी के लिए कोचिंग ले, लेकिन उसकी आर्थिक स्थिति देख कर कह नहीं पाती थी। वह जानती थी, ध्रुव खुद्दार है और उसकी मदद भी नहीं लेना चाहेगा। कैसे मदद करे, जिससे उसका आत्मसम्मान भी आहत न हो। इसी उधेड़बुन में एक दिन साहस बटोरकर उसने ध्रुव से जिक्र कर ही दिया। साथ ही इसके लिए कुछ और ट्यूशन पढ़ाने की सलाह भी दे डाली।

लेकिन कब?" ध्रुव सकुचाते हुए बोला। उसके पास तो कोई समय बचा ही नहीं था।

"तुम्हारा मैथ्स अच्छा है। बहुत बच्चे मिल जाएँगे एक साथ पढ़ने वाले। एक कमरा किराये पर लिया जा सकता है। ज्यादा विद्यार्थी होने से कम समय लगेगा और आमदनी भी बढ़ेगी।" पल्लवी जानती थी कि शहर में कई लोग इस तरह से ट्यूशन पढ़ा रहे थे।

ध्रुव को सुझाव अच्छा लगा। कमरा ढूँढ़ने की जिम्मेदारी पल्लवी ने अपने सिर ले ली तो कुछ नये विद्यार्थी पुराने सम्पकों से मिल गये।

ध्रुव प्रसन्न था। सबकुछ बढ़िया चलने लगा। अपने आप को पढ़ाई में झोंक दिया था उसने। इस लक्ष्य को प्राप्त करना अब उसके जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य बन गया। और उसके लक्ष्य प्राप्ति के इस सफर में अब तो पल्लवी का साथ भी उसे मिल गया था, जिससे उसका उत्साह और बढ़ गया।

तेरह

"पापा आपसे मिलना चाहते हैं, कई बार कह चुके हैं।" पल्लवी ने ध्रुव से कहा तो उसके माथे पर बल पड़ गये। ऊँची-ऊँची चाहारदीवारी से घिरे आलीशान बंगले के अन्दर जाने के नाम पर ही एक अजीब-सी दहशत उसके मन में समा जाती।

लेकिन बड़ों की इच्छा का अनादर कर सके, ऐसे संस्कार बिल्कुल नहीं थे उसके। एक दिन रविवार को वह सुबह उनसे मिलने चला ही गया।

"हमारी बेटी बहुत तारीफ करती है तुम्हारी। तुम तारीफ के काबिल भी लगते हो। आखिर हमारी बेटी को पछाड़ने वाला कोई मामूली इंसान तो नहीं हो सकता।"

गद्दीदार सोफे पर पसरे रमाकान्त की आवाज में बड़ी ठसक थी। सफेद कुर्ता-पाजामा पहने हुए, रौबीले व्यक्तित्व के स्वामी थे वह। कुछ माहौल का असर तो कुछ उनका व्यक्तित्व, ध्रुव उनके सामने कुछ भी बोल नहीं पाया।

"क्या सोचा है भविष्य के बारे में?" यह एक ऐसा सवाल था, जिसका जवाब ध्रुव के पास हमेशा रहता था।

"सेना में भर्ती होकर देश की सेवा करना चाहता हूँ।" "देश की सेवा..." रमाकान्त ने जोरदार ठहाका लगाया।

"क्या ये देश की सेवा कहीं और रहकर नहीं हो सकती?" वही सवाल जो एक दिन पल्लवी ने पूछा था। लेकिन कितना अन्तर था दोनों के लहजे में। पहले में आत्मीयता भरी सलाह थी तो दूसरे में व्यंग्य भरी चुभन।

पल्लवी तो यह प्रश्न करके ध्रुव की, उसके आदर्शों, उसकी सोच के प्रति गम्भीरता को परखना चाहती थी। तभी तो ध्रुव के सेना में जाने के अपने निर्णय पर अडिग रहने के जवाब से उसे अत्यधिक प्रसन्नता हुई थी और वह गौरवान्वित महसूस करने लगी थी स्वयं को, जिसे ऐसे लड़के का साथ मिला था।

लेकिन पल्लवी के पिता के सवाल में व्यंग्य का एहसास ध्रुव को कहीं दूर तक चिन्तित कर गया। लेकिन ध्रुव का जवाब तो आज भी वही था। और उसका यही उत्तर रमाकान्त को निरुत्तर कर गया।

"क्या रखा है आर्मी में? तुम जैसे होनहार छात्र आजकल या तो एम.बी. ए. आदि कर के बहुराष्ट्रीय कम्पनी की सेवा या फिर प्रशासनिक सेवा में जाना चाहते हैं।" ध्रुव के जवाब से रमाकान्त की आवाज का तीखापन अब कुछ कम हो चला था।

"जीवन में पैसा ही तो सबकुछ नहीं होता। कुछ अपने उसूल भी तो होने चाहिए।" ध्रुव ने बड़ी विनम्रता से जवाब दिया। यद्यपि रमाकान्त की बातें उसे अच्छी नहीं लग रही थीं।

"पिता क्या करते हैं?" पैसे को महत्त्व नहीं देता तो जरूर पैसे वाले घर का बेटा होगा, सोचकर रमाकान्त ने फिर व्यंग्य वाण छोड़ा।

"जी, खेती।"

"फॉर्म हाउस होगा? अच्छा है। खेती पर टैक्स भी नहीं लगता।"

क्या ये पैसे के अलावा और भी कुछ सोचते हैं? ध्रुव को अब घुटन महसूस होने लगी थी। तभी पल्लवी चाय लेकर आ गयी और ध्रुव की थोड़ी जान में जान आयी। उनके बीच में चल रही बातचीत के कुछ शब्द उसके कानों में भी पड़े थे।

"पापा! आप भी क्या बात लेकर बैठ गये। पता है पढ़ाई के साथ-साथ ध्रुव लिखते भी हैं! देश और समाज से सम्बन्धित गीत।" पल्लवी उत्साहित होकर बता रही थी।

"देश, समाज वगैरह-वगैरह... यही बातें करती है ये भी।" पल्लवी की तरफ इशारा किया रमाकान्त ने। और फिर बोले, "फ्यूचर देखना चाहिए, अपना फ्यूचर। और फ्यूचर तो आज पैसे और रुतबे में ही है। बाकी सब तो बकवास है।" इस तरह दुनियादारी की बातें करके उन्होंने चाय खत्म की और उठ खड़े हुए।

दोनों ने बड़ी राहत की साँस ली।

ध्रुव उलझन में था। पता नहीं, क्यों मिलना चाहते थे पल्लवी के पिता उससे। सिर्फ इसलिए कि वो कॉलेज में पहले नम्बर पर रहा है या कुछ और बात है!

पल्लवी इस बात से खिन्न थी कि पापा ने जब ध्रुव को घर बुलाया था, तो ऐसी बातें करने की क्या जरूरत थी? हर वक्त हैसियत और पैसे की ही बात!

होने को तो रमाकान्त उच्च पद पर थे। वेतन के साथ-साथ अन्य सुविधाएँ भी भरपूर मिलती थीं उन्हें, लेकिन फिर भी पल्लवी को कभी-कभी कुछ सन्दिग्ध-सा लगता। कार्यालय सम्बन्धी कार्यों से लोगों का घर पर आना, महँगे उपहारों का आदान-प्रदान करना पल्लवी को बिल्कुल अच्छा न लगता। पिता का वह बड़ा सम्मान करती थी, इसलिए कुछ कह न पाती, लेकिन वह खुद निश्चय कर चुकी थी कि स्वयं कभी पैसा कमाने की मशीन नहीं बनेगी।

कुछ देर रुक कर ध्रुव वापस लौट गया। उसका मन अशान्त था।

"ये ध्रुव के पिता करते क्या हैं?" वही हुआ जिससे पल्लवी डर रही थी। रात को भोजन करते हुए पिता ने पल्लवी से पूछ ही लिया।

"बताया तो था पापा, वह खेती करते हैं।"

"कहाँ?"

"गाँव में। पहाड़ में गाँव है ध्रुव का।"

"तभी मैं कहूँ, बहुत साधारण से घर का लग रहा था।" पिता यहाँ भी ताने मारने से नहीं चूके।

उसके बाद शुरू हुआ पिता का लेक्चर, "पहले तो अपने से ऊँचे लोगों से करीबी बनाओ और मित्रता करनी ही है तो फिर अपनी बराबरी वालों के साथ करो।" वगैरह-वगैरह...।

पल्लवी को लगा जैसे खाने का स्वाद ही कसैला हो गया हो। जल्दी-जल्दी उसने आधा-अधूरा खाना खाया और उठ खड़ी हुई।

"बेटी बड़ी हो रही है। अब आप थोड़ा सोच-समझ कर बोला कीजिए उससे।" पार्वती समझ गयी थी कि पिता की बातों से ही नाराज होकर पल्लवी उठकर चली गयी और खाना भी ढंग से नहीं खाया उसने।

"पता नहीं किस-किस से दोस्ती कर लेती है! आखिर अपने घर-परिवार के स्तर का भी कुछ ध्यान रखना चाहिए कि नहीं! तुम्हें समझाना चाहिए उसे। उल्टा मुझे नसीहत दे रही हो।"

रमाकान्त भी उठ खड़े हुए। घर का माहौल अचानक तनावग्रस्त हो गया।

चौदह

तेज चमक के साथ बिजली कड़की तो अतीत की यादों में खोई पल्लवी चौंक कर उठ बैठी। बाहर तूफान के साथ तेज बारिश होनी शुरू हो गयी। देखते ही देखते बादलों की गड़गड़ाहट के साथ इसने प्रचंड तूफान का रूप ले लिया। ऐसा ही तूफान पल्लवी के मन में भी उमड़ने-घुमड़ने लगा। उसने एक बार फिर घड़ी देखी। साढे चार बजे थे। "हे भगवान! ये रात क्यों नहीं बीत रही।" उसकी बेचैनी और बढ़ने लगी।

यूँ तो मौसम बरसात का ही था, लेकिन ऐसी बारिश तो इस मौसम में क्या, कई सालों में पहली बार हो रही थी। पल्लवी उठना चाहती थी, लेकिन सास-ससुर की नींद खराब न हो, इसलिए चुपचाप पड़ी रही।

गाँव में रेडियो के अलावा समाचार सुनने का और कोई साधन नहीं था। सुबह उठते ही पल्लवी ट्रांजिस्टर लगाकर आकाशवाणी से समाचार सुनती। हर रोज कोई अच्छी खबर तो कोई बुरी। 'हमारी सेनाएँ दुश्मन को पछाड़ती हुई आगे बढ़ रही हैं।' यह समाचार सुनकर मन बड़ा खुश होता, पर साथ में ही कुछ जाँबाज सैनिकों के हताहत होने की खबर पल्लवी के मन को अन्दर तक हिला जाती।

पल्लवी मन ही मन ध्रुव की सलामती की प्रार्थना करती। कभी-कभी जब उसका मन बहुत व्यथित होता तो खेतों की ओर चल देती। अपनी बेचैनी, परेशानी सास-ससुर के सामने जाहिर न हो, इसका वह पूरा-पूरा खयाल रखती।

पल्लवी ने करवट बदली। सुबह होने को थी लेकिन अँधेरा घना था। काले बादलों ने सूर्य की किरणों को जैसे पूरी तरह निगल लिया हो। पिछले चार दिन से गाँव में वैसे भी शोक का माहौल था। खबर मिली थी कि कैप्टन किशन दुश्मन के कई सैनिकों को धराशायी करते हुए शहीद हो गये हैं। झबरी बुआ का तो रो-रोकर बुरा हाल था। किशन के अक्सर यहाँ अपनी बुआ के पास आते रहने के कारण गाँव में भी सभी लोग उससे हिल-मिल गये थे। इसीलिए यह खबर मिलते ही गाँव में भी सन्नाटा पसर गया।

और ध्रुव! उसके लिए तो किशन बड़ा भाई, आदर्श, मार्गदर्शी सभी कुछ था। क्या बीतेगी उस पर जब उसे पता चलेगा कि किशन भैया नहीं रहे। देश की सुरक्षा की बलि-वेदी पर अपने आप को कुर्बान कर दिया उन्होंने।

पल्लवी का मन किशन की शहादत से छटपटा उठा। बिन्दु को उसने कभी देखा तो नहीं था, लेकिन उसके बारे में ध्रुव से काफी कुछ सुना था। कैसे सहन कर रही होगी वो ये सदमा?

यह कल्पना कर उसका सिर चकराने लगा। फिर उसका ध्यान सुबह के डरावने सपने की ओर चला गया। शायद किशन भैया की मौत के बारे में सोच-सोचकर ही ऐसा सपना आया होगा उसे। वह खुद ही बेचैन मन को दिलासा देने लगी। इस बीच बारिश और तेज हो गयी, साथ ही उसकी बेचैनी भी।

उसे याद आया वह दिन, जब सी.डी.एस. की लिखित परीक्षा का परिणाम आया था। पल्लवी ने ही सबसे पहले जाकर यह खबर दी थी ध्रुव को। और अतीत की स्मृतियाँ फिर साकार होकर जैसे उसके सामने तैरने लगी...।

ध्रुव स्तब्ध एकटक पल्लवी की ओर देख रहा था। वही थी इस सफलता की पहली हकदार।

"ध्रुव तुम सी.डी.एस. में पास हो गये हो।" पल्लवी की खुशी का जैसे कोई ठिकाना न था। "अब है असली परीक्षा। एस.एस.बी. के लिए तैयारी करनी है।" वह उत्साह से भरी थी।

लेकिन वह जानती थी कि अपने ट्यूशन और कॉलेज की पढ़ाई में ही ध्रुव इतना व्यस्त रहेगा कि कोचिंग लेने और तैयारी करने का वक्त ही नहीं होगा उसके पास। ऊपर से पैसे की समस्या। शहर में एस.एस.बी. के लिए प्रशिक्षण देने वाले कई प्राइवेट संस्थान थे, जिन्हें सेवानिवृत्त सेना अधिकारी चला रहे थे, लेकिन उनकी फीस इतनी अधिक थी कि ध्रुव के लिए उसे जुटाना आकाश से तारे तोड़ लाने जैसा था।

पल्लवी ने मन-ही-मन ठान लिया था कि इस बार ध्रुव को वह मना कर रहेगी। उसे ट्यूशन छोड़ कर सिर्फ प्रशिक्षण लेना होगा।

"लेकिन पल्लवी, ये कैसे सम्भव है?" ध्रुव ने पल्लवी का सुझाव सीधे ठुकरा दिया। "कॉलेज की पढ़ाई का खर्चा ही बड़ी मुश्किल से निकलता है तो ये प्रशिक्षण का खर्चा कहाँ से आयेगा?"

सब कुछ सम्भव है। प्लीज, ध्रुव! अपने लक्ष्य के लिए, अपने सपनों के लिए मेरा सुझाव मान लो। मैं मदद करूँगी।" पल्लवी गिड़गिड़ाने लगी।

ध्रुव सोच में पड़ गया। क्या बिना प्रशिक्षण के सम्भव नहीं होगा सफल होना? हाँ, किशन भैया तो हैं, उन्हीं से राय लेगा वह इस बारे में।

"ध्रुव! किस सोच में पड़ गये? कर्जा दे रही हूँ मैं तुम्हें। ऐसा करना, सबसे पहले मेरे ही पैसे लौटा देना। लेकिन इस समय मना मत करो।" पल्लवी किसी तरह अपनी बात मनवाना चाहती थी। ध्रुव का सपना पूरा होने में कोई कसर रह जाए, ऐसा कोई जोखिम उसे मंजूर नहीं था।

"सोचने का वक्त दो।"

"जितना चाहे सोचो, लेकिन तुम्हारा जवाब हाँ में ही होना चाहिए।" पल्लवी ने साधिकार दोस्ती का हक जता दिया।

किशन भैया का जवाब पन्द्रह दिन बाद मिला। उन्होंने भी पल्लवी के सुझाव को सही ठहराया। सीधे कमीशन की तैयारी करने वालों में स्पर्धा बहुत अधिक होती है। अच्छी तैयारी के साथ ही छात्र इस प्रतिष्ठित परीक्षा में बैठते हैं। इसलिए अगर वह इसकी व्यवस्था कर सकता है तो प्रशिक्षण अवश्य ले। साथ ही आर्थिक मदद हेतु भी निःसंकोच कहने को लिखा था।

इधर पल्लवी नित्य उससे, उसके निर्णय के बारे में पूछती रहती। ध्रुव रोज कोई न कोई बहाना बना देता। यहाँ तक कि देर करने पर पल्लवी ने एक दिन गहरी नाराजगी भी जता दी।

अन्ततः ध्रुव ने किशन का पत्र आते ही सहमति दी तो पल्लवी ने अगले दिन से ही कोचिंग में प्रवेश लेने का फरमान जारी कर दिया।

पल्लवी क्यों किसी भी हद तक जाकर मदद करना चाहती है उसकी? जबकि उसके पिता तो उनकी इस दोस्ती से खुश भी नहीं हैं, यह बात ध्रुव को अन्दर ही अन्दर परेशान कर रही थी।

पर इस सब के बावजूद, एक बड़ी खुशी और उत्साह का एहसास उसके भीतर हिलोरें ले रहा था कि कोई तो उसके जीवन में है, जिससे वह अपने मन की सारी बातें नि:संकोच कह सकता है। यही वजह थी कि कभी किसी से आर्थिक मदद न लेने वाला ध्रुव, पल्लवी के इस प्रस्ताव को टाल न सका। और फिर उसकी स्वीकृति के बाद पल्लवी की आँखों में उभरी चमक, उसे अन्दर तक अकल्पनीय खुशी दे गयी।

"तू बहुत भाग्यशाली है, जो पल्लवी जैसी दोस्त तुझे मिली है।" एक दिन पल्लवी का जिक्र आने पर कमल से रहा नहीं गया तो अपने मन की बात उसने कह ही दी ध्रुव से।

एक समय था जब पल्लवी के प्रति कमल के मन में कोई अच्छी धारणा नहीं थी। उसे लगता था कि पल्लवी ध्रुव के भोलेपन का फायदा उठा रही है। लेकिन समय और परिस्थितियों के साथ-साथ उसका मन भी बदलता गया और इस आत्मीय रिश्ते को वह भी अब मन से स्वीकारने लगा था।

कॉलेज में हर तरह के लोग थे। ध्रुव और पल्लवी की मित्रता पर भी कई तरह की बातें होने लगीं। कई बार तो सामने-सामने ही उन पर कटाक्ष कर दिए जाते। ध्रुव का तो फिर भी एक पल के लिए मन विचलित हो जाता, लेकिन पल्लवी इन क्षुद्र और उच्छंखल लोगों की तनिक भी परवाह नहीं करती थी।

"अगर ऐसे लोगों की बातें मन में बिठाने लगे तो जी लिए इस दुनिया में।" पल्लवी के ये शब्द ध्रुव को प्रतिकूल परिस्थितियों में भी संघर्ष करने की प्रेरणा देते। लेकिन एक दिन तो हद ही हो गयी। एक मनचले छात्र ने जब पल्लवी को ध्रुव के साथ कॉलेज की कैंटीन में अकेले देख अजीब सी भाव-भंगिमा से फिकरा कसा तो अनायास ही ध्रुव का चेहरा अपमान और क्रोध से तमतमा उठा। पल्लवी एक क्षण को तो स्तब्ध रह गयी, पर अगले ही पल वह अपनी कुर्सी से उठी और जब तक वह छात्र कुछ समझ पाता, पल्लवी की उँगलियों के निशान उसके गाल पर छप चुके थे।

इतने में कमल और कामिनी भी वहाँ आ गये तो उस छात्र ने वहाँ से खिसक लेने में ही भलाई समझी।

उस दिन से इतना तो असर जरूर हो गया कि उनके सामने इस तरह की भद्दी टिप्पणियाँ बन्द हो गयीं। कामिनी और कमल ने तो आगे बढ़कर पल्लवी का नया नामकरण ही कर दिया- 'झाँसी की रानी।'

उसी वर्ष कॉलेज की वार्षिक पत्रिका में ध्रुव की दो कविताओं को स्थान मिला तो औरों के साथ खुद ध्रुव को भी आश्चर्य हुआ। उसने तो भेजी ही नहीं थीं ये कविताएँ।

"कैसी लगी मैग्जीन?" आँखों में शरारत लिए कामिनी ने पूछा तो ध्रुव समझ गया कि यह सब इन तीनों की मिली भगत है।

"तुमसे कहते तो तुम ना-नुकुर करते। इसलिए तुमसे पूछे बगैर ही..." पल्लवी ने रहस्य के पर्दे का अनावरण कर दिया।

"और फिर हम तुम्हें सरप्राइज देना चाहते थे, कैसा लगा?" अब कमल की बारी थी।

और पत्रिका छपने के बाद कई अध्यापक, जूनियर तथा सीनियर छात्र-छात्राओं ने उसकी रचना की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। ध्रुव के आत्मविश्वास में उत्तरोत्तर वृद्धि से वह सब खुश थे। विशेष तौर पर पल्लवी तो बहुत ही खुश थी।

कॉलेज में ध्रुव का यह अन्तिम वर्ष था, पल्लवी जहाँ मन-ही-मन ध्रुव की सफलता की दुआ करती तो वहीं उसके जाने की कल्पना मात्र से सिहर उठती।

लेकिन यह तो एक न एक दिन होना ही था। इधर कॉलेज की परीक्षाएँ समाप्त हुई, तो उधर ध्रुव की कॉलेज के साथ-साथ सी.डी.एस. सम्बन्धी सारी औपचारिकताएँ भी पूरी हो गयीं। अब गाँव जाने की तैयारी में लग गया वह। इस बार लम्बे समय से नहीं जा पाया था वह गाँव। .

पन्द्रह

"ध्रुव तेरा तार आया है। पोस्टमैन ढूँढ़ रहा है तुझे।" बस कहीं से भागते आ रहा दीपू हाँफते-हाँफते इतना ही कह फुर्र हो लिया। न जाने कहाँ से दौड़ा आ रहा था वह! गाँव के और लड़कों से अलग, वह सुबह से शाम तक, लोगों के लिए ही मरा-खपा रहता।

"तार!" सभी लोग चौंक गये। चिन्ता की रेखाएँ उनके चेहरों पर साफ झलक रही थीं। सुदूरवर्ती गाँवों में तार का मतलब आज भी किसी बुरी खबर से ही लिया जाता है। लेकिन ध्रुव के लिए ऐसी कौन-सी खबर आएगी तार से। वे समझ नहीं पा रहे थे।

"क्या लिखा है?" सब उत्सुकतावश ध्रुव को घेर खड़े हो गये।

"तुम्हारा सपना सच हो गया- पल्लवी।" ध्रुव ने एक बार पढ़ा, दो बार पढ़ा। फिर तार को उलट-पलट कर देखा। बस यही एक पंक्ति लिखी थी उसमें।

ध्रुव निश्चल खड़ा था। आँखें तार में लिखी इसी एक पंक्ति पर गड़ी रह गयीं। उसने गहरी साँस ली और फिर आँखें मूँद लीं। आज उसका सपना सच हो गया। साथ ही अपनी सफलता की पहली खबर पल्लवी से मिलना उसकी खुशी को दोगुना कर गया।

जाने क्यों, ध्रुव आँखों से अविरल अश्रुधार बह निकली। पर इसे उसने फख से बहने दिया। इसकी कतई परवाह किए बिना कि उसके माता-पिता सहित गाँव के दस लोग और उसे घेरे हुए खड़े हैं।

बेटे की आँखों में आँसू देख माँ का तो कलेजा मुँह को आ गया। एक तो तार, ऊपर से आँखों में आँसू। ऐसी कौन-सी आफत टूट पड़ी है मेरे बेटे पर। माँ तो पगला सी गयी।

"ध्रुव क्या हुआ? कुछ बताएगा भी या नहीं?" उसने ध्रुव को कन्धे से पकड़कर झकझोरा, तो वह खुशी से चिल्लाया, "मैं पास हो गया माँ। मैं भी अब किशन भैया की तरह फौज में जाऊँगा।"

उसके ये शब्द सुनकर सभी ने राहत की साँस ली। लेकिन वो ये नहीं समझ पाये कि इस बात के लिए तार क्यों आया!

बेटे की नौकरी लगने की खुशी में माँ मन्दिर में जाकर गुड़ की भेली का प्रसाद चढ़ा आई और फिर सारे गाँव में उसी प्रसाद को बाँट दिया। सुदूर गाँव में आज भी मुहँ मीठा कराने के लिए यही एकमात्र मिठाई होती है।

ध्रुव ने पहला काम पत्र लिखने का किया। एक पल्लवी को, दूसरा किशन भैया को।

'कितने खुश होंगे किशन भैया।' उसने मन-ही-मन सोचा। आखिर उन्हीं का मार्गदर्शन पाकर तो आज इस कामयाबी का हकदार बना था वह। और पल्लवी! उसका योगदान तो इस जन्म में क्या, अगले जन्मों में भी नहीं भुला सकता वह। किशन भैया ने अगर उसे लक्ष्य दिखाया तो यह पल्लवी ही तो थी, जिसने उसे इस लक्ष्य की न सिर्फ राह दिखाई, बल्कि यह राह आसान भी कर दी। वही ताकत थी इस सारी सफलता की।

कुछ ही दिनों बाद सेना से उसका चयन सम्बन्धी पत्र भी आ गया और साथ ही देहरादून स्थित भारतीय रक्षा अकादमी में प्रवेश हेतु निर्देश भी प्राप्त हो गया।

माता-पिता खुश थे कि बेटा फौजी बनने जा रहा है। लेकिन इस बात का अन्दाजा उन्हें सपने में भी नहीं था कि ध्रुव का चयन किस पद पर हुआ है।

देहरादून पहुँचने से पहले ध्रुव एक दिन उस शहर में बिताना चाहता था, जहाँ उसकी जिन्दगी के तीन महत्त्वपूर्ण वर्ष कटे। मित्रता का पहला सबक उसने जिस शहर में, जिस कॉलेज में रहकर सीखा, उसे कैसे भूल सकता था वह। फिर उसे कॉलेज से अपनी अंकतालिका व अन्य दस्तावेज भी तो लेने थे।

तभी उसे पता लगा कि किशन भैया भी छुट्टी आ रहे हैं तो उसने एक दिन और पहले ही गाँव से निकल भैया-भाभी से मिलने का निश्चय किया।

डोलूडांडा बस अड्डे पर ध्रुव को छोड़ने गाँव के कई लड़के पहुँचे थे। कोई उसका सामान उठाने के बहाने चला आया तो कोई अपना काम होने के बहाने।

माँ ने हमेशा की तरह उसे 'धार' (पहाड़ की एक ऊँची जगह) से विदा किया और फिर एकटक तब तक नजरें गड़ाये रही, जब तक वह आँखों से ओझल नहीं हो गया। आँसू पोंछते हुए घर लौटी तो देखा कि श्रवण घुटनों के बीच मुहँ छुपाये रो रहा था।

काश! वह ठीक होता तो वह भी ध्रुव को बस अड्डे तक छोड़ने जाता। श्रवण को गले से लगा लिया सुमित्रा ने। ममता भरा स्पर्श पाकर श्रवण फूट-फूट कर रो पड़ा। थोड़ी देर दोनों यूँ ही एक दूसरे का सम्बल बनने का प्रयास करते रहे, फिर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गये।

ध्रुव के साथ चल रहे कल्याण सिंह तथा गाँव के अन्य लड़कों को देख राह में पड़ने वाले गाँवों के लोग पूछते तो कल्याण सिंह गर्व से उन्हें बताते।

"बेटा फौज में भर्ती होने जा रहा है।"

पढ़ाई में अपने इलाके का नाम रोशन करने के कारण आस-पास के सभी लोग ध्रुव को जानते थे तो साथ में कल्याण सिंह की गरीबी को भी। इसलिए जो भी सुनता, बड़ा खुश होता।

"पहुँचते ही चिट्ठी भेज देना।" बस में बैठने से पहले ध्रुव द्वारा पिता के चरण स्पर्श करने पर, माँ की बात को पिता कल्याण सिंह ने दोहराया।

कच्ची सड़क पर धूल उड़ाती, हिचकोले खाती बस ज्यों ही आगे बढ़ी, तो छोड़ने आये लोगों के दिल भी जैसे हिचकोले खाने लगे। जब तक बस आँखों से ओझल नहीं हो गयी, सब बुत की तरह वहीं खड़े रहे।

किशन भैया का घर तलाशता ध्रुव उनके घर के पास ही जा पहुँचा। किसी के आने की आहट सुन वह बाहर निकले तो देखा ध्रुव पड़ोसी से उनका पता पूछ रहा है। किशन भैया को देख ध्रुव उन्हें प्रणाम करता, इससे पहले ही उन्होंने ध्रुव को गले लगा लिया।

भाभी अब शहर में अकेले खुश थीं। उनके दोनों भाई और भाभी भी पास में ही रहते थे, इसलिए उनका और भी मन लगा रहता। सोनू अब अंग्रेजी स्कूल में पढ़ रहा था सो भाभी अब काफी सन्तुष्ट थीं।

"छि: देवर जी, तुमने भी फौज की ही नौकरी चुनी। इससे अच्छा किसी होटल में बरतन माँज लेते।" बिन्दु के मुँह से निकले ये कर्कश शब्द ध्रुव को अन्दर तक आहत कर गये। आखिर भैया ने अब क्या कसर छोड़ी है उनके लिए! उनकी सारी बातें तो मानते हैं। फिर ऐसी जली-भुनी बातें क्यों? वह कुछ कहता, इससे पहले ही किशन भैया ने तल्खी भरे स्वर में पूछा, "क्यों क्या बुराई है फौज की नौकरी में?"

"एक हो तो बताऊँ अगर फौज में जाना है, तो शादी बिल्कुल मत करना देवर जी। वरना मेरी देवरानी भी मेरी तरह दुःखी रहेगी।" उसने बड़े नाटकीय अन्दाज में आँखें नचाते हुए कहा तो किशन ने चुप्पी साध ली। वह माहौल को ज्यादा कटु नहीं बनाना चाहता था।

सारे दिन दोनों प्रशिक्षण सम्बन्धी बातें करते रहे और किशन उसे आई.एम.ए. में रहने के तौर-तरीके समझाता रहा।

रात की ही बस से उसे लौटना था। अगले दिन कॉलेज से सम्बन्धित सारे काम निबटाकर फिर देहरादून के लिए निकलना था।

सुबह छह बजे ही ध्रुव शहर पहुँच गया था। सामान कहाँ रखे, अब यह समस्या थी। बस अड्डे के पास कोई व्यवस्था न देख, वह सीधे कॉलेज की ओर चल दिया। सोचा, वहीं हॉस्टल में सामान रखकर नहा-धो भी लेगा।

क्या पल्लवी आज कॉलेज आयी होगी? यों तो उसकी कक्षाएँ अब तक आरम्भ हो चुकी होंगी लेकिन उसको सूचित करना ही ठीक रहेगा। बहुत पहले पल्लवी ने उसे अपने घर का फोन नम्बर दिया था। क्या पता कभी जरूरत पड़ जाए। हॉस्टल पहुँच बटुआ खोला, डायरी निकाली और परिसर में स्थित पी.सी. ओ. से पल्लवी को फोन मिलाया।

"जी, पल्लवी से बात करनी है।"

उधर से शायद मातादीन ने फोन उठाया था।

"ध्रुव! कहाँ हो तुम?"

पल्लवी का स्वर इतना ऊँचा था कि अखबार पढ़ रहे रमाकान्त का ध्यान बरबस उस ओर खिंच गया, लेकिन पल्लवी को तो जैसे किसी की परवाह ही नहीं थी। फोन रखा। जल्दी से तैयार हुई और 'माँ, मैं जा रही हूँ' कहती हुई घर से बाहर निकल गयी। पार्वती तभी पूजा करके बाहर निकल ही रही थी। जब तक वह कुछ पूछती, पल्लवी तीर की तरह गेट से भी बाहर जा चुकी थी।

नाश्ता भी नहीं किया। कहाँ जाना था इतनी जल्दी?" पार्वती के बड़बड़ाने का स्वर सुन रमाकान्त का पारा चढ़ गया।

"तुम्हीं ने सिर पर चढ़ा रखा है उसे, अब भुगतो। क्या करती है क्या नहीं, अब तो कुछ बताना भी जरूरी नहीं समझती।"

"मेरी बेटी कुछ ऐसा नहीं करेगी, जिससे परिवार के मान-सम्मान पर आँच आए।" पार्वती के स्वर की दृढ़ता रमाकान्त को भी अखरी नहीं। उन्हें भी अपनी बेटी पर विश्वास था, लेकिन अपने स्तर से नीचे के लोगों से उसका मिलना-जुलना उन्हें कतई पसन्द नहीं था।

"अभी तक तैयार नहीं हुई, कॉलेज जाना है तुरन्त।" आँधी-तूफान की तरह पल्लवी कामिनी के घर में दाखिल हुई और पहुँचते ही फरमान सुना दिया।

"पागल हो गयी है? अभी दो घंटे हैं क्लास शुरू होने में।" कामिनी कहती रह गयी, पर पल्लवी उसे लगभग घसीटती हुई रिक्शे में बैठ गयी। कामिनी रास्ते भर बड़बड़ाती रही लेकिन पल्लवी चुपचाप मुस्कराती रही। वह जानती थी कि ध्रुव को देखते ही कामिनी का गुस्सा उड़न-छू हो जाएगा।

कहाँ जा रही है ब्वायज हॉस्टल की तरफ?" पल्लवी को उस ओर जाते देख कामिनी ने टोका।

"तू चुप रहेगी या नहीं? जहन्नुम में नहीं ले जा रही हूँ तुझे।"

छात्रावास के बाहर ही ध्रुव पल्लवी की प्रतीक्षा कर रहा था। दोनों को आते देखा, तो वह उधर ही चल दिया।

"ध्रुव! तुम!" कामिनी देखते ही चिल्ला उठी। पल्लवी पर उठी उसकी सारी खीझ भी तुरन्त काफूर हो गयी।

एक ओर कामिनी ध्रुव को उसकी सफलता पर बधाई दे रही थी तो दूसरी ओर पल्लवी ने मुँह तक नहीं खोला। वह एकटक ध्रुव के चेहरे को निहारे जा रही थी। खुशी से दमक रहा था उसका चेहरा।

ध्रुव ने पल्लवी की ओर देखा। दोनों की नजरें मिली और पल्लवी ने निगाहें झुका लीं! वह तो आज यह भी भूल गयी थी कि उसे ध्रुव को बधाई भी देनी है। कुछ बोली ही नहीं, लेकिन हाव-भाव से सब कह गयी।

"मैं तुम्हारे लिए बहुत खुश हूँ ध्रुव।" पिछले वर्ष के परीक्षापरिणाम के बाद पल्लवी के कहे शब्द ध्रुव को बरबस याद आ गये। लेकिन आज पल्लवी की खुशी इतनी बड़ी थी कि यह एक वाक्य भी उसके मुँह से नहीं निकल पाया।

कामिनी को एक जूनियर छात्रा ने आवाज दी तो वह उससे बतियाने लगी। ध्रुव और पल्लवी अब अकेले हो गये। दोनों चुपचाप, हल्के-हल्के डग भरते आगे बढ़े और शुरू हुआ शिद्दत से दिली भावनाओं का आदान-प्रदान।

"कब जाना है?" खामोशी को तोड़ता पल्लवी का स्वर उभरा। यद्यपि इस अप्रिय सवाल को वह पूछना नहीं चाहती थी, लेकिन बात आरम्भ करने का यही एक तरीका था।

"आज रात।"

"आज ही! कल तक भी नहीं रुकोगे?" पल्लवी चलते-चलते रुक गयी। मन की गहराई से उभरी पीड़ा लिये निगाहों से उसने ध्रुव की ओर देखा और आँसू निकलने से पहले मुँह फेर लिया।

'क्या करूँ? मजबूरी है। चाहता तो मैं भी था कि तुम्हारे साथ कुछ दिन रहूँ। तुमसे ढेर सारी बातें करूँ, लेकिन समय इजाजत नहीं देता।' यही सब कहना चाहता था ध्रुव, लेकिन कह नहीं पाया। बस रुंधे गले से इतना ही बोला, "कल अकादमी में प्रवेश लेना जरूरी है।"

"देहरादून के लिए आखिरी बस रात दस बजे जाती है। तब तक तो रुक जाओगे?"

ध्रुव ने स्वीकृति में सिर हिलाया तो पल्लवी ने इसी पर सन्तोष कर लिया। आखिर दिनभर तो साथ रहेगा ध्रुव।

इधर ध्रुव ने अपने दस्तावेज सम्बन्धी काम निपटाए तो पल्लवी भी अपनी क्लास में चली गयी।

कमल अभी तक लौटा नहीं था। बी.-एड. की प्रवेश परीक्षा दी थी उसने। लेकिन परिणाम घोषित नहीं हुआ था अब तक।

"तुम्हारे लिए हमने एक छोटी सी पार्टी रखी है, विदाई पार्टी। शाम को छह बजे कॉलेज कैंटीन में।" इतनी देर में पल्लवी, कामिनी और कुछ अन्य मित्रों ने मिलकर विदाई समारोह का भी आयोजन कर डाला था।

कक्षाएँ समाप्त होने पर पल्लवी आग्रह कर ध्रुव को घर ले गयी। पिता तो घर पर थे नहीं, इसलिए पल्लवी बेखौफ थी। माँ ने ध्रुव को ढेरों आशीष दिए और साथ ही पल्लवी का मार्गदर्शन करने को भी कहा, "इसके पिता बहुत परेशान रहते हैं। क्या करना चाहती है आगे, यह तय ही नहीं किया इसने अब तक।"

"माँ, आप भी वही बात लेकर बैठ गयीं। ध्रुव को मिठाई तो खिलाओ पहले।" पल्लवी इस अप्रिय प्रसंग को वहीं समाप्त करना चाहती थी, और माँ चाय नाश्ते की तैयारी करने रसोई में चली गयी।

"अगले वर्ष तुम्हारा बी.एस-सी. हो जाएगा, तो तुम्हें सोचना चाहिए, आगे क्या करना है।" ध्रुव ने भी माँ की बात का सिरा पकड़ बात आरम्भ की।

बहुत दिनों तक एक दूसरे से 'आप' कह कर बात करने वालों के बीच ये दीवार कब गिरी, इन दोनों को स्वयं भी याद नहीं। न जाने कब 'तुम' कहने का सिलसिला आरम्भ हुआ, जो आज भी चल रहा था।

नहीं टूटी थी तो सिर्फ एक दीवार। यह न बता पाने की दीवार कि वह दोनों एक दूसरे के बिना कितने अधूरे हैं! एक-दूसरे का मन वह न समझते हों ऐसा नहीं था, लेकिन संकोचवश कभी कह न पाते।

"हमारे ग्रुप में तुम्ही पहले हो, जिसने अपना लक्ष्य पा लिया। बहत खशी है हमें।" उसके सहपाठी राकेश ने भावुक होकर कहा तो ध्रुव भी भावक हो उठा। सभी लोग आपस में बात करते हुए समारोह का आनन्द ले रहे थे कि तभी कामिनी की ऊँची आवाज ने सबका ध्यान उसकी ओर खींचा।

"अब ध्रुव अपनी कोई रचना सुनाएगा।" और पार्टी में उपस्थित सभी लोग ध्रुव की ओर मुखातिब हो गये।

ध्रुव कुछ देर सोचता रहा। फिर उसने इन्हीं छुट्टियों में लिखी एक रचना सुनानी आरम्भ की।

चीर दें उस गहन तम को,

आज जो फैला हुआ है।

वह कलुषिता दूर कर दें,

जिससे हृदय मैला हुआ है।

अँधियारों में खो गया जो, नहीं रोशनी वह पाएगा।

कुर्बान देश पर होगा जो, इतिहास उसी को गाएगा।

खून पानी बन न पाए,

कभी शीश अपना ना झुके!

लाख संकट सामने हों,

पर वीर थककर ना रुके।

दृढ़ता से जो बढ़ा राह, बस वही सफल हो पाएगा,

कुर्बान देश पर होगा जो, इतिहास उसी को गाएगा।

ध्रुव की देशभक्ति से ओत-प्रोत कविता ने सभी को कुछ क्षण के लिए झकझोर कर रख दिया...। देशभक्ति का ऐसा जज़्बा! पल्लवी तो गर्व से फूली नहीं समा रही थी। यही सोच-सोचकर कि ध्रुव उसे जानता है। ऐसे इंसान का सान्निध्य तो भाग्य से ही मिलता है। वह मन-ही-मन सोचने लगी।

पार्टी समाप्त हुई तो आठ बज चुके थे। बाहर घुप्प अँधेरा पसर गया था। ऊपर से बरसात का मौसम।।

"रात हो गयी है और मौसम भी खराब होने के आसार हैं। मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूँ।" पल्लवी और कामिनी को कॉलेज गेट तक छोड़ने आए ध्रुव ने सुझाव दिया।

पल्लवी को जैसे मन माँगी मुराद मिल गयी। कुछ देर और ध्रुव का साथ मिल जाएगा। उसने मन-ही-मन राहत की साँस ली, पर बोली कुछ नहीं। कामिनी बोल उठी, "नहीं-नहीं, हम चले जाएँगे, ज्यादा देर नहीं हुई अभी।"

ध्रुव ने पल्लवी की ओर देखा, आँखों में मौन स्वीकृति। यही तो चाहता था वह भी। जाने से पहले कुछ और पल चुराना। फिर न जाने कब मुलाकात हो। ध्रुव ने ऑटो रुकवाया। तीनों बैठ गये। कामिनी रास्ते भर बक-बक करती रही। उसकी बातों का बस हाँ-हूँ में जवाब देते पल्लवी और ध्रुव खामोश बैठे रहे। घर आने पर कामिनी उतरी तो ऑटो में सन्नाटा छा गया।

"जब भी समय मिले, पत्र अवश्य लिखना और हाँ अपनी नयी रचनाएँ मुझे भेजना मत भूलना।" पल्लवी की कँपकँपाती आवाज ने निस्तब्धता तोड़ी।

"ज़रूर भेजूँगा।" भरे गले से ध्रुव का संक्षिप्त जवाब था, फिर वही खामोशी छा गयी।

अचानक ही जोर से सिसकियों की आवाज आयी तो घबराकर ध्रुव ने पल्लवी की ओर देखा। स्ट्रीट लाइट के प्रकाश में बस इतना ही नजर आया कि वह दुपट्टे से मुँह ढाँपे नीचे झुकी जा रही थी। लगा जैसे सिसकियों को दबाने की कोशिश कर रही हो।

सकपका उठा था ध्रुव। कुछ समझ में नहीं आ रहा था, क्या कहे उससे। खुद भी तो उसकी यही स्थिति थी।

अनजाने में उसका हाथ पल्लवी के हाथ पर जा पड़ा। एक पल को वह ठिठका, लेकिन दूसरे ही पल उसने मजबूती से अपना हाथ उसके हाथ पर रख दिया, मानो उसे सान्त्वना दे रहा हो।

आत्मीय अनुभूति से भरी पल्लवी ने ध्रुव की ओर देखा लेकिन वह दूसरी ओर देखने लगा। पल्लवी की सिसकियाँ रुक चुकी थीं।

"काश! वह समय यहीं रुक जाता।" मन-ही-मन वह भगवान से मना रही थी। ध्रुव के प्रथम स्पर्श का एहसास उसके रोम-रोम में समा गया था।

एक झटके के साथ ऑटो रुका। ध्रुव ने भी उसी गति से अपना हाथ हटा लिया। ऑटो घर के विशालकाय गेट के बाहर खड़ा था। दोनों ऑटो से बाहर निकले।

ध्रुव के स्पर्श की गर्माहट से रुका रुलाई का प्रवाह बरबस फिर टूट पड़ा।

"मैं पहुँचते ही पत्र लिखूगा। तुम अन्दर जाओ।"

पर पल्लवी गेट के भीतर जाने का नाम ही नहीं ले रही थी।

"माँ क्या सोचेंगी, सँभालो अपने आप को।"

ध्रुव बस यही कह पाया।

"जल्दी करो बाबूजी! देर हो रही है।" ऑटो वाले ने आवाज दी। ध्रुव को उसी ऑटो से वापस जाना था।

पल्लवी गेट की ओर चल दी। पर जब तक वह गेट खोलकर अन्दर नहीं चली गयी, ध्रुव वहीं खड़ा रहा। गेट बन्द करते हुए पल्लवी ने एक भरपूर नजर ध्रुव पर डाली, मानो अपने दिल की गहराई में वह उसकी मूरत उतार लेना चाह रही हो।

ध्रुव ऑटो में बैठा, लेकिन ऑटो की गति से तेज यह मंजर ध्रुव को भी अन्दर तक हिला गया। वह ऑटो में बैठ तो गया, पर उसका मन जैसे वहीं गेट पर ही अटका रह गया।

'कितना चाहती हो तुम मुझे! पर मैं पीड़ा के सिवा तुम्हें कुछ नहीं दे पाया। अब कभी दिल नहीं दुखाऊँगा तुम्हारा। भगवान तुम्हें सलामत रखे। और हमारे इस पावन रिश्ते को भी।'

आँखें भर आयीं, पर वह किसी तरह खुद को सम्हाले रहा। लेकिन कॉलेज कैम्पस पहुँचते ही उसके सब्र का बाँध अचानक फूट पड़ा। हर जगह जैसे लगता, पल्लवी बदहवास भागी चली आ रही है। कुछ पल वह वहीं हॉस्टल गेट पर निढाल बैठा रहा।

कहाँ जा रहा है वह? एक समय था जब पल्लवी से दूरी बढ़ाने की सोची थी उसने। लेकिन आज है कि उससे ज्यादा पल्लवी के करीब कोई है ही नहीं। क्या भविष्य होगा इस रिश्ते का? इसी उधेड़बुन में फँसे ध्रुव ने हॉस्टल से अपना सामान लिया और बस अड्डे पहुँच कर देहरादून जाने वाली बस में बैठ गया।

कितने अजीब होते हैं ये दिल के रिश्ते भी! ये जितना गुदगुदाते हैं, उतना ही रुलाते भी हैं। पल्लवी ने तो सोचा भी नहीं था, कभी ऐसा भी हो सकता है। गेट बन्द करते ही उसे लगा, जैसे कोई उसका सबकुछ छीन ले गया हो। अन्दर ऐसी बेचैनी, जैसे सबकुछ निचोड़ देगी अभी।

उसने चुपके से अन्दर प्रवेश किया, माँ रसोई में थी। उसके सवाल का जवाब दिये बगैर वह अपने कमरे में चली गयी। और दरवाजा बन्द कर लिया। बेटी को कमरे में ही बन्द हुए काफी देर हो गयी तो माँ आयी।

"पल्लवी क्या तुझे खाना नहीं खाना बेटे?" माँ ने दरवाजा खटखटाया, तो उसने झट घड़ी की ओर देखा, दस बज चुके थे। अब तक ध्रुव बस में बैठ गया होगा। उसने ठंडी आह भरी।

"बोल क्यों नहीं रही बेटा?" माँ ने फिर खटखटाया।

"भूख नहीं है माँ। पार्टी में ही बहुत कुछ खा लिया।" अन्दर से ही उसने जवाब दिया।

खाने की मेज पर पल्लवी को न देख रमाकान्त ने पार्वती से सवाल किया, "क्यों वह खाना खाने नहीं आ रही क्या?"

"वह पार्टी में गयी थी। वहीं खा लिया।"

"कौन सी पार्टी?"

"वह लड़का ध्रुव है न। आपसे मिलने भी आया था यहाँ। सी.डी.एस. में निकल गया है। उसी की विदाई थी आज।"

ध्रुव का नाम सुनते ही रमाकान्त के मुँह का जैसे जायका ही बिगड़ गया. "ये निकम्मा भी इसका पीछा नहीं छोड़ेगा। पर दूसरे को क्या कहें, जब अपने ही ठीक न हों। चलो अब तो छूटा पीछा।" उन्होंने ऐसी राहत की साँस ली, मानो बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो सर से।

अगले दिन पल्लवी कॉलेज गयी तो लगा चारों ओर जैसे वीरानी पसरी है। ऐसा नहीं था कि ध्रुव कभी छुट्टी न गया हो या पल्लवी को वह रोज मिले बगैर न रहता हो, लेकिन एक आस होती, उम्मीद होती चलो, आ ही जाएगा।

लेकिन अब तो कोई आस नहीं, कोई उम्मीद नहीं। ध्रुव कॉलेज हमेशा के लिए छोड़ चुका है।

कामिनी पल्लवी की मन:स्थिति समझ रही थी। कैसे सान्त्वना दे, वह समझ नहीं पा रही थी।

"ध्रुव ने आज आई.एम.ए. ज्वाइन कर लिया होगा। कितना खुश होगा न आज वह अपना, हम सब लोगों का सपना साकार होता देख।" कामिनी उसे हर सम्भव सामान्य करने की कोशिश में लगी थी, पर फिर भी वह उसकी उदासी दूर न कर पायी।

कॉलेज से लौट फिर पल्लवी अपने कमरे में बन्द हो गयी। क्या करे! उसने डायरी निकाल ली। ध्रुव द्वारा रचित कविता थी उसमें।

तुम ही तो मेरे जीवन के,

घोर तिमिर को हरती हो,

श्वास-श्वास में दिखती हो तुम,

मूक प्रेरणा भरती हो।

घोर निराशा के मेघों में,

इन्द्रधनुष-सी खिलती हो,

कंकड़-पत्थर काँटों में क्या,

निपट निशा में मिलती हो।

जब-जब भी निष्प्राण हुआ तन,

तभी समायी तन-मन में,

नभ-गंगा-सी दिखती हो तुम

अन्तहीन जग के तम में।

सिहरन पैदा होती पल-पल

सागर जब हिचकोले भरता,

झूम-झूम-सी जाती धरती,

अम्बर जब मधु-वर्षा करता।

षड्ऋतु हो, वर्षा या गरमी,

मन में हिम सी गलती हो,

बहें छन्द, अम्बर गूंजे तब,

संग-संग तुम जब चलती हो...।

ध्रुव की इन पंक्तियों में कहीं स्वयं को ढूँढ़ने लगी पल्लवी।

सोलह

भारतीय सैन्य अकादमी देखकर अभिभूत ध्रुव एक पल के लिए वहीं अवाक् खड़ा रह गया। उसकी कल्पना से परे, यह उसके सपनों का लोक आज साक्षात् रूप में उसके सामने था। किसी तेजस्वी-सा तेज बिखेरती भव्य इमारत और जोश का जज्बा भरता परिसर देखकर मन मयूर नाच उठता, इससे पहले ही ध्रुव की आँखें भर आयीं।

"यह सब तुम्हारी ही बदौलत हुआ है पल्लवी। तुम न होतीं, तो आज मैं भी यहाँ नहीं होता।"

और फिर ईष्ट देव का काफी दिली आभार जताया उसने। परिसर की धूल माथे से लगायी और जरूरी औपचारिकताएं पूरी करने स्वागत-कक्ष की ओर चल दिया।

नयी जगह, नये लोग और बिल्कुल नया माहौल। पर जल्द ही ये सारी दूरियाँ मिट गयीं। सब आपस में ऐसे हिलमिल गये कि कोई कह नहीं सकता, ये सब कल ही नये-नये मिले हैं। कोई पूरब का, कोई पश्चिम का तो कोई उत्तर से तो कोई दक्षिण से। पर सब गुलदस्ते की तरह आपस में गुँथ गये।

एक सप्ताह के अन्दर ही ध्रुव का मन अकादमी की गतिविधियों में रम गया। शुरू में परेशानियाँ जरूर आयीं, लेकिन दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर वह नयी परिस्थितियों से सामंजस्य बिठाने में सफल हो गया।

बड़ा ही कठोर अनुशासन था अकादमी का। रविवार और छुट्टी वाले दिन ही बाहर निकलने की अनुमति मिलती। पहले सप्ताह अतिव्यस्तता के कारण ध व को पत्र लिखने का समय ही नहीं मिल पाया। पर यह कोई बात नहीं। ध्रुव को अपनी इस भूल का अहसास हुआ। क्या गुजर रही होगी पल्लवी पर। उस बेचारी का मेरे यहाँ आते समय क्या हाल था। और फिर उधर गाँव में माता-पिता भी पत्र की प्रतीक्षा में होंगे।

एकान्त में जाकर बैठ गया वह चिट्ठी लिखने। माता-पिता को अपनी कुशल-क्षेम लिखी तो पल्लवी को दिली आभार के साथ-साथ अकादमी की गौरवशाली परम्परा और अपनी दिनचर्या भी लिख डाली।

ध्रुव को गये दस दिन हो चुके थे। पल्लवी रोज नोटिस बोर्ड पर लगे पत्रों को देखने जाती। शायद ध्रुव का कोई पत्र हो, पर निराश लौट आती। भूल गया क्या वह उसे? नहीं-नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? व्यस्त होगा, अभी तो जमजमाव में ही लगा होगा।

अपने आप ही सवाल, और अपने आप ही जवाब। पागलों-सी हालत हो गयी थी उसकी।

"पल्लवी तेरा पत्र आया है। मेज पर रखा है।" कॉलेज से वह ज्यों ही घर पहुँची तो बाहर ही माँ ने यह खुश खबरी उसे दी। माँ की ओर देखा-निर्विकार चेहरा। बेटी की खुशी से गद्गद। पल्लवी दौड़कर कमरे में गयी, दरवाजा बन्द किया और पत्र को हाथ में लेकर खुशी से झूम उठी। वही सुन्दर, प्यारी लिखावट, वही एहसास- अचानक पल्लवी की धड़कन बढ़ गयी। एक ही साँस में पूरा पत्र पढ़ डाला उसने।

"मेरा आज एक बड़ा सपना पूरा हो गया है पल्लवी! तुम्हारा योगदान मैं जीवनभर नहीं भूल पाऊँगा। अब तुम भी अपना लक्ष्य निर्धारित करो और उसी पर ध्यान दो।" ध्रुव की इस कृतज्ञता और आत्मीयता भरे पत्र ने पल्लवी के रोम-रोम में थिरकन पैदा कर दी।

एक, दो और न जाने कितनी बार पल्लवी ने ध्रुव के पत्र को पढ़ा। अब तो उसमें लिखा एक-एक शब्द जैसे कंठस्थ हो गया था उसे।

मुर्दा पड़े जिस्म में जैसे जान आ गयी। मन आज कुलाँचे भरने को कर रहा था। क्यों न इस खुशी को कागज में उतार लूँ। उतावली पल्लवी झट जवाब लिखने बैठ गयी। 'प्रिय ध्रुव/प्यारे ध्रुव.... मेरे आदर्श ध्रुव..।' पत्र की शुरुआत में ही उलझ गयी वह। कहीं वह अन्यथा न ले ले, कई पन्ने लिखकर फाड़ डाले उसने।

उसकी पुरजोर कोशिश रहती, कोई भी चीज उसकी ध्रुव को हल्की न लगे। वह उसके मनोभावों का पूरा खयाल रखती। अन्ततः बहुत सोच-विचार कर उसने लिखा, 'ध्रुव! तुम्हारा पत्र मिला।' फिर अपनी कुशल और कॉलेज की बातें। साथ ही उसकी भावनाओं का सम्मान करते हुए वह अपने भविष्य के प्रति गम्भीर होने की बात लिखना नहीं भूली। और फिर करीने से पत्र बन्द कर उस पर पता लिखा और सहेजकर बैग में रख लिया।

अगले दिन पल्लवी को सुबह-सुबह अपने घर पर देख कामिनी सारा राज समझ गयी, लेकिन बोली कुछ नहीं। मन ही मन सोचा पल्लवी अपने आप बताएगी।

उधर पल्लवी उतावली हो रही थी कामिनी पूछती क्यों नहीं? कैसे बताएँ वह अपने आप। कामिनी सबकुछ जान रही थी, पर वह जानबूझकर चुप थी।

"ध्रुव का पत्र आया है।" पल्लवी से रहा नहीं गया तो उसने खुद ही पहल कर दी।

"मुझे पता है।"

"कैसे?"

"तेरा चेहरा देख कर। आईना देख जरा, तुझे भी पता लग जाएगा।" उसने चुटकी ली। पर पल्लवी को खुश देख वह भी खुश थी आज।

पल्लवी की यह खुशी पार्वती से भी छुपी नहीं रही। वह कुछ कहती, इससे पहले ही वह बोल पड़ी, "ध्रुव का पत्र आया है, उसने आई.एम.ए. में प्रवेश ले लिया है।"

पार्वती मन-ही-मन खुश हुई। ध्रुव उसे भी पहली बार में ही बहुत भला लड़का लगा था। आजकल के लड़कों जैसी उच्छृखलता नहीं थी उसमें, लेकिन वह यह सोचकर घबरा जाती कि रमाकान्त को उसका पल्लवी से मिलना-जुलना बिल्कुल पसन्द नहीं था। इसलिए कल से पल्लवी के चेहरे पर आयी रौनक माँ के दिल में चिन्ता भी बढ़ा रही थी।

पत्रों का आदान-प्रदान आरम्भ हुआ, तो फिर कभी समाप्त न हुआ। ध्रुव बीच-बीच में अपनी रचनाएँ भी पल्लवी को भेज दिया करता। एक पत्र में ध्रुव ने लिखा था-

सबकुछ देना मुझे प्रिये!

पर इतना प्यार कभी मत देना।

खो जाऊँ मैं तुममें इतना

भूल जाऊँ जग का दु:ख लेना।

पत्र में ध्रुव की यह रचना पढ़ी तो पल्लवी का मन अजीब-सी उधेड़बुन में घिर गया। कहीं वह ध्रुव की राह का काँटा तो नहीं? कहीं वह उसे भटका तो नहीं रही? हो न हो, इसीलिए ध्रुव ने यह रचना लिखी होगी। क्या कहे वह ध्रुव से कि वह उसकी राह का कंटक नहीं, बल्कि उसका सम्बल बनना चाहती

मन के तार गहरे जुड़े हों तो एक-दूसरे की कथा बिना कहे ही समझ में आ जाती है। ध्रुव भी समझ गया था, इसलिए पल्लवी के उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर ही उसने अगला पत्र पल्लवी को भेज दिया। पत्र पढ़ते ही पल्लवी का मन प्रफुल्लित हो गया।

उधर, पोस्टमैन को अपने घर की ओर आते देखा तो सुमित्रा समझ गयी कि पत्र आया होगा। ध्रुव को गये बीस दिन हो चुके थे, पर अभी तक उसने पत्र क्यों नहीं भेजा होगा- चिन्तित सुमित्रा रोज उसके पत्र की राह देखती। क्या पता वही आलस तो नहीं कर रहा! वह रोज पड़ोस के गाँव स्थित डाकघर जाने वालों से भी पता कर आने को कहती।

"शायद आ गयी चिट्ठी।" डाकिए को देख बाहर बर्तन माँज रही सुमित्रा हाथ धोकर पल्लू से पोंछते हुए झट उठ खड़ी हुई। चिट्ठी पकड़ते ही उसकी आँखें भर आयीं। आज पहली बार उसे अपने अनपढ़ होने पर अफसोस हुआ।

"काश! दो अक्षर पढ़ना जानती होती तो अभी पढ़ लेती कि क्या लिखा है बेटे ने।" श्रवण से पढ़वाने को जैसे ही वह मुड़ी सामने कल्याण सिंह आते दिख गये।

"सुनते हो! ध्रुव की चिट्ठी आयी है। पढ़के सुनाओ तो।" कल्याण सिंह अभी आँगन में कदम भी नहीं रख पाए थे कि दौड़ी-दौड़ी आयी सुमित्रा ने उन्हें चिट्ठी थमा दी।

कल्याण सिंह की थकान स्वतः दूर हो गयी। वह पत्र पढ़ने लगे। सुमित्रा पति पर टकटकी लगाए सुनती गयी।

"पूजनीय पिता जी और माता जी, सादर चरण स्पर्श।"

"चिरंजीव रह बेटा। भगवान तुझे खुश रखे।" सुमित्रा बीच में ही बोल पड़ी, तो कल्याण सिंह ने टोका, "चुप कर, पूरी चिट्ठी पढ़ने तो दे।"

"ठीक है, ठीक है। जल्दी पढ़ो।" पत्र पूरा हुआ तो झट उठ खड़ी हुई।

"लाओ, श्रवण से मैं जवाब लिखवा देती हूँ इसका।" यह कहकर वह कल्याण सिंह के हाथ से पत्र लेकर श्रवण के पास चली गयी।

कल्याण सिंह अक्षर मिला-मिला कर पढ़ तो लेते, लेकिन लिखना नहीं जानते थे। जानते भी कैसे, कभी स्कूल का मुँह तक तो देखा नहीं और न कभी जरूरत ही पड़ी। ध्रुव कॉलेज में था तो महीने में वह गाँव चक्कर लगा ही लेता था। वरना आते-जाते लोगों से कुशलक्षेम मिल जाती थी। आज वह दूर चला गया तो आयी है यह नौबत।

भोजन का समय हो चुका था, लेकिन सुमित्रा ने जब तक श्रवण से पत्र का जवाब न लिखवा लिया, उसे चैन न पड़ा। जाते हुए ध्रुव कुछ अन्तर्देशीय पत्र घर पर रख गया था।

"इसे कल ही डाकघर जाकर दे आना। भूलना नहीं।" सुमित्रा ने पत्र कल्याण सिंह के हाथ में देते हुए हिदायत दी।

डेढ़ महीने बाद ही मनीऑर्डर भी आ गया। डाकिए ने सामने ही एक-एक नोट गिनकर पूरे पाँच हजार रुपये सुमित्रा की ओर बढ़ाए तो उस बेचारी के हाथ कँपकँपा उठे। कहीं कोई गलती तो नहीं हो गयी डाकिए से कि सारे नोट गिनकर उसे ही थमाये जा रहा है। जिन्दगी में पहली बार देखे थे उसने इतने सारे नोट।

सुमित्रा कुछ देर वहीं खड़ी नोटों को देखती रह गयी। "और नोटों से बड़े कैसे नोट हैं ये और रंग भी अलग।" सुमित्रा ने पाँच सौ का नोट तो कभी देखा ही नहीं था। पैसे लेकर श्रवण के पास बैठ गयी।

"गिन तो कितने हैं?" डाकिया गिन तो गया था, लेकिन मन की उत्सुकता उसे फिर गिनवाने के लिए जोर मार रही थी।

श्रवण ने उलट-पलट कर देखा। फिर गिना।

"माँ पाँच-पाँच सौ के दस नोट हैं।" फिर उँगलियों में हिसाब लगाते हुए बोला।

"कुल पाँच हजार।"

"पाँच हजार!" धुएँ से धीरे-धीरे सिकुड़ गयी सुमित्रा की आँखें अचानक फैल गयीं। कहाँ रखे इन पैसों को! कोई ढंग का बक्सा भी नहीं उसके पास। फिर अपने कमरे में जा टूटा-फूटा बक्सा खोला और अपनी धोती के पाटों के बीच छिपा कर रख आयी उन्हें।

"ध्रुव ने पाँच हजार रुपए भेजे हैं।" यह सुनकर कल्याण सिंह भी हक्के-बक्के रह गये।

"सुन रहे हो।" सुमित्रा की दोबारा आवाज आयी, तो हड़बड़ाकर बोले, "क्या! पागल तो नहीं हो गयी तू? पता है कितने होते हैं पाँच हजार?" कल्याण सिंह ने थोड़ा झिझक कर सुमित्रा का उपहास उड़ाते हुए कहा।

"हाँ पता है। श्रवण ने गिने भी थे। क्यों श्रवण, मैं ठीक कह रही हूँ न!"

"हाँ पिताजी, पाँच-पाँच सौ के दस नोट हैं।" श्रवण ने भी चहकते हुए माँ की हाँ में हाँ मिलायी।

"कहाँ से भेजे होंगे ध्रुव ने? इतनी तनख्वाह मिलती है क्या उसे?" हैरत में खुद से ही सवाल करते कल्याण सिंह सोच में पड़ गये।

"सारा पैसा घर ही भेज देगा तो खुद क्या खाएगा!" फिर यह चिन्ता भी उन्हें सालने लगी।

और अगले ही दिन उन्होंने अपनी कमाई अपने ऊपर भी खर्च करने और अपना ध्यान रखने की हिदायत के साथ लम्बी-चौडी उपदेशात्मक चिट्ठी श्रवण से ध्रुव के लिए लिखवा डाली।

ध्रुव को पत्र मिला तो पिता की सरलता देख उसका दिल भर आया। कितने भोले हैं ये! उन्हें तो यह भी अनुमान नहीं कि उनके बेटे को कितना वेतन मिल रहा है।

वह जानते भी कैसे! दूर-दराज गाँवों में तो आज भी दूसरे के खेतों में हल चलाने या मेहनत करने पर, काम के बदले अनाज देने की प्रथा ही ज्यादा है। सो कभी-कभार ही कहीं से अनुनय-विनय या फिर विशेष अनुकम्पा पर ही पैसे मिल पाते हैं। इससे घर के अन्य खर्च बड़ी मुश्किल से चल पाते हैं।

यूँ तो सरकार ने न्यूनतम मजदूरी कानून बनाया है, लेकिन सुदूरवर्ती पिछड़े इलाकों में न तो इस बारे में जानकारी है, न मुँह खोलने की हिम्मत। और फिर रोजगार के भी सीमित साधन हैं, लिहाजा पेट पालने के लिए समझौता तो करना ही पड़ता है।

इन्हीं सब चीजों ने समय से पहले परिपक्व बना दिया ध्रुव को। अब पैसे बचाने की चिन्ता भी सताने लगी उसे। श्रवण के इलाज-पानी से लेकर गाँव के मकान की मरम्मत और घर में जरूरी सामान आदि सारी व्यवस्थाएँ तो उसे ही करनी थीं। माँ-बाप को अब जाकर वह कुछ सुख देने लायक बन पाया था। इसलिए ट्रेनिंग में भी अब उसने पूरी ताकत झोंक दी थी।

सत्रह

किसी तरह सुबह छह बज गये, तो पल्लवी बिस्तर छोड़ उठ खड़ी हुई। बाहर हालाँकि अभी भी झमाझम बारिश हो रही थी और अँधेरा भी काफी घिरा था, लेकिन इस बेचैनी में वह कब तक यूँ ही करवट बदलती रहती।

पल्लवी ने चाय बनाकर दी तो कल्याण सिंह और सुमित्रा भी उठ खड़े

"माँ! यहाँ ऐसे ही बारिश होती है क्या?"

ससुराल में यह पल्लवी की पहली बरसात थी। बारिश कल से रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। ऐसे में कोई अपने नित्यप्रति के काम भी कैसे निपटाये!

"हाँ बेटी! बारिश तो होती ही है यहाँ ऐसी, लेकिन आज तो गजब ही हो गया है। ऐसा अन्धड-पानी कभी नहीं देखा।"

"तो ऐसे में काम कैसे हो पाता है?"

"गाँव के लोगों के लिए बेटा, क्या बारिश-क्या धूप! भीगते-भीगते ही लगे रहते हैं काम में और काम करते-करते ही सूख भी जाते हैं। करेंगे नहीं तो खाएँगे भी क्या!" सुमित्रा को याद हो आया, पहले कितना पानी टपका करता था छत से। जितना बाहर, उतना ही भीतर। एक सूखे कोने में खाना बनता और दूसरे सूखे कोने में चारों लोग हाथ-पैर सिकोड़ कर सो जाते। जगह-जगह बरतन रख कर घर को गीला होने से बचाने की जुगत की जाती, लेकिन टपकने वाली जगहें ज्यादा थीं और बरतन कम।

अब तो सारा मकान पक्का करवा दिया था ध्रुव ने। माँ की गाय पालने की जिद थी तो घर से कुछ दूर स्थित छोटे से खेत में गोशाला भी बनवा दी थी।

"बेटा सारे जीवन काम किया। तीन-तीन, चार-चार भैंस पाले। लेकिन अब एक गाय तो पालने दे। तुम सबको अपने घर का घी-दूध मिल जाएगा।"

ध्रुव चाहता तो नहीं था कि माँ फिर इस झंझट में पड़े, लेकिन उसकी यह इच्छा वह टाल न पाया।

"कितने सुख दे दिए हैं ध्रुव ने हम सबको और अपने आप न जाने कहाँ हैं। इतने दिनों से कोई खबर भी नहीं?" सुमित्रा का गला भर आया।

"आज तो मौसम इतना खराब है कि रेडियो भी नहीं लग रहा।" बहुत देर से समाचार सुनने का प्रयास कर रही थी पल्लवी लेकिन आकाश में कड़क रही बिजली और मेघ गर्जना से रेडियो सुनना दूभर हो रहा था। मजबूर होकर उसने रेडियो बन्द कर दिया।

बेकाबू हो चली मन की उद्विग्नता अब व्यवहार में भी दिखाई देने लगी तो दिन के भोजन के उपरान्त वह खेतों की ओर टहलने निकल गयी।

कल्याण सिंह भी घर का सामान लाने के लिए डॉलूडांडा बाजार की ओर निकल गये। घर में रह गये सिर्फ सुमित्रा और श्रवण। सुमित्रा थोड़ी देर आराम करने लगी तो श्रवण भी लेट गया।

अपनी ही धुन में खोई पल्लवी पास ही खेतों में चल रही धान की रोपाई देखकर मन बहलाने की कोशिश करने लगी। रात से बरस रहा आकाश अब कुछ शान्त था, लेकिन बादलों ने सूर्य की किरणों को अभी तक रास्ता नहीं दिया था।

अचानक पल्लवी ने देखा कुछ लोग उसी तरफ आ रहे हैं।

"वेश-भूषा और बातचीत से गाँव के तो नहीं लग रहे। कहाँ जा रहे होंगे?

मन इसी द्वन्द्व में फंसा था कि उनमें से एक ने आवाज दी, "सुनिए।" वह ठिठक गयी।

"कैप्टन ध्रुव के घर का रास्ता बता सकती हैं आप?" उनमें से एक ने पहल कर झिझकते हुए पूछा।

क्यों पूछ रहे हैं ये ध्रुव का घर? मन संशय से भर गया।

"आप लोग...?"

"हम जिला मुख्यालय से आए हैं। एक जरूरी सूचना देनी है, उनके घर।"

पल्लवी के पाँव से सर तक जैसे अनगिनत चींटियाँ रेंगने लगीं। क्या खबर होगी ऐसी! मन बेचैन हो उठा। वह उनका चेहरा पढ़ने की कोशिश करने लगी। अन्दर कँपकँपी छूट गयी। रहा न गया तो बोल पड़ी, "आप मुझे ही बता दीजिए। मैं उनकी पत्नी हैं, पल्लवी।"

यह सुनते ही उन्हें जैसे साँप सूंघ गया। कुछ पल के लिए नीरव सन्नाटा पसर गया। वह एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। कौन करे पहल!

"आप घर चलें हमारे साथ। वहीं बात कर लेंगे।" उनमें से उम्रदराज सज्जन . ने किसी तरह बात सँभाली। पर चेहरे के भाव साफ जतला रहे थे कि वे कुछ भी कहने में असमर्थ हैं।

पल्लवी का माथा ठनका। सुबह का दुःस्वप्न उसके दिमाग में कौंध गया। कुछ तो है जिसे ये सब छुपा रहे हैं। उसकी अन्तरात्मा अनिष्ट की आहट भाँप चुकी थी।

"आप बताइए तो सही। ध्रुव ठीक तो हैं।"

उसकी जिद देख बड़े धर्मसंकट में पड़ गये सभी। छुई-मुई-सी बाला। ऊपर से विपत्ति का यह पहाड़। अभी तो हाथों से मेहँदी भी नहीं उतरी। कैसे कह दें कि वह तुम्हें छोड़कर चला गया है! क्या बीतेगी इस फूल सी बच्ची पर! उससे अब नजरें मिलाने तक की हिम्मत नहीं थी उनकी।

खैर, जैसे-तैसे घर पहुँच गये। लेकिन सवाल जस का तस वहीं था। यहाँ भी थोड़ी देर चुप्पी पसरी रही। सुमित्रा घर पर नहीं थी और श्रवण अन्दर सो रहा था।

"अब तो बताइए क्या बात है?" व्यग्र पल्लवी ने ही सन्नाटा तोड़ा। आखिर कब तक टालते वो भी। वहीं उम्रदराज सज्जन आगे आये और रुंधे गले से बोले, "बेटी, ध्रुव..ऽ..ऽ..ऽ....।"

सुनते ही पल्लवी अचेतावस्था में चली गयी। वह जहाँ खड़ी थी, वहीं दीवाल से सटी धम्म-से लुढ़क पड़ी।

"अरे! संभालिये अपने आप को।" उनमें से एक ने झट पानी का गिलास उसके मुँह से लगा दिया।

"घर के और लोग कहाँ हैं? ध्रुव के माता-पिता वगैरह!" पानी के छींटे मुँह पर मारने के बाद पितृवत् स्नेह से वह उम्रदराज सज्जन बोले।

होश में लौटी पल्लवी कुछ बोलती, इससे पहले ही ध्रुव के माता-पिता की तस्वीर उसकी आँखों में घूमने लगी। क्या बीतेगी उन पर! कैसे बता पाएगी वह उन्हें कि उनकी आँखों का तारा, उनके जिगर का टुकड़ा शहीद हो गया! अपने प्राणों की आहुति दे दी उसने। अपने फौजी होने का फर्ज निभा दिया। किसी तरह अपने को सँभालते हुए बोली, "बाहर गये हैं।" पल्लवी चाहती थी कि उनके आने से पहले ये लोग चले जाएँ। वो किसी तरह से सँभाल लेगी उन्हें।

मन मजबूत कर वह आगे बोले, "ध्रुव का शव दो दिन बाद ही गाँव पहुँच पाएगा। राजकीय सम्मान के साथ उसका अन्तिम संस्कार होगा।" ...और भी न जाने क्या-क्या। पल्ल्वी ने कुछ सुना, कुछ नहीं।

उनके जाते ही वह अपने कमरे में जो पर्लंग पर धड़ाम जा गिरी और फूट-फूटकर रोने लगी। इस स्थिति में भी दरवाजे की चिटकनी लगाना नहीं भूली थी वह।

मन का आवेग आँखों के रास्ते बह निकला। ध्रुव नहीं रहा। दिल स्वीकार करने को तैयार नहीं था। ध्रुव के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकती पल्लवी।

"ध्रुव मुझे अकेले क्यों छोड़ दिया तुमने? जानते थे कि तुम्हारे बिना मैं नहीं रह पाऊँगी।" एकान्त में पल्लवी का विलाप सुनने वाला कोई नहीं था।

उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था कि जिस ध्रुव के साथ उसने जीने-मरने की कसमें खाई थी, आज वही उसे यूँ ही अकेला छोड़ कर चला गया! क्या करे अब वह? मन अधिक बेचैन हुआ तो उठ कर कमरे में टहलने लगी।

सूटकेस टटोला, ध्रुव के पत्र निकाल लिए। आँसुओं से भरी आँखें। उन्हें पढ़ तो नहीं पायी, लेकिन उन्हें छूकर ध्रुव का एहसास जरूर हो आया। उन्हें सीने से लगाकर न जाने कितनी देर रोती रही वह।

बाहर खटर-पटर की आवाज हुई। माँ आ गयी शायद। वही थीं। पल्लवी बाहर निकल आयी।

"तेरी आँखों को क्या हुआ बेटी? देखो तो कैसी लाल हो रही हैं।" पल्लवी के मन की दशा को सुमित्रा जान नहीं पायीं।

इधर पल्लवी भी क्या कहे? कैसा बज्र गिरा है उन पर। कैसे सहन कर पाएँगी वह इस आघात को। छुपा भी नहीं सकती और बताने की हिम्मत भी नहीं।

"कल रात ढंग से नींद नहीं आयी, इसलिए आँखें लाल हो गयी होंगी माँ"

मन की अथाह पीड़ा को किसी तरह अन्दर दबा कर वह बोली। "मैं दूध दुह लाती हूँ। श्रवण अभी तक सो रहा है। उसे उठा दे।" यह कहकर सुमित्रा गोशाला की ओर चल दीं।

अठारह

"मेरा तो मन ही भर आया उस लड़की को देखकर। अभी उम्र ही क्या है उसकी।"

"लेकिन हिम्मती है। इस उम्र में विधवा होने की खबर सुन कर भी होश नहीं खोया उसने।"

डॉलूडांडा से लौट रहे कल्याण सिंह के कानों में उड़ते-उड़ते ये शब्द पड़े तो उनके कान खड़े हो गये। सरकारी लोग लगते हैं। शहर से आये हैं शायद।

"किसकी बात कर रहे होंगे ये? कौन हो गयी विधवा? आ तो हमारे ही गाँव की तरफ से रहे हैं, ये लोग।" चिन्ता भरी आशंका लिए रुक गये कल्याण सिंह।

"बेचारे कैप्टन के माता-पिता भी नहीं थे घर पर। पता नहीं क्या बीतेगी उन पर! ऐसी सूचना देना बहुत बुरा लगता है।"

"कैप्टन! एक ही तो कैप्टन है इस गाँव में। यहाँ तक कि आस-पास के गाँव में भी कोई कैप्टन नहीं, कहीं ध्रुव तो...! नहीं-नहीं ऐसा नहीं हो सकता।" थरथरा उठे कल्याण सिंह।

"क्या कोई बुरी खबर है?" पास जाकर किसी तरह पूछने की हिम्मत जुटा ही ली उन्होंने। सामने खड़े आदमी की पहचान से अनजान उन लोगों ने सबकुछ साफ-साफ बयाँ कर दिया।

कल्याण सिंह के जैसे आँखों के आगे अँधेरा छा गया। वह वहीं जमीन पर बैठ गये। फिर किसी तरह ताकत बटोरते हुए फालिज-सी मार गये, कँपकँपाते हाथों को उन्होंने आपस में जोड़कर ऊपर आकाश की ओर देखा और फूट-फूटकर रो पड़े, "हे भगवान! ये कबकी सजा दे दी तूने! बेटे को उठाने से पहले मुझे ही उठा लिया होता। क्या मेरी दो दिन की खुशी भी तुझ से बर्दाश्त नहीं हुई।"

फिर अपनी किस्मत को कोसने लगे वहा सहसा उन्हें पल्लवी का ध्यान आ गया।

"उसको बताकर आये होंगे शायद ये लोग। क्या बीत रही होगी, उस मासूम पर। और सुमित्रा! उस बेचारी का तो और बुरा हाल होगा। कोहराम मचा होगा घर में।"

लेकिन घर पहुँच कर अप्रत्याशित शान्ति देखी तो माथा उनका ठनका। कोई और अनहोनी तो नहीं घट गयी! घर के अन्दर प्रवेश करते ही पल्लवी पर निगाह पड़ी। आँखें सूज कर लाल हो गयी थी उसकी। कल्याण सिंह का मन भर आया। फूल जैसी बच्ची, अभी देखा ही क्या है इसने जीवन में! तीन-चार माह भी नहीं हुए अभी तो विवाह को।

पल्लवी ने कल्याण सिंह के हाथ से सामान लिया और अन्दर चली गयी। कल्याण सिंह समझ गये कि पल्लवी को सब पता है। उनका दिल न दुखे इसलिए वह चुप है। बस किसी तरह अपने को सँभाले हुए थे वह।

थोड़ी ही देर में सुमित्रा भी आ गयी।

"पल्लवी चाय का पानी रख दो।" दूध की बाल्टी रखकर सुमित्रा कल्याण सिंह के पास बैठ गयी।

"रहने दे बेटी, मेरा मन नहीं है चाय पीने का।"

"अरे तुम्हारा मन नहीं है, तो हम तो पियेंगे, क्यों बेटी!"

"मत जलाओ चूल्हा। आज चूल्हा नहीं जलेगा।" कल्याण सिंह जैसे भारी पीड़ा से कराह उठे और फिर उन्होंने मुँह फेर लिया।

पल्लवी समझ गयी कि कल्याण सिंह को यह बुरी खबर मिल चुकी है। लेकिन सुमित्रा की समझ में कुछ भी नहीं आया।

पहाड़ में किसी भी समय चूल्हा न जलाना घोर अपशकुन माना जाता है। घोर दरिद्रता में भी कभी कोई बिना मुँह जूठा किए सो गया हो, ऐसा नहीं हुआ। फिर आज पति के मुँह से ऐसी अपशकुनी बातें क्यों!

"कैसी बातें कर रहे हो…" सुमित्रा ने पूछना चाहा, लेकिन पति की आँखों में आँसू देख सहम गयी वह।

"क्या हुआ?" "ध्रुव..ऽ..ऽ...."

...और एक दर्दनाक चीख वातावरण में गूँज उठी।

शाम होते-होते पूरा गाँव उनके घर उमड़ आया। कुछ लोगों को गाँव से बाहर ही पता चल गया था तो बाकी लोगों को अन्य लोगों से।

सुमित्रा अचेत पड़ी थी तो पल्लवी और श्रवण के आँसू नहीं थम रहे थे। एक कल्याण सिंह ही थे, जो इस घड़ी में भी हिम्मत बाँधे हुए थे।

ध्रुव अपने व्यवहार से गाँव में ही नहीं, बल्कि आसपास के पूरे इलाके का चहेता था। शाम होने तक आसपास के क्षेत्र से बहुत सारे लोग सान्त्वना देने आ पहुँचे थे। अन्दर-बाहर लोगों का जमावड़ा लगा था। महिलाओं के तो आँसू ही नहीं थम रहे थे।

ऐसी भीड़ घर में दूसरी बार हो रही थी। उन्हें याद है वह दिन जब ध्रुव कमीशन प्राप्त कर पहली बार गाँव आया था।

"पासिंग आउट परेड में आप सब लोगों को जरूर आना है।" प्रशिक्षण समाप्त होने पर ध्रुव का पत्र मिला तो सुगबुगाहट मची। कैसे जाएँगे सब लोग। कल्याण सिंह ने तो आजतक अपने क्षेत्र से बाहर कदम ही नहीं रखा। खो जाएँगे वो तो शहर की भीड़ में।

इस बात को ध्रुव भी जानता था, इसलिए किशन भैया से आग्रह कर माँ-पिता जी को लाने की जिम्मेदारी भी उन्हें ही सौंप दी थी।

अकादमी स्थित प्रांगण में हुई भव्य परेड को देख कल्याण सिंह भाव-विभोर हो उठे थे- काश, ध्रुव की माँ भी यह सब देख पाती! लेकिन श्रवण को अकेला छोड़ कैसे आ सकती थी वह। पर बाद में घर में बिजली आ जाने पर ध्रुव ने समारोह की रिकॉर्डिंग सुमित्रा को दिखा दी थी।

सर्वश्रेष्ठ कैडेट के लिए जब ध्रुव का नाम पुकारा गया तो कल्याण सिंह और किशन दोनों की आँखें भर आयीं। किशन को लगभग पन्द्रह वर्ष पहले का वह मासूम बच्चा याद आ गया, जो घोर विपरीत परिस्थितियों में भी अपने लिए नहीं, बल्कि देश के लिए कुछ करने का जज्बा रखता था।

परेड समाप्ति के बाद कल्याण सिंह को पत्रकारों ने घेर लिया तो उनकी समझ में नहीं आया कि क्या कहें! सरलता से उनके प्रश्नों का उत्तर दे दिया। अगले दिन सारे अखबार एक ही खबर से रँगे थे- 'गरीब किसान का बेटा सर्वश्रेष्ठ कैडेट।'

प्रथम नियुक्ति पर जाने से पहले ध्रुव कुछ दिन गाँव रहने आया था। डॉलूडांडा बस अड्डे पर बस से उतरते ही यह खबर क्षेत्र में आग की तरह फैल गयी कि ध्रुव आया है। रास्ते से ही बधाई देने वालों का तांता लग गया था। गाँव में ही नहीं, अपितु पूरे क्षेत्र में ध्रुव पहला लड़का था, जिसका चयन सेना में सीधे अधिकारी के पद पर हुआ था।

कल्याण सिंह के लिए अभी तक सेना में भर्ती होने का मतलब सिर्फ सिपाही बनना ही था। किन्तु देहरादून अकादमी के अन्दर और फिर ध्रुव और

किशन की परस्पर बातचीत से उन्हें आभास हो गया था कि बेटा सेना में बड़ा अधिकारी बन गया है।

कन्धे पर बैग लटकाये ध्रुव के कदम तेजी से गाँव की ओर बढ़ रहे थे। गाँव की इन्हीं सीली पगडंडियों पर न जाने कितने पग नापे हैं उसने! बरसात के मौसम में गाड़-गधेरों को पार कर स्कूल पहुँचते हुए अक्सर भीगना और फिर स्वतः ही सूख जाना। कोई छाता नहीं, कोई बरसाती नहीं।

तड़के घर से निकले विद्यार्थियों को जब स्कूल से आते भूख लगती तो पहाड़ी कन्दमूल उनकी क्षुधा शान्त करते। आज उन्हीं हिंसर और किनगोड़ की झाड़ियों को देख ध्रुव के कदम एक बार को रुक गये थे।

ध्रुव के आने की खबर उससे पहले ही गाँव पहुँच गयी थी। दूर से ही ढोल दमाऊँ और मशक बाजे जैसे पारम्परिक वाद्य यन्त्रों की आवाज सुन ध्रुव पिता से पूछ बैठा।

"किसी की शादी है क्या गाँव में?"

"नहीं बेटा, आजकल तो विवाह की तिथियाँ ही नहीं।" पता चला ये लोग ध्रुव के आने का जश्न मना रहे हैं।

घर में लोग तो ध्रुव के स्वागत के लिए खुद ही आ जुटे थे। गाँव वालों का स्नेह देख ध्रुव की आँखें भर आयीं।

शाम तक घर में बधाई देने वालों का तांता लगा रहा। कल्याण सिंह और सुमित्रा कितने खुश थे! वह अपने हाथों ध्रुव की लायी मिठाई से लोगों मुँह मीठा करा रहे थे।

एक वह दिन था और एक आज का यह दिन। उस दिन चारों ओर खुशी का माहौल था तो आज दुःख ने सबकी कमर तोड़ कर रख दी थी। कल्याण सिंह की आँखों से आँसू झरने लगे।

भीड़ में सब लोगों के विचार अच्छे ही हों, ऐसा नहीं होता।

"पता नहीं किस मुहुर्त में शादी हुई थी, आते ही पति को खा गयी।" एक अधेड़ महिला ने फिकरा कसा तो दूसरी ने हाँ में हाँ मिलायी।

अरे, इसका क्या बिगड़ेगा! सुना है सरकार कई लाख देती है, मरने वाले की बीवी को। ये तो चली जाएगी पैसे लेकर। जिसका कुलदीपक बुझ गया उसके क्या हाल होंगे?" बीच से एक अन्य महिला बोली। "अरे थी भी तो अपनी ही पसन्द की शादी। जन्मपत्री भी मिलायी थी या नहीं! अब हो गया ना कलेजा ठण्डा।"

पास ही बैठी कुन्ती के कानों में ये सारी बातें पड़ी तो उसने झट कनखियों से देखा और मन-ही-मन ईश्वर को धन्यवाद दिया कि ये बातें सुमित्रा काकी और पल्लवी के कानों में नहीं पड़ी। वे दोनों काफी दूर बैठी थीं। कैसी औरतें हैं, दुःख की इस घड़ी में भी ऐसी जली-कटी सुनाने से बाज नहीं आती? वह मन-ही-मन बुदबुदायी।

कुन्ती गाँव के रिश्ते से ध्रुव की बहन लगती है। छोटी उम्र में ही ब्याह हो गया। पति के किसी और से सम्बन्ध थे, लेकिन सास-ससुर ने उसी पर लांछन लगाकर खोटे सिक्के-सा वापस भेज दिया था मायके।

हमेशा अपनी दन्त पंक्तियों की ध्वजा-सी फहराती कुन्ती मानो अपने दुर्भाग्य को मात देने के लिए जब-तब खित-से हँस पड़ती। हँसते-हँसते आँखों से पानी निकल आता। दु:ख के आँसू हैं या खुशी के, देखने वाले पता ही न लगा पाते।

पतिगृह से निर्वासित हुए अब तक न जाने कितने बसन्त बीत गये, लेकिन वर्जनाओं की चौखट लाँघने की अनुमति किसी को न दी उसने। माँ तो पहले ही नहीं थी। पिता भी इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाए। कुछ वर्ष बीमार रहे, फिर चल बसे। रह गये कुन्ती और उसके दो छोटे भाई। सिर पर किसी का हाथ न देख मनचलों ने खूब बहकाने की कोशिश की, लेकिन कुन्ती का अडिग चरित्र गाँव भर की मिसाल बन गया।

पड़ोस के गाँव का लड़का एक रात दारू पीकर चौखट पर आ खड़ा हुआ तो कुन्ती ने दराँती निकाल ली। मार ही डालती, लेकिन शोर सुन गाँव के लोग इकट्ठे हो गये।

"इसको मारेगी तो जेल चली जाएगी, कौन पालेगा इन छोटे-छोटे भाइयों को?" गाँव के ही एक बुजुर्ग ने समझाया और उसकी रक्षा की जिम्मेदारी गाँव के लोगों को ही सौंप दी।

पल्लवी ब्याह होकर पहली बार गाँव आयी तो उसका शुरुआती परिचय गाँव की अन्य लड़कियों के साथ-साथ कुन्ती से भी हुआ। जहाँ सब लड़कियाँ उसके पढ़ी-लिखी और शहरी होने के कारण बात करने में झिझक रही थीं, वहीं कुन्ती पटर-पटर बोल उसे गाँव के रीतिरिवाजों और लोगों से परिचित करा रही थी। कुछ ही दिनों में पल्लवी की कुन्ती से अच्छी दोस्ती हो गयी। शहर में पली-बढ़ी उच्च शिक्षित, धनी परिवार से सम्बन्ध रखने के बावजूद अभिमान पल्लवी को छू भी नहीं पाया था। कुछ ही दिनों में उसने गाँव की सभी लड़कियों से मित्रता कर ली थी तो बड़े-बूढों को खूब आदर दे उनकी आँखों में भी समा गयी थी वह।

कल तक तो यही लोग पल्लवी की तारीफ करते न अघाते और आज जब विपत्ति का पहाड़ उसके सिर पर टूट पड़ा तो कुछ पल भी नहीं लगायी इन्होंने पाली बदलने में। कुन्ती का मन वितष्णा से भर उठा। दोनों महिलाएँ अभी भी कुछ न कुछ बोले जा रही थीं, उन जैसी ही कुछ और महिलाएँ इस बकवास में आ जुड़ीं।

कुन्ती को यह सुन सुनकर जब घुटन महसूस होने लगी तो वह उठकर बाहर आ गयी। आखिर महिलाएँ ही महिलाओं की दुश्मन क्यों होती हैं? यह गहरा सवाल उसे भीतर तक हिला गया, पर कोई जवाब नहीं था उसके पास।

अँधेरा गहराने लगा तो धीरे-धीरे भीड़ भी छंटने लगी। आस-पास के गाँवों के लोग अपने घरों को निकले तो अपने गाँव के लोग भी गाय-भैंस बाँधने और घर के अन्य कार्यों को निबटाने चल दिये। घर में रह गये चार प्राणी और साथ में गाँव के ही कुछ बुजुर्गवार।

दोनों भाइयों को खाना खिला कुन्ती थोड़ी ही देर में वापस आ गयी। खुद तो उसका मन पानी का घुट तक पीने को नहीं हो रहा था। पर घर के इन चारों प्राणियों के मुँह में दिन से पानी की एक बूंद तक नहीं गयी, यह चिन्ता उसे बुरी तरह कचोटने लगी। लेकिन कैसे समझाए वह उन्हें? समझाने लायक कुछ बचा था क्या? पल्लवी ने उसकी ओर देखा, दोनों की नजरें मिली और एक बार फिर आँसू बह निकले।

सारी रात आँखों में ही कट गयी। नींद ने तो जैसे नाता ही तोड़ दिया था उनसे। घर के काम-काज निबटा गाँव के अन्य लोग भी साथ बैठ गये थे, नहीं तो पहाड़ में एक रात काटना और भी मुश्किल होता।

अभी तो सीमा से शव आने में ही समय लगेगा। कल शाम तक हेलीकॉप्टर द्वारा जिला मुख्यालय तथा उसके बाद सड़क मार्ग से गाँव आएगा, तभी अन्तिम संस्कार हो पाएगा। तब तक प्रतीक्षा करना ही एक मात्र विकल्प था।

 

 

 

उन्नीस

किशन का अन्तिम संस्कार हुए चार दिन बीत चुके थे। किशन और उसके माता-पिता की इच्छा के अनुसार उसका अन्तिम संस्कार गाँव में ही किया गया तो बिन्दु को गाँव आना ही पड़ा।

रो-रोकर उसका बुरा हाल था। सोनू समझ नहीं पा रहा था कि ऐसा क्या हो गया, जो माँ रोये जा रही है। गाँव पहुँचे तो दादा-दादी का भी वही हाल। उसको अपनी छाती से चिपका दादी इतनी जोर से रोई कि वह तो डर ही गया।

गाँव पहुँचने के अगले दिन ही तिरंगे में लिपटा किशन का शव यहाँ पहुँचा तो सारा गाँव शोक में डूब गया।

"मैं तो पहले ही कहती थी, जितनी मेहनत फौज के लिए कर रहे हो, उतनी कहीं और के लिए करो। आज ये दिन तो न देखना पड़ता।" रोती हुई बिन्दु से सबको सहानुभूति थी, लेकिन उसकी ये बात किसी को अच्छी नहीं लगी।

सेना में जान का जोखिम है, यह जानते हुए भी पहाड़ के गाँवों में इस सेवा के प्रति जुनून कम नहीं हुआ है। हर लड़ाई में यहाँ के रणबांकुरों ने अपने अदम्य शौर्य और साहस का परिचय दिया है और कइयों ने वीरगति पायी है। कई माँओं ने अपने बेटों की बलि चढ़ा दी, तो बहिनों ने अपने भाइयों की और बहुओं ने माँग के सिन्दूर की बलि दी, लेकिन इन सबके बावजूद ऐसी भावना तो कभी मन में आई ही नहीं कि फौजी बनना ठीक नहीं। यही वजह है, आज पहाड़ के लगभग हर परिवार या सगे सम्बन्धियों में कोई न कोई फौजी अवश्य होता है।

किशन की माँ को तो एक-एक वाकया याद आ गया। किशन जब भी घर आता था, उसकी बिन्दु से अक्सर किचकिच ही होती रहती। कभी वह शहर जाने को लेकर तो कभी गाँव में किशन के मित्रों व सम्बन्धियों को लेकर तूफान खडा किए रहती और अन्ततः 'फौज व फौजी' को लेकर कटाक्ष पर उतर आती।

"फौजियों की तो अक्ल ही बन्दूक की नोक पर रहती है। अरे ये भी कोई नौकरी है, इतनी मेहनत कहीं और करते तो आदमी बन जाते। देखते हो लोगों के बच्चे कैसे ठाठ से शहरों में रह रहे हैं! एक हम ही हैं, जो गाँव में सड़ रहे हैं। पर तुम्हें फुर्सत ही कहाँ है बच्चों के लिए।"

चाहता तो किशन भी खरा जवाब दे देता, लेकिन वह घर में क्लेश नहीं चाहता था। इसलिए चुपचाप बाहर खिसक लेता।

अति हो जाती तो माँ ही प्यार से झिड़क देती, "अरे बिन्दु! ये तू नहीं, तेरे भैया-भाभी बोल रहे हैं। अपनी अक्ल से काम ले तू, अपनी अक्ल से।"

दरअसल बिन्दु ही आये दिन अपने भैया-भाभियों से अपना रोना रोती रहती और वही उसे उल्टा-सीधा सिखा-पढ़ा जाते। कहते, इतनी मेहनत किशन किसी प्राइवेट कम्पनी में करता तो तनख्वाह भी अच्छी मिलती और बच्चे भी आराम से शहर में पढ़ लेते।

किशन घर आता तो बिन्दु यही रोना रोने लगती। कभी-कभी जब वह गाँव के अन्य लड़कों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित करता तो वह वहाँ भी टोकने से बाज न आती, "अपनी जिन्दगी तो खराब की ही, अब औरों को भी धकेलो वहीं।"

उसकी यह कटु बातें सुन किशन जहर का पूंट पीकर रह जाता। सोचता कुछ दिन के लिए ही घर आया है। बिन्दु से उलझेगा तो खामखाँ माता-पिता भी परेशान होंगे, यह सोच वह चुप्पी लगा जाता।

और आज वही फौज की नौकरी किशन को लील गयी तो बिन्दु को एक बार फिर इस नौकरी को कोसने का अवसर मिल गया।

गाँव के घाट पर किशन के शव को जब नन्हें सोनू ने मुखाग्नि दी तो सारा वातावरण शोकमय हो गया। स्वयं सोनू भी आग की लपटों से डरकर दादाजी की गोद में दुबक रोने लगा।

अन्तिम संस्कार में शामिल होने आये सरकारी नुमाइन्दों ने घर में पहुँच शहीद की पत्नी के हाथ में राहतं राशि की पहली किश्त के चेक का लिफाफा रखा तो वह एक बार फिर बिलख उठी।

उन्होंने सान्त्वना दी और समझाया। कुछ औपचारिकताएँ पूर्ण करनी होंगी तो फिर पेंशन तथा अन्य राशि भी मिल जाएगी। बिन्दु ने लिफाफा अपने भाई के हाथ में पकड़ा दिया। भाई ने लिफाफा खोलकर देखा और फिर जेब में रख बाहर निकल गया।

तीसरे दिन ही बिन्दु के दोनों भाइयों ने शहर की राह ली।

"काम का हर्जा हो रहा है। छुट्टी भी नहीं हैं इतनी। इसलिए जा रहे हैं। तेरहवीं पर आएँगे तो बिन्दु भी हमारे साथ ही शहर चली जाएगी।" बिन्दु के बड़े भाई ने किशन की माँ से कहा तो वह बेचारी तो कुछ देर जैसे कुछ समझ ही नहीं पायी।

"क्या बेटा! क्या बिन्दु भी चली जाएगी? वह अब यहाँ नहीं रहेगी क्या?"

"यहाँ क्या रखा है। किशन की भी यही इच्छा थी कि उसका बेटा अच्छे स्कूल में पढ़कर बड़ा आदमी बने।"

किशन की माँ को जैसे काटो तो खून नहीं, "क्या कह रहा है ये? क्या रखा है बिन्दु का इस गाँव में? यहीं तो है सब कुछ। इसी गाँव में तो दुल्हन बन कर आयी थी वो। और जिस किशन की दुल्हन बनी थी, उसका तो सब कुछ इसी गाँव में है। बिन्दु की जिद न होती, तो कभी नहीं भेजता वो उसको शहर।"

लेकिन क्या हो सकता था? इनसे क्या कहे वह! बहू से ही विनती करेगी कि अपना घर न छोड़े तो अच्छा होगा, बाकी उसकी मर्जी। यह सोचकर किशन की माँ चुप हो गयी।

"ये चेक तेरे खाते में जमा करा दूँगा। बाकी सारे कागजात भी वहीं जमा करवा देंगे। पैसा वहीं आएँ तो ठीक रहेगा। सोनू की पढ़ाई के लिए रहना तो वहीं पड़ेगा। तेरी सास से कह दिया है, तू तेरहवीं के बाद आ जाएगी।" जाते हुए बिन्दु के सिर पर हाथ रख गया भाई और बाकी बातें भी समझा गया।

शाम के भोजन के पश्चात दुखी सास ने बात छेड़ी, "बेटी, तेरा भाई कह रहा था तू तेरहवीं के बाद शहर चली जाएगी। अब यहीं रुक जाती तो ठीक रहता।"

"सोनू के स्कूल का हर्जा हो रहा है, तो जाना ही पड़ेगा।" सास के स्वर में जितनी कोमलता थी, बहू के स्वर में उतना ही रूखापन।

"ठीक है यहाँ मत रहो, लेकिन कुछ दिन और रुक जाती तो हमारा भी मन लग जाता। किशन के बाद अब सोनू ही तो है उसकी निशानी।" सास बहू से जैसे भीख माँग रही थी अपने बेटे की यादों की। उसकी एकमात्र निशानी के साथ कुछ और पल बिता लेने की। लेकिन बहू टस से मस न हुई।

"आप क्या जानो अंग्रेजी स्कूलों की पढ़ाई। कुछ ही दिन में कितना हर्जा हो जाता है। हमें जाना ही होगा।" बिन्दु ने अपना निर्णय सुनाया और उठ खड़ी

सास की आँखों से झर-झर आँसू चू आए, "ऐसे क्या बुरे कर्म कर दिए हमने भगवान! बेटा भी नहीं रहा और अब उसकी आखिरी निशानी से भी तरसा देगा तू क्या"

वह समझ गयी, बिन्दु निश्चय कर चुकी है तो अब किसी की नहीं सुनेगी। अब घर में वही रह जाएगी और किशन की यादें- बस।

"पूर्व जन्म में कोई पाप किया होगा जिसका फल भुगतना पड़ रहा है।" उसने गहरी आह भरी और लेट गयी।

बीस

ध्रुव की शहादत की खबर सुन अगली सुबह ही रमाकान्त और पार्वती भी चले आये। वह पहली बार आ रहे थे पल्लवी के ससुराला डॉलूडांडा तक वे अपनी कार से आये और उसके बाद पैदल ही चलना पड़ा।

"जाने अभी क्या-क्या नरक दिखाएगी ये लड़की भी!"

घोर दु:ख के क्षणों में भी खीझ उठे रमाकान्ता, "बेटे को फोन कर दिया था, अन्तिम संस्कार से पहले पहुँचने को। न जाने कैसे पहुँचेगा वह बेचारा भी यहाँ तक।" वह बड़बड़ाये जा रहे थे।

पार्वती ने गौर से रमाकान्त की ओर देखा। इतनी निष्ठुरता की उम्मीद नहीं थी उसे अपने पति से।

"ठीक है, बेटी ने जिद करके शादी कर ली, लेकिन है तो वह अपने कलेजे का टुकड़ा ही।" उसका मन विषाद से भर गया। रमाकान्त इस विवाह के सख्त खिलाफ थे। वह तो पल्लवी अड़ गयी, "शादी करूँगी तो ध्रुव से ही, वरना कुँवारी ही रहूँगी।"

अन्ततः पार्वती के समझाने पर ही किसी तरह से माने थे वह।

"लड़का अच्छा है, अच्छे पद पर है। माता-पिता क्या करते हैं, इससे हमें क्या लेना देना।" पार्वती ने हर तरह से समझाने का प्रयास किया।

"अरे रिश्ते सिर्फ लड़के-लड़की का मिलन भर ही नहीं होते। शादी तो दो परिवारों का मिलन होता है। इसलिए उनका भी आपस में उतना ही मेल जरूरी है।" उन्होंने खरा-सा जवाब दिया।

"लेकिन बेटी की खुशी का कोई मतलब नहीं?" पार्वती के बस इसी सवाल ने रमाकान्त को निरुत्तर कर दिया।

बी.एस-सी. में गोल्ड मेडल के बाद पिता के मेडिकल में जाने के लिए जोर देने के बावजूद पल्लवी ने एम.एस-सी. में प्रवेश ले लिया। साथ ही वह विरोध के बावजूद शारीरिक व मानसिक रूप से विकलांग बच्चों के लिए काम करने वाली एक संस्था से भी जुड़ गयी।

पल्लवी की इस जिद ने रमाकान्त को और उद्वेलित कर दिया। वह उससे बड़े ही खफा रहने लगे। हद तो तब हो गयी जब एक दिन रमाकान्त की अनुपस्थिति में पल्लवी संस्था के तीन-चार लोगों को साथ में ले ध्रुव के भाई श्रवण को इलाज और संगीत की शिक्षा देने के लिए गाँव से शहर ले आयी और उसे संस्था में दाखिला दिला दिया।

पिता को पता चला तो उनके क्रोध का बाँध फूट पड़ा, "मदर टेरेसा बनना चाहती हो क्या? अब यही दिन देखना बाकी रह गया था कि तुम दुनिया भर से लूले-लंगड़ों को इकट्ठा करती फिरो!"

और फिर पार्वती की ओर देखकर बोले, "कल ही पंडित जी को बुलवाओ। पिछले महीने ही उन्होंने एक रिश्ता सुझाया था। ससुराल में जाकर कर लेगी समाज सेवा।"

"माँ ऐसा अनर्थ मत करो। अभी नहीं करनी मुझे शादी। और अभी तो एम. एस-सी. की परीक्षाएँ होनी हैं।" पल्लवी माँ से लिपट फफक-फफक कर रो पड़ी।

पार्वती के लिए पल्लवी की यह आदत कोई छुपी नहीं थी। वह जब भी परेशान होती यही तरीका होता उसका।

"लेकिन बेटी, क्या बुरा सोचते हैं तेरे पापा! हर माँ-बाप की इच्छा होती है उनकी बेटी व्यवस्थित हो जाए। अपने घर-परिवार में सुख से रहे।"

"तो क्या ये मेरा घर नहीं? मैं यहाँ सुखी नहीं? क्या मैं बोझ बन गयी हूँ तुम सब पर?"

इस सवाल का कोई जवाब नहीं था पार्वती के पास।

आखिरकार, पल्लवी का पक्ष लेकर वह एक बार फिर पति के सामने जा खड़ी हुई। फिलहाल उन्होंने पत्नी की बात सुन ली और उसकी लाज भी रख ली, लेकिन पार्वती जानती थी कि यह तलवार हटने वाली नहीं, हमेशा लटकी ही रहेगी पल्लवी के सिर पर।

पल्लवी का एम.एस-सी. भी हो गया। उसके कुछ समय बाद कामिनी भी विवाह सूत्र में बंध गयी। पल्लवी ने अब इस संस्था में पूर्णकालिक कार्य करना आरम्भ कर दिया था।

रमाकान्त अब एक बार फिर रिश्ते के लिए जोर डाल रहे थे। और पल्लवी अभी भी राजी नहीं थी।

पार्वती समझ नहीं पा रही थी क्या बात है। क्या पल्लवी के जीवन में कोई है। अगर है तो वह साफ-साफ क्यों नही कहती। बाल कामिनी तक पहुँची, तो उसी ने सारी बात साफ कर दी।

मायके आयी कामिनी अगले दिन ही पल्लवी से मिलने आ धमकी। सुखद दाम्पत्य जीवन की आभा उसके चेहरे से साफ झलक रही थी। पल्लवी तैयार हो रही थी तो पार्वती कामिनी से उसके घर-परिवार के बारे में बात करने लगी। पल्लवी का प्रकरण छिड़ा तो कुछ देर चुप रहने के बाद कामिनी से न रहा गया।

"आंटी आपको ध्रुव याद है न!" "कौन, वही लड़का जो सेना में है? तुम्हारे कॉलेज में पढ़ता था?"

"जी, आंटी वही। पल्लवी उसे बहुत चाहती है। पर न आपसे कह पा रही है और न उससे। उसकी छवि मन में बसाये रखेगी तो कोई और कैसे अच्छा लगेगा उसे? अंकल से डरती है शायद; क्योंकि बहुत ही निर्धन परिवार से है ध्रुव।"

और बैठे-बैठे दोनों के बीच योजना बन गयी। इतने में पल्लवी आ गयी तो बातों का रुख दूसरी ओर मुड़ गया।

"ध्रुव कैसा है?" पार्वती चली गयी तो कामिनी ने पूछा। "ठीक है। श्रीनगर में नियुक्ति है आजकल।"

कामिनी ने देखा ध्रुव का नाम लेते ही पल्लवी के चेहरे का रंग बदल गया था। मन-ही-मन मुस्कुरा दी कामिनी!

"घर में बता क्यों नहीं देती कि तू उससे प्यार करती है?"

इस सीधे-सपाट प्रश्न के लिए तैयार नहीं थी पल्लवी। चौंक कर उसने कामिनी की ओर देखा।

"ऐसे क्या देख रही है? और तुम दोनों ने अभी तक एक-दूसरे को भी बताया है कि नहीं?"

"इसमें बताने की क्या बात है?"

"ठीक है तब बताना, जब अंकल तेरी शादी दूसरी जगह कर देंगे और ध्रुव की भी कहीं और बात पक्की हो जाएगी।" खीझ उठी कामिनी। लेकिन बातों ही बातों में ध्रुव का पता लेना न भूली।

कुछ दिन शान्ति रही, लेकिन किसी को नहीं पता था कि यह तूफान आने से पहले की शान्ति है।

एक दिन कैप्टन किशन अचानक पल्लवी के घर आ धमके। पल्लवी के लिए ध्रुव का रिश्ता लेकर। रमाकान्त ने किशन के सामने तो कुछ नहीं कहा, लेकिन उनके जाते ही वह भड़क उठे।

"हिम्मत कैसे हो गयी इन लोगों की पल्लवी का हाथ माँगने की! घर-बार देखा है अपना उन्होंने!"

पार्वती ने अभी कुछ कहना उचित नहीं समझा। कुछ शान्त हुए तो एकान्त में समझाने लगी, "लड़का अच्छे पद पर है और पल्लवी भी राजी है। फिर दोनों जानते भी हैं अच्छी तरह एक-दूसरे को।"

"अच्छा तो ये तुम दोनों की मिलीभगत है! वरना उनकी हिम्मत न होती यहाँ तक आने की।"

खैर, कुछ दिन की बहस और ना-नुकुर के बाद अन्ततः बेटी की खुशी के आगे रमाकान्त ने भी हथियार डाल दिये, लेकिन मन से ध्रुव और उसके परिवार को कभी अपना न सके।

दहेज के नाम पर मिलने वाले उपहारों के लिए ध्रुव ने विनम्रता से साफ मना कर दिया, लेकिन बेटी के लिए बनने वाले कपड़े-गहनों में कोई कसर नहीं छोड़ी थी पार्वती ने। इस बात पर पल्लवी और ध्रुव दोनों की एक न सुनी थी उन्होंने।

दुल्हन के वेश में कितनी सुन्दर लग रही थी पल्लवी और भीतर की खुशी ने इस सुन्दरता में और चार चाँद लगा दिये। शेरवानी और चूड़ीदार पजामे में ध्रुव भी सभी का मन मोह रहा था। कॉलेज में पढ़ने वाले ध्रुव और इस ध्रुव में बहुत अन्तर आ चुका था।

सेना के कठोर अनुशासन और नियमित कसरत ने जहाँ उसका शरीर सुडौल बना दिया था, वहीं खुशी और फौज के पौष्टिक तथा नियमपूर्वक भोजन आदि से ध्रुव के चेहरे पर भी रौनक आ गयी थी। सभी की जुबाँ पर ध्रुव और पल्लवी की सुदर्शना जोड़ी की ही चर्चा थी।

न जाने किसकी नज़र लग गयी इस जोड़े को! कैसे काटेगी बेटी अकेले अब ये पहाड़ सा जीवन! वह तो चला गया, पर ये कैसे रहेगी उसके बगैर! मुझ से जो भी बन पड़ा मैंने किया। अब तेरी किस्मत के लिए मैं क्या कर सकती हूँ। जो नसीब में होगा देखा जाएगा।- पार्वती के मन-ही-मन चला, सवाल-जवाब का यह सिलसिला पल्लवी की ससुराल पहुँचने पर ही टूटा।

विक्षिप्त-सी पल्लवी सामने खड़ी थी। सूनी माँग, लगातार रोने के कारण सूज गयी आँखें, शृंगार विहीन चेहरा। कौन कहेगा, चार महीने पुरानी दुल्हन है ये!

भावविह्वल माँ दहाड़ मारकर चिपट गयी उससे। भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ा। माँ-बेटी के इस ममत्व भरे स्पर्श से सबकी आँखें सजल हो उठीं कुछ देर दोनों यूँ ही अपने मन का आवेग आँसुओं से धोती रहीं।

रमाकान्त समधी को सान्त्वना दिये जा रहे थे और साथ ही चोर नज़रों से बेटी के ससुराल वालों के रहन-सहन का जायजा भी लिये जा रहे थे। छोटा-सा घर, सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नहीं। कैसे रह पाती होगी उनकी बेटी यहाँ पर! दुर्भाग्यवश ही सही, लेकिन अब तो पीछा छूटेगा उसका इस नरक से। वह मन-ही-मन शुक्र मना रहे थे।

अगले दिन सुबह ध्रुव का मृत शरीर गाँव पहुँचा तो एक बार फिर हाहाकार मच गया। ताबूत हटा कर देखा। आश्चर्य! ध्रुव के चेहरे पर चोट का कोई निशान नहीं था। शान्त चेहरा, मानो गहरी नींद सो रहा हो वह। दुश्मनों को मार गिराने के बाद सीने पर गोली खाई थी ध्रुव ने। पल्लवी को लगा जैसे ध्रुव मुस्कुरा रहा है। मानो कह रहा हो-देखा पल्लवी, मैंने कहा था न, देश की कोई और ऐसी। सेवा नहीं होती जहाँ हँसते-हँसते प्राणों को न्यौछावर कर दिया जाय।

बेटे को इस हालत में देख सुमित्रा पछाड़ खाकर गिर पड़ी। सारा माहौल रुदन-क्रन्दन से कराह उठा। इसी बीच कुछ युवकों ने ध्रुव की जय-जयकार का उद्घोष करना शुरू कर दिया तो लगा रुदन-क्रन्दन की यह कलेजा चौस्ती आवाज गर्व से भरे दिलों के उद्गारों का सम्बल बन गयी।

अन्तिम संस्कार में उमड़ी भीड़ को देख कर तो रमाकान्त हैरत में थे। यह बिन बुलाया सैलाब एक शहीद के प्रति अपार सम्मान का द्योतक था। साथ ही इलाके में उसकी लोकप्रियता और आदर का पैमाना भी।

'ये तूने उलटगंगा क्यों बहाई भगवान!' -ध्रुव के शव को मुखाग्नि देते हुए कल्याण सिंह की आँखें एक बार फिर डबडबा आयीं।

"बाबा मुझे पकड़ो मैं फिसल रहा हूँ।" एक बार जंगल में सूखी पिरूल पर फिसलते हुए नन्हें ध्रुव के इन शब्दों को रो-रोकर दुहराने लगे कल्याण सिंह और बोले, "इस बार तो हाथ बढ़ाने का भी मौका नहीं दिया तूने। चुपचाप चला गया, हम सब को अकेला छोड़कर।"

इधर क्रियाकर्म निपटने को था, तो हिम्मत कर एक सैन्य अधिकारी पल्लवी के करीब आया और गहरा अफसोस जताते हुए उसने राहत राशि का चेक उसे थमाने की कोशिश की तो उसने इसे लेने से साफ इनकार कर सबको भौंचक्का कर दिया।

"ध्रुव मरा नहीं है। उसके विचार, उसका मिशन अभी भी मेरे अन्दर जीवित है। फिर सहायता राशि कैसी?" संयत भाषा में दृढ़ता से उसने अपनी बात रखकर मंशा भी साफ कर दी।

"मैडम ये सहायता राशि नहीं, सम्मान राशि है और आपके शहीद पति के इस सम्मान पर आपका पूरा अधिकार है।" एक वरिष्ठ अधिकारी ने पल्लवी को समझाने का प्रयास किया।

"आप मुझे विवश मत कीजिए।" पल्लवी ने ध्रुव की डायरी और अन्य सामान समेटा, जिसे उसके शव के साथ लाया गया था और चुपचाप उठकर चली गयी।

पल्लवी के स्वर की दृढ़ता और अधिक बढ़ गयी। इसे पल्लवी का क्षणिक आवेग समझ अधिकारी चेक तो वापस ले गये लेकिन उन्हें उम्मीद थी कि भावनाओं का यह ज्वार थमते ही सब सामान्य हो जाएगा।

"हैव यू गौन मैड! तुम पागल हो गयी हो!" उनके जाते ही सिद्धार्थ ने पल्लवी को आड़े हाथों लिया।

अन्त्येष्टि में वह भी पहुँच गया था यहाँ। पल्लवी का बड़ा भाई सिद्धार्थ। अपनी इस इकलौती बहन को बहुत प्यार करता था वह। पर पल्लवी की आदर्शवादिता उसे पसन्द नहीं आयी। आखिर यही तो उसके लिए सहारा था अब! और वह है कि इसे ही ठुकराए जा रही है।

"क्यों क्या हुआ है मुझे?"

"सम्मान का चेक लेने से इनकार क्यों कर दिया?"

"क्या मुहँ दिखाऊँगी मैं ध्रुव को? क्या इसलिए उसने बलिदान दिया है कि मैं उसकी कीमत वसूल करूँ?"

ये बलिदान की कीमत नहीं, बल्कि सम्मान है उसकी शहादत का। कुछ तो समझने की कोशिश करो।"

और उसके बाद दोनों भाई-बहन अंग्रेजी में जाने क्या-क्या गिटर-पिटर करते रहे। इसे सिर्फ रमाकान्त ही समझ पाए। निष्कर्ष यही निकला कि पल्लवी को ध्रुव की शहादत के बदले में आर्थिक सहायता मंजूर नहीं।

ये खबर आग की तरह आस-पास के क्षेत्र में फैल गयी। जितने मुँह उतनी बातें। कोई कहता ध्रुव की मौत का सदमा लगा है, इसलिए ऐसा कर रही है। तो कोई इसे शहरी लड़की का नाटक करार देता। कुछ की राय थी कि यदि वह खुद पैसा नहीं लेना चाहती तो ध्रुव के माता-पिता को क्यों नहीं दे देती?

बेटी के इस निर्णय से रमाकान्त तो जैसे बौखला गये। एकान्त पाते ही उन्होंने पार्वती से पल्लवी को समझाने के लिए कहा, "पागल हो गयी है तुम्हारी बेटी। यहाँ भी आदर्शवादिता दिखा रही है। पहाड़ जैसा जीवन किसके सहारे काटेगी? समझाओ उसे।"

लेकिन पार्वती जानती थी पल्लवी की जिद को। एक बार अड़ गयी, सो अड़ गयी। ध्रुव की शहादत के बदले में वह कुछ नहीं लेना चाहती, तो कैसे मना सकती है वह उसको। लेकिन पति का गुस्सा भौंप कर उसने झट स्वीकारोक्ति में सिर हिलाया और पल्लवी के पास बैठ गयी।

इधर, ध्रुव की तेरहवीं से पहले ही लोगों में पल्लवी को लेकर खुसर-फुसर शुरू हो गयी। अधिकांश लोगों की यही राय थी कि क्रियाकर्म की औपचारिकताएँ पूर्ण करने के बाद पल्लवी चुपचाप माता-पिता के साथ शहर चली जाएगी। स्वयं रमाकान्त और पार्वती भी यही मानकर चल रहे थे कि उनकी बेटी अब यहाँ नहीं रहेगी।

पार्वती को गाँव में ही छोड़ रमाकान्त व सिद्धार्थ अगले दिन वापस लौट आए थे, लेकिन तेरहवीं के वक्त दोनों ही उसमें सम्मिलित होने आ गये।

"तुमने अपना सामान रख लिया?" माँ के इस अप्रत्याशित प्रश्न ने पल्लवी को चौंका दिया।

"कहाँ के लिए?"

उसने कुछ कहा तो नहीं, लेकिन उसकी मूक सवालिया आँखों को माँ पढ़ गयी। वह उसे पकड़कर एकान्त कोने में ले गयी।

"बेटा, अब यहाँ क्या करोगी रहकर! सिद्धार्थ और तुम्हारे पिता जी की भी यही राय है। फिर वहाँ रहोगी तो थोड़ा मन भी बदल जाएगा।"

पल्लवी ने साफ इनकार कर दिया, "मेरा घर अब यही है माँ। और ध्रुव के माता-पिता भी तो हैं। श्रवण है। इन बेचारों को इस हालत में अकेला छोड़कर कैसे जा सकती हूँ मैं!"

रमाकान्त एक बार फिर बेटी से नाराज हो वापस चले आए।

धीरे-धीरे सब लोग चले गये तो घर को उदासी और वीरानी ने घेर लिया। यूँ तो पहले भी ध्रुव वहाँ पर नहीं था, लेकिन उसकी यादें हमेशा उसकी उपस्थिति का अहसास दिलाती रहतीं। लेकिन अब तो वह उसे छोड़कर बहुत दूर जा चुका था हमेशा के लिए। पर न जाने क्यों, पल्लवी को लगता जैसे ध्रुव घर में कहीं छिपा बैठा है और कभी भी अचानक सामने आकर चौंका देगा।

उसे आज भी वह दिन याद है जब अचानक न जाने कहाँ से ध्रुव उसकी संस्था में आकर खड़ा हो गया था। वह उस समय बच्चों को पढ़ाने में व्यस्त थी। शारीरिक रूप से विकलांग बच्चे- संसाधन हीन। माता-पिता न उनका ढंग से इलाज करवा पाते, न ही पढ़ाई। इन बच्चों के बीच पल्लवी ऐसा खो जाती कि उसे अपनी ही सुध न रहती। शाम को घर पहुँचती तो बड़े आत्मिक सन्तोष के साथ। ऐसे ही एक दिन जब वह बच्चों को पढ़ा रही थी तो ध्रुव कक्षा के दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया था। नियुक्ति पर जाने से पहले वह पल्लवी और अन्य मित्रों से मिलने चला आया था।

कुछ देर तक वह पल्लवी को उन बच्चों के बीच पढ़ाते देखता रहा। बच्चों में ही मग्न पल्लवी की नजर एक बार भी उस ओर नहीं गयी। बच्चे ही बार-बार दरवाजे की ओर देखने लगे, तब कहीं जाकर उसका ध्यान उधर गया।

सामने वर्दी में कोई खड़ा था। ध्यान से देखा तो ध्रुव। वह चौंक गयी। जब से कॉलेज छोड़कर गया था, तब से पहली बार देख रही थी वह उसे। वह भी चुपचाप आ धमका आज। पल्लवी वहीं की वहीं खड़ी रह गयी। एकटक ध्रुव को निहारती। कितना सजीला लग रहा था वर्दी में! खूब निखर आया था उसका व्यक्तित्व। शायद अपनी मनमाफिक नौकरी पाकर।

दो वर्ष बाद देख रहे थे दोनों एक दूसरे को। लग रहा था जैसे युग बीत गये।

"बताया क्यों नहीं आने से पहले?" पल्लवी ने उलाहना दिया ध्रुव को।

"तुम्हारे चेहरे पर हैरानी देखना चाहता था और फिर तुम्हें इन लाचार बच्चों के बीच इतना खुश देखने का सौभाग्य भला कैसे मिलता?" पल्लवी चुप सुनती रही। कितना अच्छा लग रहा था उसे ध्रुव को इतने समय बाद देखना और सुनना।

"बहुत खुश हो इन बच्चों के बीच?" पल्लवी को चुप देख ध्रुव ने पूछ ही लिया।

"यह प्रेरणा भी तुम से ही मिली है।"

"मुझसे?" ध्रुव को याद नहीं आया कि उसने कभी इस बारे में पल्लवी से कोई चर्चा भी की थी।

याद है एक पत्र में, तुमने श्रवण के बारे में लिखा था और साथ ही लिखा था दुनिया में न जाने कितने ऐसे प्रतिभाशाली बच्चे हैं, जिन्हें समुचित वातावरण नहीं मिल पाता। बस उसी दिन से मन में ठान लिया था कि मैं ऐसे ही लोगों की सेवा करूँगी।"

ध्रुव को लगा कि पल्लवी अनावश्यक ही इस बात का श्रेय उसे दे रही "मुझे बहुत अच्छा लग रहा है तुम्हें प्रसन्न देखकर और वह भी एक सार्थक काम करते हुए।"

पल्लवी कुछ नहीं बोली, पर उसकी आँखें भर आयीं। कितना फर्क है इसकी और पिता जी की सोच में उसे अचानक कल शाम का वाकया याद हो आया। कैसे बरस पड़े थे वो उस पर, "तुमने मुझे बिल्कुल ही निराश कर दिया है पल्लवी। अपनी पढ़ाई-लिखाई, अपनी प्रखरता तुमने सब मिट्टी में मिला दी है। अरे यही सब करना था तो..." पिता के स्वर में घोर निराशा थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि वह ऐसा क्या कर रही है, जिससे वह आहत हो रहे हैं।

"कहाँ खो गयी?" पल्लवी को अपने में ही खोए देखकर ध्रुव ने सवाल किया।

टोकने पर अचानक चौंक उठी पल्लवी। और फिर ध्रुव को वहीं इन्तजार करने को कहकर अपनी कक्षा में चली गयी। लेकिन कहाँ मन लगता उसका बच्चों को पढ़ाने में! जल्दी से क्लास खत्म कर चली आयी।

अब तक कमल भी बी-एड. कर दूसरे शहर में किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ा रहा था। ध्रुव से उसकी मुलाकात हुए एक अरसा गुजर गया था, लेकिन कभी-कभी पत्रों के आदान-प्रदान से एक दूसरे के बारे में पता लगता रहता था।

कुछ देर ध्रुव और पल्लवी एक दूसरे से बातें करते यूँ ही सड़क पर चलते रहे। फिर न जाने कब मौका मिले और फिर पत्र में ये सबकुछ लिखा भी तो नहीं जा सकता। वह आज सब कुछ कह डालना चाहते थे। लेकिन एक बात फिर भी अनकही रह गयी। दोनों में से किसी के मुहँ से भी वह न निकला, जो वो मन-ही-मन कहना चाहते थे।

"हम कहाँ जा रहे हैं?"

"पता नहीं, मंजिल नहीं मालूम।" ध्रुव का साधारण सा प्रश्न, लेकिन न जाने कहाँ खोई पल्लवी का अटपटा जवाब। इतने में एक कार तेजी से उनके बगल से निकल गयी। कार की गति इतनी तेज थी कि पल्लवी घबरा कर ध व से सट गयी। ध्रुव ने हाथ बढ़ाकर उसे अपनी ओर खींच लिया। पल भर के लिए पल्लवी ध्रुव के आगोश में समा गयी।

"आओ, तुम इस ओर आ जाओ।"

और ध्रुव ने वैसे ही उसे बाँहों में घेरे सड़क के किनारे की ओर कर दिया।

ये पल मानो थम-सा गया था पल्लवी के लिए। कितना सुखद महसूस कर रही थी वह ध्रुव के साथ कुछ देर तक उस स्पर्श के एहसास को महसूस करती रही वह। ध्रुव भी शायद ऐसा ही महसूस कर रहा था।

"कामिनी के घर चल कर उससे मिल लेते हैं।" अन्ततः ध्रुव ने ही खामोशी तोड़ी। पल्लवी ने सहर्ष 'हाँ' में सिर हिलाया।

"वापस कब जाना है?" यह दोनों के लिए हिला कर रख देने वाला ऐसा सवाल था जिसे न पल्लवी पूछना चाहती थी और न ही ध्रुव इसका जवाब देना चाहता था। पर मजबूरी थी। ध्रुव आया था अपनी नियुक्ति पर जाने के लिए तो यह सवाल उठना ही था।

"आज ही।"

बड़े भारी मन से ध्रुव का संक्षिप्त-सा जवाब था। उसी नैराश्य से पल्लवी ने ध्रुव की ओर देखा।

"इतने समय बाद आए वह भी सिर्फ कुछ घंटों के लिए! एक दिन और रुक जाते।"

"कल की ट्रेन है दिल्ली से।" मायूस ध्रुव ने आज ही वापस जाने की अपनी मजबूरी जता डाली। "एक दिन पहले आ जाते।"

पल्लवी ने उलाहना दिया। ध्रुव खामोश, कोई जवाब नहीं दिया उसने। पल्लवी कहना तो बहुत कुछ चाहती थी, लेकिन जुबान साथ नहीं दे पा रही थी।

ऑटो रुकवाया, दोनों बैठ गये, कामिनी के घर जाने के लिए।

"ध्रुव, तुम ध्रुव ही हो न! तुम तो बड़े स्मार्ट हो गये। अच्छे लग रहे हो फौजी वर्दी में।" चंचल कामिनी की आँखें खुशी से चमक उठी।

"कामिनी।" पल्लवी ने आँखें दिखायी।

"क्यों चुप करा रही है? तू तो कह नहीं पायी होगी ये सब। तो क्यों न मैं ही कह दूँ। और बता झूठ बोल रही हूँ क्या?"

नहीं, सच बोल रही थी कामिनी। वह जानती थी पल्लवी के स्वभाव को। ध्रुव की तारीफ में ये शब्द तो निकल ही नहीं सकते उसके मुहँ से, और फिर ध्रुव का व्यक्तित्व सचमुच निखर भी तो गया था। इस बात में भी सच्चाई थी।

"पता है, जब तुम यहाँ नहीं थे तो ये हर समय तुम्हारे बारे में ही बातें किया करती थी और इस समय देखो तो कैसी अनजान बनी बैठी है।" कामिनी बोले जा रही थी। पल्लवी के घुड़की देने का और आँखें दिखाने का भी कोई असर नहीं हो रहा था उस पर।

पल्लवी शर्म से पानी-पानी हुई जा रही थी। ध्रुव न जाने क्या सोच रहा होगा! ये लड़की तो लगता है उसके मन में छुपी बात भी कह ही डालेगी।

"ध्रुव को जाना है आज ही।" कहते-कहते पल्लवी उठ खड़ी हुई।

"अरे तो इस कंजूस से पार्टी तो ले लें आज। नौकरी लगने की पार्टी तक नहीं दी अभी।" कामिनी के इस प्रस्ताव से पल्लवी मन-ही-मन खुश हो गयी।

ध्रुव ने तुरन्त ही हामी भर दी तो पल्लवी ने घर पर फोन कर माँ की इजाजत ले ली। मन-ही-मन कामिनी को धन्यवाद दिया कि इस बहाने ध्रुव के साथ कुछ पल और बिताने का समय तो मिल जाएगा।

"अब तो खुश है ना" एकान्त पाते ही कामिनी ने कोहनी मारी तो मुस्कुरा दी पल्लवी।

खाना खाने के बाद एक-एक कर दोनों को घर छोड़ा ध्रुव ने। पहले कामिनी को, फिर पल्लवी। फिर वही विदाई के क्षण।

"फिर कब आओगे?" गेट के अन्दर जाने से पहले पल्लवी का प्रश्ना

"आ जाऊँगा, किसी दिन यूँ ही अचानको"

"कितने वर्षों बाद?"

ध्रुव मुस्कुरा दिया। खिंचाई कर रही है पल्लवी।

"इस बार देर नहीं करूँगा।"

"पत्र लिखते रहना।"

ध्रुव ने 'हाँ' में सिर हिलाया। थोड़ी देर वे दोनों यूँ ही खड़े रहे। कुछ ही पल में ध्रुव चला जाएगा। न जाने कब देख पाएगी अब उसे! अन्दर ही अन्दर जैसे कुछ पिघलकर आँखों को धुंधलाने लगा था। पर कहीं ध्रुव के सामने भेद न खुल जाय। उसने झट से विदा ले ली।

ध्रुव वहीं खड़ा रहा। शायद जानता था कि एक बार मुड़ कर जरूर देखेगी पल्लवी। हुआ भी यही। गेट बन्द करने से पहले पल्लवी मुड़ी और ध्रुव उसे देखकर ऑटो में बैठ गया।

अन्दर से जैसे कुछ उछल कर हलक तक आ गया था। मन हुआ, अभी दौड़कर रोक ले उसे, लेकिन ऐसा नहीं कर पायी पल्लवी। ध्रुव ने हाथ हिलाकर उसे अन्दर जाने को कहा और दोनों एक बार फिर जुदा हो गये।

पहुँचने के एक सप्ताह बाद ही ध्रुव का पत्र आ गया। पढ़कर उसे सुखद अहसास हुआ कि उसने अपने छोटे भाई श्रवण की जिम्मेदारी पल्लवी सौंप दी थी। सेना के अस्पताल में एक बार दिखा भी चुका था ध्रुव उसे। पुरानी बीमारी होने के कारण उसके ठीक होने की सम्भावना तो नगण्य ही थी, लेकिन फिजियोथैरेपी कराये जाने से उसे आगे बढ़ने से रोका अवश्य जा सकता था।

"संगीत के लिए जन्मजात प्रतिभा है श्रवण में। वह बहुत अच्छा गाता है। यदि उसे कुछ शिक्षण-प्रशिक्षण मिल जाए तो इसी क्षेत्र में भविष्य बन सकता है उसका। तुम बताओ क्या कर सकते हैं उसके लिए?" ध्रुव का अधिकारपूर्वक, इस तरह अपने छोटे भाई के लिए सलाह माँगना बहुत अच्छा लगा पल्लवी को। उसने तुरन्त ध्रुव के पत्र का जवाब दिया।

"मैं उसे शहर ले आऊँगी। यहीं हमारी संस्था में संगीत सीख लेगा वह। तुम तुरन्त घर पत्र लिख दो।"

और ध्रुव से अगला जवाब मिलने पर पल्लवी संस्था के तीन चार लोगों को साथ में ले कर गयी और गाँव से श्रवण को शहर ले आयी।

"चलो, इस बहाने ध्रुव का गाँव भी देख लूँगी।" सोचते श्रवण को लेने पहुँची पल्लवी को पहली बार पहाड़ के दुरूह जीवन का अहसास हुआ। यूँ तो ध्रुव ने उसे बताया ही था कि छठी कक्षा से दो-ढाई मील पैदल चल कर स्कूल जाना पड़ता था, लेकिन जब पल्लवी को स्वयं पहाड़ी पगडण्डियों पर पैदल चल कर गाँव तक पहुँचना पड़ा तो उसे उस जीवन का असल में अहसास हुआ। लेकिन पल्लवी ने ध्रुव का पुराना जीर्ण-शीर्ण आवास तो देखा ही नहीं। वहाँ तो वह रहने की कल्पना भी नहीं कर सकती थी। अब तो ध्रुव ने उसे मरम्मत करवा के रहने लायक बनवा दिया था।

ध्रुव के माता-पिता की सरलता अन्दर तक छू गयी थी पल्लवी को। लेशमात्र भी दिखावा नहीं। पुत्र के उच्च पद पर होने का जरा भी अभिमान नहीं।

तेज मीठी चाय और प्याज के हरे पत्तों के पकौड़े, ध्रुव की माँ ने बड़े चाव से बनाए थे शहर से आए मेहमानों के लिए। चाय का एक चूंट पीते ही पल्लवी को लगा कि उसके होंठ चिपचिपा जाएँगे मीठे से, लेकिन एक तो ध्रुव की माँ का स्नेह और ऊपर से पैदल चलने की थकान, पकौड़ों के साथ पूरी चाय गटक गयी वह।

"यहाँ ऐसी ही चाय बनती है भाभी। मीठे से दोनों होंठ चिपक न जाएं तो चाय पीने का मजा ही क्या!" बाद में कुन्ती ने बताया था उसे।

लकड़ी की बनी डोली पर श्रवण को मोटर रोड तक लाया गया। उसे पहाड़ में डाँडी भी कहा करते हैं। पहाड़ी गाँवों में यही डाँडी चलने-फिरने में असमर्थ बीमारों और वृद्धों को ढोने के काम आती तो शादी-ब्याह में उसकी थोड़ी-सी सजावट करके दुल्हन को उसकी ससुराल पहुँचाने के काम भी आती।

पितृ-गृह से विदा होने के बाद पल्लवी कार से डॉलूडांडा बाजार पर उतरी थी तो फूलों से सजी इसी डाँडी को लेकर गाँव के युवा मौजूद थे।

साथ आये सिद्धार्थ ने जहाँ उसे देखकर नाक-भौं सिकोड़ लिया था तो पल्लवी ने उस पर न बैठ, पैदल चलने को कह दिया था। उसका भार कोई इन्सान ढोये, ऐसा उसे मंजूर नहीं था। लेकिन गाँव के युवाओं के आग्रह के आगे उसकी एक न चली और इसी में बैठ वह गाँव तक आयी थी।

इधर, श्रवण को शहर लाने की बात पता लगने पर पल्लवी को पिता के कोप का शिकार बनना पड़ा। उसके इस कृत्य से नाराज पिता ने शालीनता की . सीमाएँ लाँघ जिन कटु शब्दों का प्रयोग किया, ये तो नश्तर की तरह चुभ गये थे पल्लवी के दिल में।

श्रवण सचमुच प्रतिभा का धनी था। कुछ ही समय की संगीत शिक्षा ने उसकी इस नैसर्गिक प्रतिभा में जबर्दस्त निखार ला दिया।

ध्रुव का अगला पत्र और साथ में उसकी एक रचना पल्लवी को मिली। ध्रुव की नयी रचना कई मायनों में अलग थी। कुछ अलग से भाव, किसको ध्यान में रखकर लिखी होगी? पल्लवी ने सोचा। उसका चेहरा सुर्ख हो आया। वह इसे तब तक पढ़ती गयी, जब तक उसका एक-एक शब्द उसे कंठस्थ नहीं हो आया।

और इस बार तो ध्रुव ने अपना वादा भी निभाया था। बहुत देर नहीं की थी आने में। लेकिन अपने स्थान पर भेजा था अपने भैया किशन को पल्लवी के लिए ध्रुव का रिश्ता लेकर।

लेकिन कैसे सम्भव हुआ यह सब! पल्लवी के सामने अपने प्यार तक को न कबूलने वाले ध्रुव ने, उससे पूछे बिना इतना बड़ा निर्णय कैसे ले लिया?

"ये सब कामिनी और तुम्हारी माँ के सहयोग से सम्भव हुआ।" बाद में ध्रुव ने उसे पूरी कहानी सुनायी।

उस दिन माँ से बात करने के बाद कामिनी ध्रुव का पता ले गयी और उसे पत्र लिख दिया।

"पल्लवी एक-एक कर सारे रिश्तों के लिए मना करती जा रही है। अंकल बहुत नाराज हैं उससे। इतना तो तुम भी जानते हो कि वो क्या चाहती है। फिर किस बात की प्रतीक्षा कर रहे हो?" कामिनी ने ध्रुव को लिखा था।

कामिनी का पत्र पढ़कर ध्रुव को अपनी स्थिति याद हो आयी। पिछली बार जब गाँव गया था तो पिता ने रिश्ते की बात छेड़ी थी।

"बेटा ईश्वर की कृपा से सब ठीक है अब। पिछले महीने उम्मेदपुर गाँव के प्रधानजी मिले थे। अपनी बेटी के रिश्ते की बात कर रहे थे। मैंने तो कह दिया कि ध्रुव आएगा तो उसी से बात कर लेना।"

अभी सीमा पर अपनी नियुक्ति की बात कहकर टाल आया था ध्रुव, लेकिन कब तक? हर दूसरे-तीसरे पत्र में किसी न किसी रिश्ते का जिक्र होता था। साथ ही माँ की भी बहू देखने की उत्कट इच्छा थी। कब तक टाल पाएगा उनकी बातों को?

पर इस बार तो माँ के कड़े शब्दों ने उसे बड़ा बेचैन कर दिया।

"बेटा, जल्दी ही बहू ले आता तो मैं भी उसका मुखड़ा देख लेती। वरना क्या भरोसा इस जिन्दगी का?"

लेकिन क्यों न कर रहा था वो अभी विवाह के लिए? क्या चाहता है वह! अपने मन से ही सवाल करता ध्रुव और फिर खुद ही जवाब ढूँढने का प्रयास करता। इस सवाल के जवाब में हर बार उसके सामने पल्लवी का चेहरा घूम जाता था। अब तो उसे अपने इस सवाल का जवाब भी कामिनी के पत्र में मिल गया था।

"बहुत अन्तर है दोनों परिवारों के सामाजिक स्तर में। क्या पल्लवी के पिता मानेंगे?" पत्र लिखकर अपना संशय भी प्रकट किया था उसने कामिनी से।

"तुम किसी को भेजो तो सही। मेरी आंटी से बात हो गयी है। वो अंकल को मना लेंगी।" कामिनी का यह आश्वासन पाकर ही तो किशन भैया को भेजा था उसने।

पहला आश्चर्य तो रमाकान्त को ध्रुव की हिम्मत पर हुआ था और दूसरा अपनी बेटी की स्वीकृति पर। लेकिन पल्लवी और पार्वती दोनों के एक होने पर उनकी एक नहीं चली और अन्ततः पल्लवी दुल्हन बन कर ध्रुव के घर आ गयी।

और आज! इतनी जल्दी दुर्भाग्य उसे ध्रुव के बिना अकेले जीने के लिए छोड़ दिया। ध्रुव का प्यार उसके जीवन में एक अविस्मरणीय आनन्द और ऊषा की किरण लेकर आया था।

कितने सपने देखे थे उसने ध्रुव के साथ-साथ! सम्पत्ति तो आसानी से मिल जाती है, लेकिन जीवन मूल्यों के प्रति इतना कठोर समर्पण एवं लगन ही किसी को सच्चा इनसान बनाती है। पल्लवी को ऐसे ही सच्चे इनसान के दर्शन होते थे ध्रुव में...। याद करते-करते पल्लवी की आँखों को आँसुओं ने धुंधला कर दिया।

उसने ध्रुव के सामान के साथ आई उसकी डायरी निकाली और उसमें लिखी कविता पढ़ने लगी। शायद कुछ ही दिन पहले लिखी थी ध्रुव ने वह

कविता-

पल-पल ही अपने में

जीता हूँ, मरता हूँ

कभी तो भूलता हैं तो,

कभी याद करता हूँ।

प्यार के झरोखों से, याद बनकर झरता हूँ।

कदम दर कदम पर

रहा साथ जिसका, .

अर्पण है तन-मन,

ये जीवन है उसका।

सुख-दुःख के आँसू से मैं घट-घट भरता हूँ

प्यार के झरोखों से, याद बनकर झरता हूँ।

जीवन की राहों में,

कभी नहीं बैठा

रैनों से पूछो क्या

मैं, पल भर भी लेटा।

यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ तुझको ही रचता हूँ।

प्यार के झरोखों से, याद बनकर झरता हूँ।

पढ़ते-पढ़ते पल्लवी की आँखों से भी झर-झर आँसू बहने लगे..!

इक्कीस

"पोस्टमैन!"... दरवाजे पर हुई दस्तक से पल्लवी अतीत की यादों से जागी और झट उठ कर दरवाजा खोला।

"बेटी, तेरी रजिस्ट्री।"

वही पोस्टमैन, जो ध्रुव के मनीऑर्डर सुमित्रा के हाथों में दे अपने आप को गौरवान्वित महसूस करता और जवाब में सुमित्रा से भरपूर इनाम पाता, आज ध्रुव की नवविवाहिता को इस हालत में देख निस्तेज और रुआँसा-सा था।

पत्र खोला तो वही सम्मान राशि का चेक था उसमें। साथ ही औपचारिकताएँ पूर्ण करने हेतु आवेदन पत्र।

उसने लिफाफे में वापस डाल दिया सम्मान-राशि का चेक और सोच में डूब गयी। पूर्व में पल्लवी के साफ इनकार कर देने पर अब डाक से भिजवा दिया गया था यह चेक। इसे स्वीकार तो वह किसी स्थिति में नहीं कर सकती पर अब इसका क्या करे? दिन भर वह इसी उधेड़बुन में रही।

उसे उदास देख सास-ससुर भी उदास हो गये। उन्हें लगा, शायद उसे ध्रुव की याद आ गयी। खैर, वह उसका इधर-उधर ध्यान बाँटने में लग गये। सास तो उसे अकेले छोड़ती ही नहीं थी।

रात्रि-भोजन के बाद पल्लवी सोने की बजाय कल्याण सिंह और सुमित्रा के बीच आकर बैठ गयी।

"पिता जी, आपसे कुछ जरूरी बात करनी है।"

पल्लवी के मुँह से यह सुनते ही, वह दोनों सकपका गये। जानते थे दोनों, क्या बात करेगी वह। यही कि अब अपने माता-पिता के पास लौट जाना चाहती है। वैसे भी, ध्रुव के कारण ही तो वह सारे शहरी ऐशो-आराम छोड़ कर, इस सुविधाहीन गाँव में रहने के लिए चली आयी थी। अब ध्रुव ही नहीं रहा तो क्यों रहेगी यहाँ पर?

"पिता जी, सरकार ने आज फिर ध्रुव की सम्मान-राशि का चेक भेजा है। आप जानते हैं कि मैं नहीं लेना चाहती उसे। मेरी नजर में यह ध्रुव के अरमानों का अपमान होगा। अगर आप चाहते हैं तो मैं इसे आपके लिए ले लूँ।"

पल्लवी चैक वापस करने से पहले सास-ससुर की राय लेना चाहती थी। गाँव में इस बात को लेकर क्या चर्चा हो रही थी इससे अनभिज्ञ नहीं थी वह। कुन्ती को जब भी समय मिलता, वह पल्लवी के पास आकर बैठ जाती। उससे ही पल्लवी को गाँव और आसपास की सारी खबरें मिल जाती।

कल्याण सिंह और सुमित्रा ने एक-दूसरे की ओर देखा। कुछ देर घर में खामोशी पसरी रही। फिर सुमित्रा ने बात शुरू की, "बेटी! सारी जिन्दगी हम लोगों ने गरीबी में काटी, जब बच्चे को कुछ दे सकते थे, तब दाने-दाने को मोहताज रहे। अब बेटे की बदौलत ही हम दोनों के अच्छे दिन शुरू हुए थे। जब वो ही नहीं रहा तो पैसे लेकर क्या करेंगे हम!"

उसने बात पूरी भी नहीं की थी कि कल्याण सिंह बोल पड़े, "हम तीन प्राणियों के गुजारे के लिए बहुत है बेटी। तू जो उचित समझे, जो तेरा मन गवारा करे, वही कर।"

पल्लवी ने उन्हें झट टोक दिया, "हम तीन नहीं, अब चार हैं पिता जी, आप मुझे क्यों भूल गये? क्या मेरा सिर्फ ध्रुव से ही रिश्ता है?"

बगैर किसी मंशा के सीधे-सरल तरीके से कही गयी बात पल्लवी को बुरी लगेगी, ऐसी कल्पना भी नहीं की थी कल्याण सिंह ने। पल्लवी के आँसू देख घबरा गये दोनों। तुरन्त सुमित्रा बोली, "वैसे ही बेचारी इतनी दुखी है, ऊपर से तुम उसे और ठेस पहुंचा रहे हो"

वह उठी और पल्लवी का सिर सहलाते हुए उसे अपने सीने से लगा लिया। सुमित्रा के ममतामय दुलार से तुरन्त सँभल गयी पल्लवी। उसे अहसास हुआ, उसने नाहक ही उलाहना दे दिया। कल्याण सिंह ने भी झट अपने कहे पर माफी मांग ली।

अगले ही दिन पल्लवी ने एक पत्र लिख कर चेक फिर से वापस भेज दिया और साथ ही ध्रुव के फंड इत्यादि के लिए भी औपचारिकताएँ पूर्ण करनी आरम्भ कर दी।

पल्लवी के मन से जैसे एक बहुत बड़ा बोझ हट गया, उसे सबसे बड़ा सन्तोष यह था कि उसकी भावनाओं की कद्र करके, उसके सास-ससुर ने भी वहीं किया, जो वह चाहती थी।

इस दुखद घटना को अब एक माह से अधिक बीत चुका था। कल्याण सिंह और सुमित्रा से पल्लवी की दशा देखी न जाती। सुख के कुछ ही पल नसीब हुए थे उन्हें कि विधाता से यह भी न देखा गया। बेटे को याद कर अपनी आँखों में आये आँसू अन्दर ही अन्दर पी जाते वह। सोचते, बहू के सामने आँसू बहाएँगे तो मनोबल टूटेगा उसका। उस बेचारी ने देखा ही क्या है अभी!

कल्याण सिंह बेटे की बारात में जाकर समधियाने का सुख अपनी आँखों से देख आए थे। इस सब को छोड़ ध्रुव के मोह से बँधी पल्लवी सुदूर पहाड़ी गाँव में चली आयी और आज इस हालत में भी अपनी जिम्मेदारियां पूरी तरह निभा रही है। वे गदगद थे और मन-ही-मन भगवान से पूछते, "हे ईश्वर! क्या अपराध किया होगा इस फूल सी बच्ची ने!"

बहू के मन को दु:ख न पहुँचे, इसका वे दोनों ही पूरा ख्याल रखते। लेकिन कभी न कभी ऐसी बात हो ही जाती जो उनके साथ-साथ पल्लवी को भी दुःखी कर जाती। कभी कोई पल्लवी को अपशकुनी कह जाता, तो कोई गहरी चालबाज। अभी कुछ दिन पहले ही तो पास के गाँव से रुक्मा ताई अफसोस करने आयी थी, "अरे, कैसी अपशकुनी बहू लाए तुम! जन्मपत्री भी जुड़ाई थी कि उसके मोह में यह भी भूल गये थे?"।

सुमित्रा ने इधर-उधर देखा- हे भगवान कहीं पल्लवी न सुन ले। धीरे बोलने का इशारा किया उन्होंने ताई को। लेकिन वह कहाँ चुप होने वाली थी।

"सुना है वह पैसे भी नहीं ले रही। अरे नाटक है ये सब, नाटक। तुम्हें कुछ न देना पड़े इसलिए ऐसा कर रही है। शहर जाते ही सब करा लेगी अपने नाम। और तुम? जिन्होंने अपना जवान बेटा खोया, तुम्हें दिखा जाएगी अँगूठा।"

और फिर ध्रुव को याद कर आँसू बहाने लगी ताई।

ताई उम्र में भी बड़ी थी और रिश्ते में भी। सो, क्या बोलती सुमित्रा, "भगवान की जैसी मरजी! जब ध्रुव ही नहीं रहा, तो इससे बड़ा सदमा क्या होगा हमारे लिए।" कहकर उठ खड़ी हुई सुमित्रा। और साथ ही गाय-बछड़ों को घास देने का बहाना करके ताई को भी उठने का संकेत दे गयी।

ऐसा नहीं था कि ये सब बातें पल्लवी के कानों में न पड़ती। कभी-कभी तो उसका मन इतना आहत होता कि सब छोड़कर माँ की गोद में छुप जाए, लेकिन दूसरे ही पल, सास-ससुर और श्रवण का चेहरा आँखों के आगे आ जाता।

"कैसी किस्मत है इनकी! इतने संघर्षों के बाद थोड़ी खुशी नसीब हुई तो वह भी छिन गयी। हे ईश्वर! कभी-कभी इतना निष्ठुर क्यों हो जाता है तू! जीवन में रोशनी आते ही आँखें छीन ली उनकी।"

इधर, श्रवण जो अभी तक अपने आप को असहाय, दूसरों का मोहताज समझता था, उसके अन्दर भी आत्मविश्वास आने लगा था। वह भी सपने देखने लगा था। लेकिन अब...

यही सब सोच पल्लवी दिन भर सास-ससुर एवं गाँव वालों के समक्ष दृढ़ रहने का यत्ल करती ताकि उन लोगों का मनोबल न टूटे।

लेकिन रात्रि के अन्धकार में जब वह नितान्त अकेली होती तो ध्रुव की यादें ताजा हो उठतीं और वह एक पल भी सो न पाती।

पल्लवी सोचती, जिसके साथ पूरी जिन्दगी बिताने का संकल्प लिया था, वह कुछ ही समय में साथ छोड़कर सदा के लिए उससे दूर चला गया, उसे यह पहाड़-सी जिन्दगी अकेले जीने के लिए छोड़कर। इसे विधाता का अन्याय समझकर वह विलाप करती, लेकिन फिर अगले ही पल उसे लगता कि जितना भी समय उसने ध्रुव के साथ बिताया, वह इतना गहराई लिये था कि वह शायद कभी खत्म न हो। यही तो उन दोनों के रिश्ते की विशेषता थी।

बड़ा अनुपम, आत्मीयता से भरा, गहरी संवेदनाओं का रिश्ता था ध्रुव से उसका। यह सोचकर पल्लवी विधाता का उपकार मानने लगती, जिसने उसे और ध्रुव को मिलाया! भावुक पल्लवी को सहसा ध्रुव की ये पंक्तियाँ याद आ गयीं

यदि सी सका तो

बिखरे क्षणों को

मैं

कोशिश करूँगा सीने की

जी सका तो

क्षण-क्षण जीऊँगा

लक्ष्य शिखर पर

चढ़ना है,

यही चाह है जीने की।

इधर नासमझ लोगों को कौन समझाए। उनका अनर्गल प्रलाप और कुटिल कटाक्ष जारी थे।

"ये बहू ने नाक में लौंग क्यों पहनी हुई है? इसे बता क्यों नहीं देते, हमारे यहाँ विधवा कोई श्रृंगार नहीं करती?"

एक वृद्ध महिला सुमित्रा को टोक रही थी। अचानक बाहर आयी पल्लवी ने यह सुन लिया तो उसका हाथ सहसा नाक में पहनी हीरे की लौंग पर चला गया। कैसे उतार दे वह इसे! उसे याद आ गयी विवाह के बाद की पहली रात। ध्रुव के पास आते ही उसकी चमकती हुई लौंग ध्रुव के कुर्त से निकले धागे में फँस गयी थी और फिर दोनों के संकोच को तोड़ कर प्रेम की कितनी मीठी गाँठ बाँध गयी थी वही लौंग। उसने सुमित्रा की ओर देखा तो उसने झट सर हिलाकर उसकी दुविधा दूर कर दी।

कभी मन अधिक उदास होता तो वह खेतों की ओर निकल जाती। इन्हीं खेतों और उनसे सटे जंगलों में न जाने कितनी बार आयी थी ध्रुव के साथ। पहली बार बुराँश के सुर्ख फूलों से लदे जंगल को देख बौरा गयी थी वह।

"इतने सारे फूल!"

"हाँ, तुम्हारा स्वागत कर रहे हैं ये सब।" ध्रुव का प्यार भरा जवाब था।

"प्रकृति कितना कुछ देती है हमें और बदले में हम कुछ भी नहीं देते इसे। उल्टा अनुचित दोहन ही करते हैं इसके द्वारा दिए गये संसाधनों का।" पल्लवी ने बात बदली।

ध्रुव बोला, "पहाड़ अभी भी इन सब चीजों से बचा है। वरना प्रकृति का इतना सुन्दर नजारा कैसे मिलता देखने को!"

"बचा ही रहे तो अच्छा और हम बार-बार, हमेशा इस नजारे को देखने आते रहें।" पल्लवी भावुक हो गयी थी।

लेकिन कहाँ आ पाये वह बार-बार! विवाह के बाद ध्रुव आया तो सीमा पर जाने के लिए। दो दिन कब बीत गये, पता ही नहीं चला। और अब तो कभी भी नहीं...। वह वहीं बैठ फिर रोने लगी।

बाहर से पल्लवी जितना मजबूत दिखने का प्रयास करती, अन्दर से उतनी ही टूटती जा रही थी। वह उलझन में थी कि क्या करे, जो ध्रुव के मिशन को जीवित रख सके।

"ध्रुव!", पल्लवी ने ऐसे कहा, मानो ध्रुव उसके पास ही हो। "मुझे रास्ता दिखाओ। मैं उलझन में हूँ। मुझे उलझन से बाहर निकालो।"

तभी ध्रुव के एहसास ने पल्लवी को निराशा से उत्साह की ओर बढ़ने की "प्रेरणा दी। पल्लवी को लगा, मानो ध्रुव ने उसके कान में धीरे से कहा-

दुर्गम और भीषण

बड़ी चट्टानें पार कर,

उसको भी तू साथ लिये जा

जो बैठा है हारकर। . .

कदम-कदम तू कदम बढ़ा

संघर्ष कर, जोखिम उठा,

फेंक निराशा को कोसों दूर

तू आशा के गीत गा।

और तभी तो यह तेरा

लक्ष्य तुझे मिल पाएगा,

घोर अँधेरा चीरकर

तू रोशनी भी लाएगा।

पल्लवी ने खुद को सँभाला और ध्रुव के मिशन को पूरा करने का संकल्प लिया। अचानक उसे महसूस हुआ जैसे उसकी परेशानी, उसकी दुविधा सब दूर होने लगी।

बाईस

उधर, बिन्दु पति की तेरहवीं के अगले दिन ही सास-ससुर को अकेला छोड़ शहर चली आयी। वैसे गाँव में भी उसका रहना, न रहना बराबर ही था। जितने दिन भी वह वहाँ रही, कमी सास-ससुर से ढंग से बात भी नहीं की उसने। कभी पोते सोनू को प्यार-दुलार करते तो वह भी खलता उसे।

"आप लोग लाड़-प्यार से बिगाड़ो मत उसे। मेरा तो यही एक सहारा है अब।" वह उलाहना देती।

लेकिन इन बूढे मां-बाप का सहारा भी तो उनका इकलौता बेटा ही था किशन। इस बारे में भूल कर भी नहीं सोचती वह कभी।

"अब तुम यहीं रहोगे तो बुड्ढे-बुढ़िया का भी मन लग जाएगा। वरना किसके सहारे रहेंगे अब ये दोनों!" गाँव की ही एक बुजुर्ग महिला ने एक दिन बिन्दु से कहा, तो वह तुनक उठी, "अब क्या रखा है यहाँ पर मेरे लिए?"

"क्या रखा है? अरे क्या नहीं रखा? सबकुछ यही तो है। और तुम भी यहीं की हो। चार दिन शहर क्या रह आयी, वहीं की समझ लिया क्या अपने को। अरे किशन की तो जान बसती थी यहाँ और तुम ऐसी बात कर रही हो!"

निरुत्तर हो गयी बिन्दु। खिसियाकर उसने मुंह बिचकाया और फिर पैर पटकती हुई वहाँ से चल दी।

मैंने कोई जिन्दगी भर का ठेका थोड़ी ले रखा है। सारी जिन्दगी तो इन्हीं के पीछे स्वाहा कर दी अपनी। अब जाकर कुछ दिन सुधर रहे थे तो ऊपर वाले ने सुहाग ही छीन लिया। अरे! अब भी यहीं पड़े रहे तो हो गया कल्याण।" वह पंडित जी के मन्त्र जाप सा बड़बड़ाए जा रही थी।

तेरहवीं में बिन्दु के दोनों भाई लौट आए। साथ ही उसके माता-पिता भी डाँढस बंधाने आ पहुँचे। यह व्यवहार उन्हें भी अखर गया। पर वह तो जैसे कुछ सुनने को तैयार ही नहीं थी। उसे तो अपने दो भाइयों के अलावा बाकी सारे दुश्मन लग रहे थे। वही दो थे जो उसके शहर में रहने की पैरोकारी कर रहे थे, वरना और तो सारे उसके शहर जाने के खिलाफ ही थे। वे सास-ससुर के साथ ही रहने को जोर दे रहे थे।

"जाना ही चाहती है तो जा, लेकिन अपने सास-ससुर से पूछ तो ले कि वो अकेले कैसे रहेंगे। उन्हें भी साथ ले जाती...।" बिन्दु का स्वभाव जान माँ ने बात अधूरी छोड़ दी।

"जैसे पहले रहते थे, वैसे ही रहेंगे। फिर शहर तो वो खुद ही जाना नहीं चाहते!" बिन्दु ने बेहिचक अपना निर्णय सुना दिया।

माँ उसका मुंह देखती रह गयी। वह तो बेचारी खुद ही यह त्रासदी भोग रही थी। वह जानती थी, बूढ़ा जीवन, ऊपर से गरीबी और वह भी निपट अकेले, घिसटना कितना नारकीय होता है। और फिर पहले की बात और थी। तब तो बेटे के होने का ही अहसास बहुत बड़ा सम्बल था। अब तो बिल्कुल कमर ही टूट गयी। दिल में दबा दर्द बाहर निकल आया।

"ये इन बूढों का तिरस्कार नहीं बेटी, तू अपना ही आगा बिगाड़ रही है। अरे मत भूल, तू भी तो बाल बच्चेदार है और एक दिन इसी बुढ़ापे से गुजरेगी। तब की सोच।" और उसका गला भर आया।

पर बिन्दु के ऊपर इस का कोई फर्क नहीं पड़ा। उसने इधर से सुना और उधर से निकाल दिया। सबको अनसुना कर, अगले ही दिन वह भाइयों के साथ शहर लौट आयी। सोनू भी चला गया तो किशन के माँ-बाप निपट अकेले हो गये। बस दिन-रात आँसू ही बहाते रहते।

शहर पहुँच कर बिन्दु ने बड़ी चैन की साँस ली। भाई उसकी खूब सेवा-टहल में लगे रहते। शहीद की विधवा के लिए जो भी राहत राशि वगैरह की औपचारिकताएँ पूरी होनी थीं, उन्होंने ही भागदौड़ कर पूरी कर दी। यहाँ तक कि सारे कागज़ात और बैंक की पासबुक आदि सब फिट कर उन्होंने उसके हाथ में धर दी, ताकि कहीं कोई शक-शुबहा की गुंजाइश न रहे।

"अभी कुछ और पैसा आना है। साथ ही सरकार ने शहीदों को एक पेट्रोल पम्प देने का भी फैसला किया है।" यह कहकर भाई ने कुछ कागजों पर बिन्दु के हस्ताक्षर करवा लिए। बिन्दु ज्यादा पढ़ी-लिखी तो थी नहीं, सो जैसा भाइयों ने कहा, वह वैसा ही करती गयी।

"पेट्रोल पम्प के लिए जमीन आबंटन से लेकर अन्य औपचारिकताएँ पूर्ण करवाना बड़ी टेढ़ी खीर है। और यह काम किसी तेज-तर्रार आदमी के बगैर सम्भव ही नहीं है।" यह समझाकर उसके भाई ने यह काम अपने एक वकील मित्र को सौंप दिया।

बिन्दु की जिन्दगी अब अपने ढर्रे पर चल निकली। सोनू की पढ़ाई भी ठीक चल रही थी। बाहर के जो भी काम होते, उसके भाई कर देते। पेट्रोल पम्प के लिए भूमि आबंटन की प्रक्रिया भी अब अन्तिम चरण में थी। इससे सम्बन्धित काम के लिए भाई के मित्र से भी कभी-कभी मुलाकात करवा दी जाती।

वकील साहब तलाकशुदा थे। लगभग दो वर्ष पहले उनकी पत्नी उनको छोड़कर अपने माता-पिता के साथ रहने लगी थी। दोनों बच्चे भी पत्नी के साथ ही रहते।

धीरे-धीरे पेट्रोल पम्प से सम्बन्धित काम की गति बढ़ी तो वकील साहब का आना-जाना भी बढ़ गया। बिन्दु की कोशिश होती कि भाई के घर पर ही सारे काम हो जाएँ तो ठीक है। पति की असमय मौत के सदमे से आहत बिन्दु किसी और फसाद में नहीं पड़ना चाहती थी। अभी उम्र ही क्या थी उसकी! अगर किसी का ज्यादा आना-जाना बढ़ा तो लोगों को बातें बनाते देर नहीं लगेगी। फिर किसके मन में क्या है, कौन जानता है?

उधर गाँव में किशन के बूढ़े माता-पिता का बुरा हाल था। मन खुश हो तो इन्सान बड़ी-बड़ी परेशानियाँ भी झेल जाता है, लेकिन जब जीने का उत्साह ही खत्म हो जाए तो छोटी-छोटी बातें भी पहाड़ की तरह लगने लगती हैं। किशन के माता-पिता की भी कुछ ऐसी स्थिति थी। पुत्र की शहादत ने उनके अन्दर तो अब जीवन के प्रति ही वितृष्णा भर दी थी। इससे दिन-प्रति-दिन उनका शरीर सूखता जा रहा था।

दिनोंदिन बिगड़ती सेहत के चलते अब उन्होंने अपने खेतों को बँटाई पर देना ही ठीक समझा। सोचा, उससे जो भी थोड़ा बहुत अनाज आएगा, उसी से गुजारा कर लेंगे।

बाकी खर्चा भी क्या था उनका! अभी तो किशन का भेजा पैसा ही बचा पड़ा था उनके पास। बच्चे उसके भले ही गाँव से चले गये थे, लेकिन वह महीने, दो महीने में माता-पिता को मनीऑर्डर करना न भूलता। वैसे उनके गाँव में रहते भी किशन पिता को ही घर खर्च के पैसे भेजता। बिन्दु ईर्ष्या से जल-भुन जाती। घर-बाहर ढिंढोरा पीटती, "मेरा तो पति की कमाई पर भी हक नहीं रहा। सबकुछ तो माँ-बाप ही हैं इनके। अरे, शहर में नहीं रखा तो पैसा ही मेरे नाम। से भेज देते। मैं कोई भूखा थोड़ी मार देती उन्हें। औरों के भी तो पति हैं। कैसे ठाठ से रह रही हैं उनकी पत्नियों!"

हालांकि किशन के पिता पैसा उसी के हाथ में रख देते। जब जितनी जरूरत होती, माँग लिया करते। लेकिन यह बात वह किसी को नहीं बताती।

चूल्हे बँटे तो मनीऑर्डर भी बँट गया। बिन्दु के भाइयों ने तो बिन्दु का वहीं बैंक में खाता खुलवा दिया। किशन के भेजे ड्राफ्ट अब वहीं जमा हो जाते।

"अब लगा पति की कमाई पर मेरा भी हक है।" वह भैया-भाभियों से चुटकी लेती।

किशन के माता-पिता को कुछ नहीं चाहिए था। दो ही प्राणी थे, सो खर्चा चल ही जाता। कमी थी तो अपनों की, प्यार के दो बोल की।

बिन्दु जब से गयी एक पत्र तक भेजना उचित नहीं समझा उसने। अब तो अपने बेटे की आखिरी निशानी के दो शब्द सुनने को भी कान तरस गये थे उनके।

ईश्वर से अब वह एक ही दुआ करते, "हे भगवान! अब तू हमें भी उठा ले।"

तेईस

इस बीच पल्लवी के सम्मान राशि लौटाने की खबर जिला मुख्यालय से सेना मुख्यालय पहुँच गयी। सभी हैरान थे कि आखिर इस महिला के मन में ऐसा क्या है, जो वह अपने भविष्य की इस एकमात्र सहारे की राशि को भी ठोकर मार रही है!

अन्ततः सेना के उच्च अधिकारियों ने तय किया कि कम से कम एक बार इस महिला से मिलकर जानें तो कि माजरा क्या है! उन्होंने उसे बुलावा भेजा। पल्लवी दिल्ली आ तो गयी, पर पूरी तरह अपने फैसले पर अडिग ही रही।

"आप इसे किसी की दया मत समझिए। यह तो देश के लिए दी गयी कुर्बानी के लिए दिल से दिया गया सम्मान है।"

थल सेनाध्यक्ष ने भी मुलाकात कर यही कहा, लेकिन पल्लवी ने आदर और विनम्रता से मना कर दिया, "आप मेरे पति की शहादत का वाकई सम्मान करना चाहते हैं तो प्लीज, मुझे उनका मिशन आगे बढ़ाने का अवसर दीजिए। सेना का अंग बनकर देश की सेवा करना चाहती हूँ मैं भी।"

उसने दृढ़ता से अपनी बात रखी।

"लेकिन सेना में अनुकम्पा के आधार पर तो नौकरी का कोई प्राविधान ही नहीं है।" सेनाध्यक्ष ने अपनी लाचारी जताई।

"सर, अनुकम्पा मैं भी नहीं चाहती। मैं अपने प्रयत्नों से ही इसे हासिल करूँगी।"

पर सहायता राशि की बात वहीं की वहीं रह गयी। सेनाध्यक्ष भी उसे मना नहीं पाए। धीरे-धीरे यह खबर अखबार वालों तक भी पहुँची तो सच्चाई जानने के लिए वे भी चक्कर काटने लगे। कोई शहीद-परिवार सहायता राशि लेने से ही इनकार कर दे अपने आप में बड़ी खबर तो थी ही यह।

अन्ततः तीनों सेनाओं के सर्वोच्च महामहिम राष्ट्रपति ने पल्लवी से मिलने की इच्छा जाहिर की।

पर पल्लवी टस से मस न हुई। उसका बड़ा ही भावनात्मक जवाब था, "आखिर ऊपर जाकर भी मुँह दिखाना है मुझे ध्रुव को। क्या कहेगा वह मुझसे! यही कि मेरे लक्ष्य की मर्यादा रखने की बजाय तुमने उसका सौदा कर दिया!"

"लेकिन बेटी! यह तो उसकी कुर्बानी का सम्मान है।"

"सर, आप हकीकत में सम्मान देना चाहते हैं तो मुझे सेना में सेवा करने का अवसर दे दीजिएगा।"

महामहिम निरुत्तर थे। ऐसा कोई प्राविधान था ही नहीं सेना में। और न आज तक के इतिहास में कोई ऐसी नजीर ही रही थी।

पल्लवी वापस लौट आयी। पर उसने मन-ही-मन संकल्प किया कि वह सेना में कमीशन हासिल करके ही रहेगी। इस बीच ध्रुव के फंड इत्यादि का पैसा भी मिल चुका था। इसे उसने श्रवण के नाम बैंक में जमा कर दिया।

घर वापस आते ही पल्लवी सेना में कमीशन की तैयारी में जुट गयी। ध्रुव की तैयारी के समय उसके सान्निध्य में रहने से उसे परीक्षा की तैयारी का काफी कुछ अनुभव हो गया था।

अब परीक्षा के लिए फॉर्म भरने और जरूरी किताबें लाने हेतु पल्लवी को शहर आना था। सोचा, इसी बहाने वहाँ मम्मी-पापा से भी मिलना हो जाएगा और गढ़वाली एल्बम बनाने वाली कम्पनियों से भी।

वे लोग श्रवण की आवाज रिकॉर्ड करना चाहते थे। अच्छा मौका है। श्रवण भी इस असह्य वेदना से उबर पाएगा। यह सोचकर वह श्रवण को भी साथ लेती गयी।

पार्वती को खबर लगी तो थोड़ा मन हल्का हुआ। कम से कम दिल तो लगा रहेगा। और फिर एक बार जहाँ पल्लवी कमीशन में निकल जाएगी तो जिन्दगी भी कट जाएगी और ध्रुव के लिए जो सपना उसने देखा है, वह भी पूरा हो जायेगा।

लेकिन रमाकान्त! पल्लवी के इस फैसले से वह तो और भी ज्यादा विचलित हो गये," क्या करना चाहती है ये लड़की, समझ में नहीं आता। आज तक किसी ने मना किया, सरकार द्वारा दी जाने वाली सम्मान-राशि के लिए? ऊपर से अब सेना में जाने की जिद। तुरन्त चिट्ठी लिखो और समझाओ उसे। कमबख्त, फोन भी तो नहीं है वहाँ पर, वरना बात ही कर लेते।"

पार्वती पर झुंझलाते हुए मन की व्यथा भी झलक रही थी उनकी।

संयोग से पल्लवी खुद ही आ गयी तो बड़ी राहत महसूस हुई उन्हें। हर बार तमतमाये रहते चेहरे पर आज पहली बार एक बाप की लाचारी दिख रही थी। इस बार उनके स्वर में वह पहले जैसी कठोरता भी नदारद थी। साफ लग रहा था कि वह अपनी बेटी के भविष्य को लेकर खासे चिन्तित हैं। बस किसी तरह उसका जीवन संवर जाए, यही चाहते थे अब। पहली बार आज पल्लवी को भी पापा का सुझाव अन्दर तक झकझोर गया।

आखिर बाप के भी तो कुछ अरमान होते हैं। हालात से परिपक्व पल्लवी अब पिता को और आहत नहीं करना चाहती थी। वह आज माँ की तरह सिर झुकाए खड़ी थी, विनीत भाव से सबकुछ आत्मसात करती हुई।

"मुझ पर यकीन कीजिए पापा।" वह आगे कुछ कहती, उसका गला भर आया।

आँखों से अश्रुधारा बह निकली। भाव-विह्वल पिता बेटी की यह दयनीय दशा देख और द्रवित हो उठे। उन्होंने उसके सिर पर हाथ फेरा और अन्दर उमड़-घुमड़ आई पीड़ा का ज्वार आँसू बनकर बाहर छलक पड़ता, इससे पहले ही वे तेजी से अन्दर कमरे में चले गये।

आखिर पिता थे। बेटी को बहुत लाड़-प्यार से पाल कर बड़ा किया था उन्होंने। उसके जीवन को हर कठिनाई से बचा कर रखना चाहते थे वहा लेकिन होनी को कौन टाल सकता है, पर अभी भी कोशिश कर रहे थे कि इस हादसे के बाद उसका जीवन संवर जाए।

'जो मैं चाहूँ वही हो' की जिद वाले रमाकान्त अब बहुत बदल गये थे। वह समझ गये थे, दिल डर से नहीं, प्यार से जीते जाते हैं। और अब तो बेटी की जिन्दगी का सवाल है। सो हिकारत से नहीं, बड़ी हिफाजत से मिलजुल कर ही कोई रास्ता निकालना होगा।

पति में यह कायाकल्प देखकर पार्वती मन-ही-मन ऊपर वाले का धन्यवाद अदा करती। उसे अब उम्मीद जगने लगी थी, मिलजुल कर कोई न कोई रास्ता जरूर निकल आयेगा।

इधर फॉर्म भरने तथा अन्य औपचारिकताएं पूरी करके पल्लवी ने परीक्षा सम्बन्धी कुछ किताबें खरीदी और माता-पिता से विदा ली।

रिकॉर्डिंग कम्पनी ने श्रवण का ऑडिशन ले ही लिया था। यही नहीं, अगले माह की तिथि देकर रिकॉर्डिंग का समय भी सुनिश्चित कर दिया था। ऑडिशन में निकल जाने से श्रवण बेहद खुश था।

"आप तो मेरे लिए साक्षात् देवी माँ हो भाभी जी। आप न होती तो आज मैं यहाँ कैसे पहुँच पाता! मुझे तो अपना ही जीवन बोझ लगने लगा था।" शहर से वापस लौटते हुए श्रवण भावुक हो उठा। रास्ते में कोई परेशानी न हो, यह सोच स्माकान्त ने अपनी गाड़ी भेज दी थी। साथ में ड्राइवर को निर्देश दे दिया था कि गाड़ी डॉलूडांडा में छोड़ उन दोनों को गाँव तक छोड़कर आए।

श्रवण के लिए तो डॉलूडांडा से गाँव तक डाँडी का प्रबन्ध पल्लवी पहले ही कर आयी थी। यहाँ तक गाड़ी के लिए पिता के आग्रह को टाला नहीं। अगर उनकी खुशी इसी में है तो उसे भी हरसम्भव इसका ध्यान रखना चाहिए, यह पल्लवी अब महसूस करने लगी थी। रास्ते भर भी वह पिता की मनोदशा को लेकर खोई रही। इस बीच श्रवण ने अपनी कृतज्ञता जताई तो उसकी तन्द्रा टूटी।

"तुम्हारे लिए मैं जो कुछ भी कर रही हूँ, वह सब ध्रुव की ही बदौलत है श्रवण। उसी का ये सपना था..." कहते-कहते उसकी आवाज भरी गयी।

"आज अगर ध्रुव होता तो कितना खुश होता अपने इस उत्साही श्रवण को देखकर!" वह मन ही मन बुदबुदायी।

श्रवण यह सबकुछ समझता था, लेकिन वह पल्लवी के गुणों का कायल था। ध्रुव तो भाई था, उसका अपना खून, लेकिन पल्लवी के इस आत्मीय रिश्ते के आगे भाई के खून का रिश्ता भी बौना लगने लगा था उसे। मन-ही-मन उसने ईष्ट देव का स्मरण किया, "हे भगवान, तेरा लाख-लाख शुक्र, जो ऐसी देवी माँ जैसी भाभी दी तूने मुझे।"

यही सोचते-विचारते, बातें बतियाते कब रास्ता कट गया, पता भी न चला।

गाँव आकर पल्लवी परीक्षा की तैयारी में जुट गयी तो श्रवण अपने रियाज़ में।

"भाभी, आपने तो सबके मुहँ में ताले जड़ दिए। अब नहीं बोलता कोई साला कुछ।" एक दिन कुन्ती ने बातों ही बातों में चहकते हुए यह कह डाला तो पल्लवी की भी जिज्ञासा जागी।

"क्यों क्या कहते थे लोग?"

"अरे भाभी, क्या-क्या नहीं कहते थे? कभी कहते, ये भी अब यहाँ रहेगी नहीं। वो बिन्दु को देखा! दो दिन भी नहीं रुकी वह किशन के गुजरने के बाद। और यह पैसा नहीं लेने का तो सिर्फ नाटक है। अरे कौन छोड़ता है आजकल पैसे! चुपचाप शहर जाकर सब कर लेगी कब्जा। वगैरह-वगैरह..."

"और अब क्या कहते हैं?" पल्लवी ने उत्सुकता से पूछा! कुन्ती से बात करके अच्छा लग रहा था उसे।

"अरे भाभी, पूछो मत। अब तो जैसे साँप सूंघ गया है इन सबको।" कुन्ती पालथी मार कर बैठ गयी। उत्साह और खुशी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी। और उसके बाद जो उसने बोलना शुरू किया, तो बस बोलती ही चली गयी, "कमबख्त बिन्दु से तुलना करते थे तुम्हारी।"

"क्यों क्या किया बिन्दु भाभी ने?"

"अरे बूढ़े सास-ससुर को अकेला छोड़कर तभी शहर चली गयी थी। मटकती हुई कमबख्त। बेचारे बहुत बीमार रहते हैं। अब उन्हें देखने भी नहीं आती। 'हाय' लगेगी उसको उनकी 'हाय'।" अचानक गम्भीर हो गयी कुन्ती।

पल्लवी को यह तो पता था कि बिन्दु तुरन्त ही गाँव छोड़कर शहर चली गयी थी, लेकिन बूढ़े सास-ससुर की सुध भी न लेना, यह बात उसे भी अखर गयी। कौन देखभाल करता होगा उनकी? इतनी निष्ठुर क्यों हो गयी बिन्दु? जीवन भर की इस डोर को क्या अचानक ऐसे तोड़ा जा सकता है? एक इन्सान के चले जाने से क्या उससे जुड़े सारे रिश्ते खत्म हो जाते हैं? ऐसे ही ढेर सारे सवाल पल्लवी के मन को मथने लगे।

बातों के सिलसिले को अचानक ठहरता देख कुन्ती ने चुप्पी तोड़ी," ये क्या पढ़ रही हो भाभी?"

"परीक्षा की तैयारी कर रही हूँ।"

"अरे हाँ, लोग कह रहे थे आप फौज में भर्ती होने जा रही हो!" बड़े कौतूहल से उसने ऐसे पूछा, मानो पल्लवी दुनिया का कितना अजूबा काम करने जा रही हो, और वह नामुराद है कि पूछना भी भूल गयी। और फिर अपलक उसे ऐसे निहारने लगी जैसे किसी परिचित से लग रहे आगन्तुक को पहचानने का प्रयास कर रही हो।

कुन्ती के इस मासूम सवाल पर पल्लवी को हँसी आ गयी। खैर, उसने उसे अपनी ओर से खूब समझाया, लेकिन कुन्ती जाते-जाते भी यह बात नहीं पचा पा रही थी कि फौज में एक औरत जात का क्या काम! कहीं वह भी उससे मजाक तो नहीं कर रही।

कुन्ती चली गयी तो पल्लवी फिर पढ़ाई में जुट गयी।

कुन्ती का आना उसे हमेशा ताजी हवा के झोंके के समान प्रतीत होता। जब भी आती है मन में उमंग और वातावरण में उत्साह बिखेर जाती है। इसको देखकर कौन कहेगा कि पतिगृह में क्या-क्या नहीं सहा है इसने!

जीवन फिर अपने ढर्रे पर चल निकला। पल्लवी ने सेना में प्रवेश की लिखित परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी और अब उसे अन्य औपचारिकताएं पूरी करनी थीं।

कल्याण सिंह और सुमित्रा बहू के व्यवहार से तो गद्गद थे ही, पर अब श्रवण की कायापलट से उन्हें जैसे नया जीवन मिल गया था। श्रवण की अब रिकॉर्डिंग भी हो चुकी थी और बहुत जल्दी ही उसकी कैसेट बाजार में आने वाली थी।

इस बीच पल्लवी कभी श्रवण के काम के लिए तो कभी अपनी परीक्षा की तैयारी के लिए शहर जाती, तो माता-पिता के पास भी हो आती। माँ तो जैसी पहले थी वैसी ही थी, लेकिन पिता में आया सुखद बदलाव उसे अन्दर तक झकझोर जाता। पैसे को ही खुशी का सबसे बड़ा जरिया समझने वाले रमाकान्त अब बिल्कुल ही बदल गये थे और यह बदलाव अब उनके व्यवहार में भी साफ झलकता।

सिद्धार्थ अब आगे की पढ़ाई के लिए अमेरिका चला गया। पल्लवी जब भी मायके आती, भाई से फोन पर बात हो जाती। खूब मन होता कि उससे अपने आत्मीय लम्हे बाँटे, लेकिन उसका औपचारिक व्यवहार सारा उत्साह ठंडा कर जाता। कभी-कभी तो उसे उसमें पिता का पुराना अक्स नजर आने लगता। वही दर्प, वही दम्भ, वही पैसा-पैसा और वही बड़बोलापन। लगता जैसे वह अमेरिका में नहीं, साक्षात् कुबेर की अलकापुरी में रह रहा हो और हम यहाँ सदियों पुरानी किसी कबीलाई दुनिया में। पल्लवी को भाई का बड़बोलापन अखरता।

"डॉक्टर जैसे पवित्र पेशे में आकर भी ऐसा दर्रा और पैसे के लिए इतना मोह!" पल्लवी सोचती रह जाती, लेकिन कुछ कह न पाती। शायद पिता की तरह वह भी समय आने पर बदल जाए, वह यही सोचा करती और मन-ही-मन कामना भी करती।

आखिर वह दिन भी आ गया जब पल्लवी ने सेना में प्रवेश लेने हेतु अन्तिम परीक्षा भी पास कर ली। पल्लवी की यह सफलता राष्ट्रीय खबर बन चुकी थी। एक वर्ष पहले ही सहायता राशि ठुकराकर सेना में शामिल होने का संकल्प ले चुकी पल्लवी की सफलता पर सबकी निगाहें टिकी थीं।

पल्लवी को बधाई देने वालों का तांता लग गया। पर उसे अपनी सफलता पर खुशी कम, ध्रुव की आत्मा की शान्ति का सुकून ज्यादा था। और आज तो ध्रुव उसे अपने और भी ज्यादा करीब महसूस हो रहा था।

अब पल्लवी को प्रशिक्षण के लिए जाना था। कल्याण सिंह और सुमित्रा का तो दिन का चैन और रातों की नींद उड़ गयी। वह उनके बुढ़ापे का सहारा तो थी ही, उनके बेटे ध्रुव की जगह भी अब वही थी। ध्रुव को तो वो हमेशा के लिए विदा कर चुके थे, पर वह अब बहू को किसी सूरत में विदा करने को तैयार न थे। लेकिन पल्लवी की इतनी तपस्या और ध्रुव की आत्मा का ख्याल उन्हें अन्दर से सम्बल देता। अन्ततः उन्होंने तय कर लिया कि वह उसकी राह का रोड़ा नहीं बनेंगे।

गाँव इलाके में एक बार फिर खुसर-फुसर होने लगी। कोई कहता, अब नौकरी करने जा रही है बहू, वो भी बड़ी अफसर बनने। अब तो क्या लौट कर आएगी? वहीं शायद शादी कर लेगी अपने किसी साथी अफसर से, तो कोई कहता कि जब उसे नौकरी करने जाना ही था तो बेचारे सास-ससुर के लिए पैसा तो दे जाती। कुछ तो भला होता उनका! आज पैसा भी नहीं मिला और बहू भी छोड़ कर जा रही है उन्हें।

कुन्ती ने सुना तो उसका खून खौल उठा, पर किस-किस का मुँह पकड़ती! पिछली बार लोग चुप हो गये थे, इस बार भी हो जाएँगे। यही समझ वह शान्त हो गयी।

जाने से पहले सास-ससुर की पूरी जिम्मेदारी कुन्ती को सौंप गयी पल्लवी। श्रवण की चिन्ता थी उसे, लेकिन सुमित्रा ने वह भी दूर कर दी।

"बेटी! हाथ-पैर चल रहे हैं हमारे। उसे हम देख लेंगे, तू चिन्ता मत कर। अपना खयाल रखना, बस!"

पल्लवी सब तरफ से निश्चिन्त होकर अपने प्रशिक्षण के लिए रवाना हो गयी। सुमित्रा को लग रहा था जैसे समय खुद को दोहरा रहा हो। कुछ वर्ष पहले वह ध्रुव को छोड़ने इसी धार तक आयी थी, आज वह यहीं पल्लवी को छोड़ने आयी है और वह भी उसी मकसद से। उसकी आँखें भर आयौं। कल्याण सिंह गाँव के तीन-चार लड़कों के साथ उसे बस अड्डे तक छोड़ने गये।

पल्लवी चली गयी। कुछ लोगों के मन में ढेर सारी शंकाएँ देकर, तो कुन्ती जैसे कुछ लोगों को आत्मीय रिश्ते की ऊष्मा से भावविभोर करके, जीवन जीने की प्रेरणा देकर, अपने दिवंगत पति के मिशन को पूरा करने के लिए।

चौबीस

इधर जैसे-जैसे समय का पहिया बढ़ रहा था, वैसे-वैसे किशन के माता-पिता की हालत खराब होती जा रही थी। उनकी तबियत अब अक्सर खराब रहती। गाँव के ही कुछ सहृदय लोग सुबह-शाम दो रोटी बनाकर दे देते तो पेट की आग शान्त हो जाती, वरना वे दोनों वैसे ही पड़े रहते निढाल।

किशन के साथी गाँव के पंचायती चौक में उसकी मूर्ति लगवाना चाह रहे थे ताकि उसकी यादें हमेशा के लिए जीवित रहें और आने वाली पीढ़ियाँ उससे प्रेरणा ले सकें। इसके लिए वे लोग किशन के माता-पिता से भी आर्थिक सहायता चाहते थे।

लेकिन क्या देते वो? कुछ भी तो नहीं था उनके पास। जो पैसा बचाकर रखा भी था, वो इस बीच छीज गया। फिर भी झाड़-पोंछकर जो कुछ भी निकला, वो दे दिया।

किशन का एक मित्र, जो स्वयं भी फौज में ही था, अनायास गाँव आया और जब उसे बिन्दु की हरकतों का पता चला तो उसका खून खौल उठा।

"ताई जी! आप भाभी पर मुकदमा क्यों नहीं कर देते? जीविकोपार्जन के लिए तो आपका भी कानूनन अधिकार है उस पैसे पर।"

किशन के पिता बड़े ही निरीह भाव से मुस्कुरा दिए, "किस पर मुकदमा करें, बेटा? अपनी ही बहू पर? या फिर अपनी किस्मत पर? सिर्फ पैसे के लिए भला इतनी नीचता पर कैसे उतर सकते हैं हम?"

"लेकिन ताऊ..." वह आगे बोलता तो माँ झट बोल पड़ी, "बेटा! जब अपना बेटा ही नहीं रहा तो क्या करना पैसे का? ईश्वर तो अब ये साँसें भी छीन ले तो अच्छा।" उसने लम्बी साँस भरी और फिर फफक पड़ी।

गाँव के युवाओं के प्रयास से चौक में किशन की मूर्ति स्थापित हो गयी। कुछ लोगों का सुझाव था कि इस अवसर पर बिन्दु को भी बुला लेते तो ठीक रहता। कम से कम उसे एहसास तो होता कि गाँव के लोग किशन का कितना सम्मान करते हैं, लेकिन बिन्दु का अपने सास-ससुर के प्रति व्यवहार देख किशन के मित्र कतई उसे बुलाने के पक्ष में नहीं थे।

अन्ततः मूर्ति का अनावरण किशन के पिता द्वारा ही किया गया और बिन्दु को इसकी खबर भी नहीं भेजी गयी। साथ ही उसी दिन यह भी तय किया गया कि किशन के माता-पिता का ध्यान रखना अब गाँव की सामूहिक जिम्मेदारी होगी।

कभी ऐसे दिन भी आएँगे, इस बात का किशन के माता-पिता को सपने में भी गुमान नहीं था। अपनों से ठुकाराए गये वृद्ध दम्पती की देखभाल के लिए गांववालों व किशन के मित्रों की सह्रदयता देख, उनकी आँखें भर आयीं।

उधर बिन्दु धीरे-धीरे किशन की मौत का दु:ख भुलाकर सामान्य जीवन जीने लगी थी। पैसे की तो कोई कमी थी नहीं। पेट्रोल पम्प का कार्य भी आरम्भ हो गया था। पता चला, इसमें कुछ पैसा वकील साहब का भी लगा है। सच्चाई क्या थी यह तो बिन्दु को भी नहीं पता था, लेकिन उसे भी यही बताया गया था। उसके लिए तो पेंशन की राशि ही इतनी थी कि उसका खर्चा आराम से निकल जाता।

"बिन्दु, अपनी जिन्दगी के बारे में क्या सोचा है तूने?" भाभी ने एक दिन बड़ा लाड़-प्यार दिखाते हुए पूछा तो बिन्दु चौंक पड़ी।

"सोचने को रहा क्या है अब? जैसे भी होगा अपने बेटे को पढ़ा-लिखा कर इस लायक बनवा दूँगी कि कम से कम अपने पैरों पर खड़ा तो हो जाए। और क्या?" वह समझ नहीं पायी कि ऐसा क्यों पूछा उसकी भाभी ने उससे?

"अभी उम्र ही क्या है तेरी और फिर ये पहाड़ जैसी जिन्दगी! अकेले कैसे काटेगी?" भाभी ने आगे बात बढ़ायी।

"अब इसके अलावा चारा ही क्या है भाभी? जब भगवान ने ही साथ नहीं दिया तो मैं उसके लिखे को कैसे बदल सकती हूँ?" बिन्दु के स्वर में अचानक गहरी उदासी भर आयी।

"किस्मत का लिखा भी बदला जा सकता है बिन्दु। अपनी जिन्दगी फिर से शुरू कर।" भाभी कुछ देर चुप रही। शायद बिन्दु के चेहरे के भावों को पढ़ने का प्रयास करने लगी वह। बिन्दु के चेहरे पर एक भाव जा रहा था तो दूसरा आ रहा था। "आखिर क्या कहना चाहती है भाभी, कैसे शुरू करूँ मैं अपनी जिन्दगी फिर से?"

"तू दूसरा विवाह क्यों नहीं कर लेती? तेरे भैया भी यही कह रहे थे।" बिन्दु कोई प्रतिक्रिया जताती, उससे पहले ही बोल उठी भाभी।

"नहीं भाभी, ये सम्भव नहीं है।" मानो करंट-सा लगा हो उसे। और एक झटके से उठ बिन्दु अपने घर में आ गयी। पहाड़ी समाज में विधवा का दूसरा विवाह अब भी आम बात नहीं थी। उसने स्वयं देखा था गाँव में छोटी उम्र में विधवा हुई औरतों को, जो अपने संयम और अच्छे चरित्र से गाँव भर में नजीर बनी हैं आज भी।

पिछले कुछ वर्षों से ही समाज में इधर कुछ बदलाव आया है और कुछ सहृदय सास-ससुर स्वयं ही बहू की छोटी उम्र को ध्यान में रख उसके पुनर्विवाह हेतु राजी होने लगे हैं।

लेकिन बिन्दु! उसकी तो बात ही और थी। अपने सास-ससुर से तो उसने कोई मतलब ही नहीं रखा था। पति की मृत्यु के बाद से ही उसने पतिगृह से नाता ही तोड़ लिया था। अब उनके समर्थन या विरोध का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता था।

"क्या भाभी ठीक कह रही है? क्या इतना लम्बा जीवन अकेले नहीं काट पायेगी वह?... लेकिन सोनू तो है। उसके सहारे पूरा जीवन काट सकती है।" इस गहरे अन्तर्द्वन्द्व में फंस गयी बिन्दु। एक मन ऐसा सोचता तो दूसरा मन विरोध पर उतर आता।

"पढ़-लिख कर कौन-सा उसके पास रहने वाला है सोनू! और फिर उसका भी तो विवाह हो जाएगा। बहू अच्छी हुई तो ठीक वरना... अकेले ही रहना है उसे फिर..." और इस कल्पना मात्र से ही मन सिहर उठता उसका। उसने हमेशा अपने बारे में ही सोचा था। और इस बार भी अपने बारे में सोचते हुए उसे अपने सास-ससुर का जरा भी खयाल नहीं आया। उन्हें भी तो अकेला असहाय छोड़ आई थी वह।

कई दिनों के अन्तर्द्वन्द्व और भाभी-भाइयों के समझाने के बाद आखिरकार बिन्दु तैयार हो गयी। पर कौन करेगा उससे विवाह? अब तो किसी की विधवा है वह। और एक बच्चे की माँ भी।

"वकील साहब हैं न वो विवाह करना चाहते हैं तुझसे। और ये मत समझना कि वो सिर्फ दयावश ऐसा कर रहे हैं। सोनू से बहुत लगाव हो गया है उन्हें, इसलिए।"

चतुराई से भाभी ने एक दिन बिन्दु की उचित मन:स्थिति देखते ही तरन्त सुझाव दे डाला। ". "तलाकशुदा हैं। कोई जिम्मेदारी भी नहीं है उनके सिर पर। हमेशा तेरे ही होकर रहेंगे।" लगे हाथ भाभी ने खूबियौं भी गिनवानी शुरू कर दी उनकी।.

"लेकिन उनका तलाक क्यों हुआ?" बिन्दु के मन में स्वाभाविक प्रश्न उठा?

तलाक का कारण भाभी को पता होता तो वह बताती। उसकी निगाह में तो वकील साहब बहुत अच्छे इन्सान थे। हमेशा उनकी मदद ही की है, उन्होंने तो।

बिन्दु ने भी पिछले एक-डेढ़ वर्ष का आकलन किया तो उनके चरित्र की कोई भी बुरी बात उसे याद न आयी। हमेशा उसकी भी मदद करने का ही प्रयास किया उन्होंने। और अब तो पेट्रोल पम्प में उनका पैसा लगा होने के कारण वह उसमें साझीदार भी हो गये थे।

कुछ दिन के सोच-विचार के बाद आखिर बिन्दु ने 'हाँ' कर दी। दोनों भाई-भाभी खुश थे। बिन्दु की जिन्दगी फिर से बस जाएगी और सोनू को भी पिता का प्यार मिल जाएगा। लेकिन जिस बच्चे के लिए पिता का प्यार ढूँढा जा रहा था, उसके बारे में किसी ने नहीं सोचा। बालमन है, जल्दी ही प्यार-दुलार से सब ठीक हो जाएगा, यही सोचकर सब निश्चिन्त थे।

और एक दिन घर के लोगों की उपस्थिति में बिन्दु और वकील साहब विवाह-सूत्र में बंध गये। जिन परिस्थितियों में यह विवाह हो रहा था, उसमें कोई समारोह आयोजित करना किसी को भी अच्छा न लगा। बिन्दु और सोनू किराये के घर से वकील साहब के घर पर आ गये।

"माँ, हम यहाँ क्यों आए? ये तो अंकल का घर है।"

"बेटा! अब हम अंकल नहीं, तुम्हारे पापा हैं।" सोनू की बात का झट से जवाब दिया वकील साहब ने।

"नहीं, आप मेरे पापा कैसे हो सकते हैं? हमारे पापा तो भगवान के पास चले गये हैं।" कहते हुए सोनू माँ से लिपट गया।

"उसे अभी कुछ मत कहो। धीरे-धीरे सब समझ आ जाएगा।" बिन्दु ने आते ही वकील साहब की गृहस्थी सँभाल ली। कई वर्षों से किसी महिला के न रहने से अव्यवस्थित पड़ा घर, बिन्दु के सुघड़ हाथों से घर जैसा लगने लगा था।

लेकिन एक बात उसे बहुत अजीब लगी थी। उनकी पूर्व पत्नी के कपड़े और सामान आज भी उनके घर में इधर-उधर जस के तस पड़े थे। जब इतने वर्षों से साथ नहीं रहते और तलाक भी हो चुका है तो ये सामान यहाँ क्या कर रहा है?

बिन्दु का मन हुआ पूछ ले। लेकिन संकोच के कारण चुप रही। वकील साहब का स्नेहिल स्वभाव देख अपनी शंका को मन में ही दबा लेना उचित समझा उसने। धीरे-धीरे बिन्दु को भी लगने लगा था कि उसके भाइयों और भाभियों ने दूसरा विवाह करने की ठीक ही सलाह दी थी उसे।

बिन्दु के विवाह की ख़बर किशन के माता-पिता तक पहुँची तो उन्हें भी प्रसन्नता हुई। चलो अच्छा है। असमय विधवा हुई बिन्दु का घर फिर से बस गया, लेकिन साथ ही इस बात का दुःख भी हुआ कि बिन्दु और उसके भाइयों ने एक बार भी उनसे पूछना जरूरी नहीं समझा।

"हम क्या मना कर देते!"

"अरे, हम भी इस खुशी में शरीक हो लेते। खैर, भगवान उसे खुश रखेंगे।" किशन के पिता ने कहा तो माँ ने भी हाँ में हाँ मिलायी।

"अरे, ऐसे देवता जैसे सास-ससुर के साथ बुरा किया उसने। उन्हें दाने-दाने को मोहताज कर दिया। उसे तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी।" एक वृद्ध महिला अपने मन की बात जुबां पर ले आयी, तो दूसरी तो सरकार को ही कोसने लगी।

"सरकार ने भी न जाने कैसे नियम बनाये हैं। अगर पत्नी ने अपना पति खोया है तो माँ-बाप ने भी तो बेटा खोया है। उनका भी तो वही सहारा था। इस सरकार ने तो कर दिया उन्हें लाचार।"

जितने मुँह उतनी बातें और निचोड़ यही कि बिन्दु जैसी बहू न मिले किसी को और सरकार भी अपनी रीति-नीति बदले।

"जो ऐसे वृद्ध और लाचार लोगों के साथ बुरा करता है, भगवान भी भला नहीं करता उसका। अपनी करनी का फल इसी जन्म में भुगतेगी बिन्दु। तुम देखते रहना।" एक महिला के मुँह से ये शब्द सुनकर विचलित हो उठी किशन की माँ।

"ऐसा मत कहो दीदी। हमारे किशन की आखिरी निशानी सोनू भी तो उसी के साथ है। उसके साथ बुरा होगा तो वह कैसे बचेगा! सभी को अपनी जिन्दगी जीने का हक है। बिन्दु ने भी अगर अपने बारे में सोचा, तो क्या बुरा किया!"

बिन्दु की चर्चा हुई नहीं कि स्वतः ही पल्लवी का जिक्र भी आ गया। किशन की बुआ के चलते यहाँ पल्लवी के त्याग और ध्रुव के परिवार के लिए उसके समर्पण की बात भी छिड़ गयी। ऐसे में दोनों की तुलना होना तो स्वाभाविक ही था।

"सब पूर्वजन्मों के कर्मों का फल है। जिसको जो भोगना है, और जितनी साँसें भगवान ने उनके खाते में लिख दी हैं, वह तो भोगनी ही पड़ेंगी। बस ईश्वर हमारे सोनू को ठीक रखे, यही एक प्रार्थना है ईष्ट देव से।" किशन की माँ ने ठंडी आह भरी।

पच्चीस

देवी धार की रौनक आज देखने लायक थी। हवाओं में हर तरफ तैर रहा था फागुनी उल्लास। बीच-बीच में ढोल-मंजीरों की आवाज, गितारियों के मदमस्त गीत और श्रवण की टोली की तान इसमें और मस्ती घोल रही थी। पहाड़ की धार पर बसा ये गाँव आज दुल्हन की तरह सजा था। बहू-बेटियाँ पारम्परिक पोशाकों में स्वागत की तैयारियों में लगी थीं।

गाँव के आधे लोग तो इस समय डॉलूडांडा बस अड्डे पर बेसब्री से इन्तजारी में थे। पूरा गाँव खुशी में झूम रहा था। उनकी खुशी थी पल्लवी, जो आज बहू ही नहीं, पूरे गाँव की बेटी बन गयी थी। इलाके का गौरव। दूर डॉलूडांडा तक आज उसी की चर्चा थी।

अरे वही पल्लवी, देवीधार के शहीद कैप्टन ध्रुव की पत्नी। जिसने पति की शहादत की सम्मान राशि भी लौटा दी थी और आज खुद भी फौज में कमीशन पाकर कैप्टन बनकर लौट रही है। लोगों की जुबान पर ही नहीं, अखबारों में भी आज यह खबर सुर्खियों में थी।

गाँव तो गाँव आसपास के बड़े बुजुर्ग भी उसकी तारीफ करते नहीं अघा रहे थे, "अरे जिस गाँव की लड़कियों ने कभी दसवीं के बाद कॉलेज का मुँह तक नहीं देखा और जिस इलाके में गिनती भर की कुछ भाग्यशाली बेटियाँ जैसे-तैसे बी.टी.सी. करके प्राइमरी स्कूल में नौकरी पा सकी हैं, आज वहीं की एक बहू पूरे देश में नाम कमा फौजी अफसर बनकर आ रही है।"

चर्चा तो इलाके में पल्लवी के प्रशिक्षण में जाने के समय भी खूब थी। पर तब यह अन्देशा भी था कि अब वह लौटकर गाँव में आएगी भी कि नहीं! लेकिन मजाल है, वह जरा भी बदली हो। यहाँ तक कि व्यस्त और हाड़तोड़ प्रशिक्षण के दौरान भी वह कभी अपने सास-ससुर को नहीं भूली। लगातार पत्र-व्यवहार करती रही। अपने वेतन का एक हिस्सा हर माह समय से घर भेजना -कभी न भूलती थी वह। इसको लेकर पोस्टमैन भी गद्गद रहता। रह न पाया तो एक दिन सुमित्रा के आगे दिल की बात कह ही डाली उसने, "दीदी, मोती दान किये होंगे पूर्वजन्म में जो ऐसी बहू तुम दोनों को मिली है।"

आज फिर गहमागहमी थी। पल्लवी को लेने कल्याण सिंह भी बस-अड्डे तक गये थे।

सड़क किनारे गाँव के कुछ लोग देख पल्लवी ने गाड़ी रुकवा दी। खिड़की से झोंका तो वहाँ खड़ी भीड़ देखकर हैरान रह गयी। आधा गाँव उसे लेने के लिए खड़ा था और उसी भीड़ में उसके ससुर कल्याण सिंह भी थे। झट गाड़ी से उतरकर पल्लवी ने आगे बढ़कर ससुर के पैर छुए तो उन्होंने स्नेह से सिर पर हाथ फेरा और फिर ऐसे फफक पड़े मानो मेले में छूट गया किसी का बच्चा, मिलने पर माँ से पूछ रहा हो, कहाँ चली गयी थी तू मुझे छोड़कर?

मिलने-मिलाने का यह सिलसिला लगभग आधा घंटा चला। और फिर शुरू हुई यहाँ से गाँव तक की पैदल यात्रा। श्रवण के लिए डांडी की व्यवस्था की गयी थी और गाँव के ही लड़के उसे बारी-बारी से लेकर चल रहे थे।

रास्ते भर बातें करते-करते, पल्लवी जब घर पहुँची, हल्का-सा अँधेरा घिरने लगा था, लेकिन सारा गाँव रोशनी से ऐसे जगमगा रहा था मानो आज गाँव में दीवाली हो। रंगबिरंगे लटुओं की कतारें और उनके बीच में फूलों से की गयी सजावट उसे और भी आकर्षक बना रही थी। नीचे के खेतों में बड़े-बड़े चूल्हे जले थे और उनमें बड़े-बड़े कड़ाहों और पतीलों में बनने वाले पकवानों की खुशबू हवा को महका रही थी।

गाँव के सरपंच काका खुद घूम-घूमकर सारी स्थिति का जायजा ले रहे थे, ताकि कहीं कोई कमी न रह जाय। यह सब देख कर तो पल्लवी अभिभूत हो गयी। वह मन-ही-मन सवाल कर रही थी, क्या उन शहरों में मिल सकता है इतना प्यार, इतना सम्मान, जहाँ अपने पड़ोसी तक को लोग नहीं पहचानते?

"बेटी थक गयी होगी तुम। थोड़ी देर आराम कर लो।" सुमित्रा प्यार से पल्लवी के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली।

पल्लवी जैसे इसी इन्तजार में थी। वह थकी तो नहीं थी, लेकिन कुछ देर अपने कमरे में एकान्तवास चाहती थी। वह चुपचाप जाकर ध्रुव की तस्वीर के आगे खड़ी हो गयी। लगा, जैसे वर्दी पहने ध्रुव का मुस्कुराता हुआ चेहरा अभी बोल पड़ेगा।

"धूव! तुम्हारी हर ख्वाहिश मैं पूरी करूँगी। मैं हूँ न! पूरा जीवन लगा देंगी तुम्हारे संकल्पों के लिए। तुम बिल्कुल दुःखी मत होना।"

लेकिन ध्रुव क्या जवाब देता! मुस्कराता हुआ मानो एकटक उसी को अपलक निहारे जा रहा था मानो मनोकामनाएं पूरी होने का आशीर्वाद दे रहा हो।

पल्लवी ने ध्रुव की तस्वीर दीवार से उतार ली और उसे लेकर बिस्तर पर बैठ गयी। आज उसे ध्रुव बहुत याद आ रहा था। न जाने कितनी देर वह उसकी तस्वीर से बात करती रही और जब कोई जवाब न मिला तो उसे सीने से लगाकर फफक पड़ी। फिर खोई रही कुछ देर किसी और ही दुनिया में।

अचानक पीछे से किसी की सिसकी भरने की आवाज आयी तो वह चौंक उठी। पीछे कुन्ती खड़ी थी। आँसुओं से सराबोर चेहरा। शायद पल्लवी जल्दी में अन्दर से चिटकनी लगाना भूल गयी थी। धीरे से उठी, तस्वीर को यथास्थान रखकर उसने मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कुन्ती का मूक अभिवादन किया।

"आपको मिलने आयी थी। माफ करना। दरवाजा खुला था तो सीधे अन्दर ही चली आयी।" कुन्ती के चेहरे पर अपराधबोध को भाँप पल्लवी ने उसे बाँह से पकड़कर अपने पास बिठा लिया। हमेशा हँसती-खेलती कुन्ती को इस रूप में कम ही देखा था पल्लवी ने। पर इस खिलखिलाते चेहरे के पीछे की कसक भी जानती थी वह। कुछ पल यूँ ही आँखों से मूक सम्प्रेषण चलता रहा। दोनों ही नियति की मार झेल रही थीं। सो आँखों ही आँखों में समझ गयीं एक-दूसरे के दिल की बातें। एक दूसरे से लिपटकर मन थोड़ा हल्का हुआ तो दोनों कमरे से बाहर निकल आई।

अब तक समूचा गाँव उत्सवी माहौल में डूब चुका था। एक तरफ ढोल दमाऊँ और मशकबाजे की ध्वनि, तो दूसरी ओर पंचायती चौक में होने वाले थड्या, चौंफला नृत्यों की स्वर लहरी। लोगों की गहरी आत्मीयता और उमंग देखकर पल्लवी अभिभूत थी। कितना प्यार और सौहार्द्र है यहाँ की मिट्टी में, यहाँ के लोगों में! पल्लवी को अपने विवाह का दिन याद आ गया। उस दिन भी गाँव में ऐसा ही जश्न मन रहा था। देर शाम वह दुल्हन बनी पारम्परिक वाद्य यन्त्रों की मदमस्त धुनों के बीच कलाकारों एवं बारातियों के साथ पहुँची तो गाँव भर की महिलाओं और लड़कियों ने उसे घेर लिया था।

बुजुर्ग महिलाएँ छू-छूकर उसके गहनों का बजन तौल रही थीं तो बाकी महिलाएँ उसकी सुन्दरता देख गद्गद हो रही थीं।

"देवर जी, तुम तो छुपे रुस्तम निकले। मानना पड़ेगा, लड़की तो बड़ी चुन कर लाए हो।" किसी काम से अन्दर आए ध्रुव से गाँव की ही एक भाभी ने चुटकी ली तो वह झेंपकर तुरन्त ही बाहर निकल गया था। देर रात तक मुँहदिखाई की रस्म चलती रही। साथ ही साथ पल्लवी के लाये हुए उपहार भी उन्हें दिए जाते रहे।

बाहर युवा ढोल की थाप और ठेठ पहाड़ी मुजरों पर जमकर थिरक रहे थे। पल्लवी को शहरी डीजे इसके आगे बिल्कुल फीका और उबाऊ लग रहा था। मन हुआ वह भी कूद पड़े इनके बीच नाचने को। ठीक वैसी ही मस्ती आज भी थी। उसे फिर से अपना अतीत, अपना ध्रुव याद आ गया।

"काश! वह होता तो आज मैं भी थिरक उठती।" उसकी आँखें भर आयीं। पल्लवी कुछ दिन के लिए ही गाँव आयी थी, उसके बाद उसे अपने नियुक्ति स्थल के लिए रवाना होना था।

इस एक सप्ताह में उसे घर के ढेर सारे काम करने थे। सास-ससुर की बढ़ती उम्र, श्रवण की देखभाल को देखते हुए उसने गाँव के ही एक अत्यन्त निर्धन-अनाथ लड़के को घर पर काम के लिए रख दिया। श्रवण के लिए संगीत सम्बन्धी कई किताबें आदि भी लेकर आयी थी और गाँव के ही एक लड़के को कभी रिकॉर्डिंग हेतु श्रवण को शहर ले जाने की जिम्मेदारी भी सौंप दी उसने।

पल्लवी के मन में कई दिन से एक विचार उमड़-घुमड़ रहा था कि क्यों न ध्रुव की याद में कोई ऐसी संस्था गाँव में खोल दी जाए, जिससे गाँव-इलाके का भला भी हो और ध्रुव हमेशा लोगों के दिलों में धड़कता भी रहे। इसी ऊहापोह में डूबी पल्लवी एक सप्ताह बाद ही गाँव से देश की सेवा के लिए रवाना हो गयी। सुमित्रा को वह दिन याद आ गया, जब कमीशन प्राप्त करने के बाद ध्रुव पहली बार अपनी नियुक्ति पर गया था और आज उसकी बहू पल्लवी खुद ही जा रही थी।

"अपना ध्यान रखना माँ।" पल्लवी ने सुमित्रा के चरण स्पर्श किए तो उसने उसे अपनी बाँहों में भरकर छाती से लगा लिया। पहली बार बेटी के सुख की अनुभूति से अभिभूत वह कुछ देर पल्लवी को अपने आलिंगन पाश में बाँध रही।

कल्याण सिंह पल्लवी के ना-ना करने के बावजूद गाँव के कुछ युवकों के साथ उसे छोड़ने बस अड्डे तक चले आए।

पल्लवी चली गयी- सारे गाँव इलाके के लिए उदाहरण बन कर। बात-बात पर गाँव के लोग अब अपनी बहू-बेटियों की तुलना पल्लवी से करने लगे। किसी के लिए वह एक आदर्श बेटी, किसी के लिए एक आदर्श बहू, तो किसी के लिए एक आदर्श पत्नी का जीवन्त बिम्ब बन गयी थी। धीरे-धीरे लोग उसे अपनी कुल देवी का अवतार ही मानने लगे। एक आदर्श बेटी, एक आदर्श बहू और एक आदर्श पत्नी, जिसने कुछ माह पुराने रिश्ते के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।

छब्बीस

इधर वकील साहब की असलियत अब धीरे-धीरे बिन्दु के सामने खुलने लगी थी। जिस मकान को वह अपना कहते थे, वह दरअसल किराए का था। मकान मालिक शहर से बाहर रहता, इसलिए इसकी सारी देखरेख का जिम्मा उन्हीं का था। जो भी वहाँ मिलने आता, उसे लगता मकान वकील साहब का ही है। और फिर बड़े शहरों की तरह यहाँ भी अगल-बगल वालों को किसी से कोई मतलब था नहीं। फिर उनका ठसका देखकर बिन्दु के भाई भी यही समझते रहे कि यह मकान उन्हीं का है।

और वह तो बेचारी नयी ही थी। शुरुआती दौर में ही ढेर सारा स्नेह जताकर, उन्होंने बिन्दु के बैंक खाते और सारे कागजात आदि कब्जा लिए थे। यही नहीं, और भी न जाने किन-किन कागजों पर हस्ताक्षर करवा लिये थे। कुछ तो पढ़ाई-लिखाई और दुनियादारी से बेखबर और कुछ वकील साहब की आत्मीयता के कारण, बिन्दु ने बगैर किसी हील-हुज्जत के सभी कागज़ों पर हस्ताक्षर कर दिए। जब देखा, अब बिन्दु से कोई मतलब नहीं रह गया, तो उनके सुर और रंग-ढंग बदलने लगे। यही नहीं, अब तो बिन्दु की पेंशन भी उसके हाथ में नहीं आती थी और तो और सोनू की जरूरतों तक के लिए उसे उन्हीं के आगे हाथ फैलाना पड़ता। और वकील साहब थे कि इसके लिए भी खूब नाक-भौं सिकोड़ने लगे, "तुम जानती नहीं, कैसे खर्चा चला रहा हूँ मैं घर का। पेट्रोल पम्प में भी नुकसान हो रहा है आजकल।"

बिन्दु चुप हो जाती। सोचती शायद नुकसान ही हो रहा होगा। और वह नाहक उन्हें परेशान कर रही है।

पर इतना ही नहीं, धीरे-धीरे वह शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना पर भी उतर आए तो उसने मजबूर होकर सारा हाल भाई-भाभी को सुना दिया।

"अरे सबकुछ देखभाल कर ही तो शादी की है हमने तुम्हारी। थोड़ा। ऊँच-नीच होती रहती है। अब निभाना तो तुम्हारा ही काम है।"

भाभी ने साफ पल्ला झाड़ लिया तो भैया भी बस उसकी ही हाँ में हाँ मिलरते रहे। अपना सा मुँह लेकर लौट आयी बिन्दु। लेकिन ये क्या! वह घर पहुँची तो वहाँ एक महिला उसकी प्रतीक्षा में बैठी थी।

"आप कौन?"

"आप कौन हो? आप बताइए।" जवाब देने की बजाय उस महिला ने उल्टा प्रश्न किया।

"मैं वकील साहब की पत्नी।"

"अच्छा! तुम पत्नी हो, तो मैं कौन हूँ।" महिला ने खीझकर अगला प्रश्न किया।

"मुझे नहीं पता। आप ही बता दीजिए?" बिन्दु ने सकपकाते हुए जवाब दिया।

"मैं वकील साहब की पत्नी हूँ। बहुत दिनों से कोई खबर ही नहीं ली हमारी तो मैं खुद ही चली आयी। पर यहाँ तो चक्कर ही कुछ और दिख रहा है।"

वह जोर-जोर से चिल्लाने लगी तो बिन्दु झेंप गयी। कहीं आस-पड़ोस वाले न सुन लें, उसे मिन्नत कर वह अन्दर ले आयी।

"लेकिन वे तो कह रहे थे कि उनका तलाक हो गया।" रुआँसी-सी होकर बिन्दु बोली।

"ओ हो... तो तुम्हें बेवकूफ बना दिया इसने? दो बच्चे हैं मेरे, वहीं सास-ससुर के साथ रहती हूँ..." और फिर उस महिला ने सारी कहानी बयाँ कर दी। बिन्दु पर तो मानो आसमान टूट पड़ा हो।

वह घायल पंछी-सी छटपटाने लगी। फिर सोचा, वकील साहब बिल्कुल ऐसा सफेद झूठ थोड़े ही बोलेंगे! शाम को आ ही जाएँगे, तो सबकुछ साफ हो जाएगा।

लेकिन यह क्या! उस महिला को तो देखकर ही उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी, "तुम यहाँ क्यों चली आयी बगैर बताए?" पहली बार बिन्दु ने वकील साहब को इस तरह घबराए देखा।

क्यों, मैं नहीं आ सकती क्या? बीवी हूँ तुम्हारी। क्या घर में घुसने के लिए भी इजाजत लेनी पड़ेगी?"

किसी नाटक की खडूस खलनायिका-सी वह महिला आँखें नचाती और चेहरे पर कटु मुस्कान बिखेरती बोली। फिर झगड़ते हुए दोनों अन्दर कमरे में चले गये। दरवाजा बन्द कर अन्दर काफी देर तक उनमें तकरार चलती रही।

दोराहे पर आ खड़ी हुई बिन्दु अपने ही घर में अपरिचित-सी निढाल-सी कुर्सी पर बैठी रही। सोनू स्कूल से लौटा तो उसे समझा दिया- आज बेटा मम्मी की तबियत ठीक नहीं। इसलिए नाश्ता वगैरह नहीं बना पायी। वह भी उसकी हालत देख खुद ही सहम गया। कुछ देर बाद अन्दर पलँग पर एक अनजान महिला को लेटे देख, वह मम्मी के कान में फुसफुसाया तो उसने टाल दिया। कोई दूर की आंटी हैं बेटा। लेकिन वह खुद से क्या कहे।

उसका सर बुरी तरह फटने लगा। आँखों के आगे अँधेरा छा गया। वकील साहब ने उस महिला को न जाने क्या समझाया कि अगले दिन सुबह बिना किसी हंगामे के वह वापस चली गयी। वकील साहब भी उसके जाते ही कचहरी चले गये। बिन्दु को तो कुछ पूछने का मौका ही नहीं दिया उन्होंने।

दिनभर के तनाव के बाद शाम को बिन्दु ने वकील साहब से उस महिला की सच्चाई जानने की कोशिश की तो वह उस महिला पर ही दोषारोपण करने लगे, "पागल है ये औरत। तलाक हो चुका है फिर भी पैसे ऐंठने के लिए इस तरह चली आती है।"

बिन्दु के पास यकीन करने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं था, लेकिन मन में शंका के जो बीज पड़ गये, वह वक्त-बेवक्त अन्दर उग ही आते। ऊपर से वकील साहब के रवैये में आया बदलाव भी बहुत कुछ जाहिर कर जाता।

इधर, मानसिक के साथ-साथ आर्थिक परेशानियाँ भी बढ़ने लगीं। सोनू पर उसका असर पड़ने लगा तो बिन्दु ने बड़े भाई से बातचीत की। बातें सुन उन्हें भी कुछ शक हुआ तो वह छुट्टी लेकर बिन्दु को अपने साथ बैंक ले गये।

बैंक सम्बन्धी सारे कागज और पासबुक तो वकील साहब के ही कब्जे में थे, लेकिन कारगिल शहीद की विधवा होने के नाते बिन्दु का काफी पैसा बैंक में जमा था, इसलिए बैंक कर्मचारी उसे अच्छी तरह जानते थे।

"मैडमा आपने अपना सारा पैसा यहाँ से क्यों निकलवा लिया? दूसरे बैंक में ब्याज ज्यादा है क्या?"

एक कर्मचारी ने यूँ ही मजाक में चुटकी ली तो उन दोनों के पैरों के नीचे से मानो जमीन ही खिसक गयी।

आगे छानबीन करने पर पता चला कि बिन्दु के आवेदन के आधार पर ही सारा पैसा बैंक से निकल चुका है। बस एक पेंशन का खाता था और उसमें से भी हर महीने एक निश्चित राशि निकल रही थी।

बिन्दु का शक यकीन में बदल गया। दिमाग जैसे सुन्न हो गया। न जाने किन-किन कागजों पर हस्ताक्षर कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली थी उसने।

शाम को उसके दोनों भाई और भाभी वकील साहब से मिलने घर पहुँच गये। उनसे मिलकर स्थिति स्पष्ट करना आवश्यक था।

"पेट्रोल पम्प ऐसे ही बनता है क्या? सारा पैसा उसी में लगा है। मैं कहीं ले तो गया नहीं।" अपने पर आरोप लगते ही बौखला उठे वकील साहब।

"लेकिन आप हमें बता तो सकते थे!" भाई ने गुस्से में कहा।

"ये हमारे घर का मामला है। मैं जो भी कर रहा हूँ बिन्दु और सोनू के लिए कर रहा हूँ। मेरा तो कोई और अपना है नहीं।" तुरन्त चोला बदल पेशे से ही चतुर वकील साहब ने भावुकता का ब्रह्मास्त्र चलाया।

भाई तुरन्त नरम पड़ गये। कुछ देर तक बातचीत चलती रही। वकील साहब ने अपने तर्कपूर्ण चातुर्य से सबको सन्तुष्ट कर तो दिया था लेकिन शक का जो बीज उन सबके मन में पड़ चुका था, वह इतनी आसानी से कैसे निकल जाता।

कुछ दिन तक सब सामान्य चलता रहा। चालाक वकील साहब ने बिन्दु के सामने एक बार फिर शराफ़त का चोंगा ओढ़ लिया था।

अब वह घर के कामकाज में भी रुचि लेने लगे थे। पर एक दिन अचानक वकील साहब सुबह कचहरी गये तो शाम को लौटे ही नहीं। शायद काम ज्यादा होगा, यही सोच बिन्दु उनकी प्रतीक्षा करती रही। लेकिन जब वह देर रात भी घर नहीं आए तो सुबह बिन्दु यह सूचना देने भाई के घर चली आयी।

उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ी देख भाई भी घबरा गये, "कहीं गये होंगे काम से। जल्दी में बताना भूल गये होंगे।"

लेकिन जब वकील साहब को गये तीन-चार दिन हो गये तो लोग परेशान हो उठे। उनकी खोजबीन शुरू हुई तो पता चला कि वह तो कचहरी भी कम ही आते थे। कोई खास काम नहीं चल रहा था उनका।

आगे और बातें खुली तो सबके होश फाख्ता हो गये। पेट्रोल पम्प वह किसी भू-माफिया को बेच गये थे और अब उसी के आदमी वहाँ पर काबिज थे। पुराने सारे कर्मचारियों को वहाँ से हटा दिया गया था।

वकालत के पंजीकरण से उनका स्थायी पता मालूम कर दोनों भाई उनके पैतृक गाँव पहुंचे, लेकिन वहाँ उनके बूढ़े माँ-बाप के सिवाय कोई नहीं था।

"हमारा वश नहीं उस पर। पता नहीं कहाँ है, हमें भी नहीं पता।" माता-पिता भी उसकी हरकतों से दु:खी लगते थे।

गाँव के लोगों से पता किया तो मालूम हुआ कि वह तो पहले से ही अपराधी प्रवृत्ति का इंसान है। वकालत की आड़ में लोगों को ब्लैकमेल करना उसका ही पेशा था। उसकी पत्नी भी उससे परेशान थी और कुछ समय से अपने दोनों बच्चों के साथ मायके में ही रह रही थी।

लेकिन उसके वर्तमान ठिकाने के बारे में नसे माता-पिता जानते थे और न गाँव वाले।

सब तरफ से हार कर दोनों भाई वापस चले आए। वकील साहब का बिन्दु से कोई विवाह हुआ था, इसका उनके पास कोई प्रमाण भी नहीं था।

बिन्दु तो जैसे जड़ हो गयी थी। इज्जत, आबरू, पैसा- सत्र लुट चुका था। और अब तो वह शहीद की विधवा कहलाने लायक भी नहीं रही। सोनू तक से नज़रें मिलाने की हिम्मत नहीं रही अब उसमें। क्या कहे उससे कि जिस अंकल को पापा का दर्जा दिलाया, वह उसी से धोखा कर चल दिया है। अब दोष भी किसे दे! अपनी किस्मत को कोसने के सिवाय और कोई चारा भी नहीं था। मकान में भी दम घुटने लगा अब। कुछ दिन बाद वह उस घर को ओड़ भाई के पास आ गयी।

पर जल्दी ही यहाँ भी दुर्गत होने लगी उसकी। सुबह से शाम तक वह काम में खपी रहती, लेकिन भाभी थी कि सन्तुष्ट ही नहीं होती।

"हमने ही ठेका लिया है क्या इसका, कभी दूसरे भाई के पास भी तो जाकर रहे।" पति से भी बिन्दु को लेकर कई बार कहासुनी हो गयी थी उसकी।

बिन्दु सब झेल रही थी। और करती भी क्या! उसे अब कोई मलाल नहीं था। लेकिन मासूम सोनू, उसे भी भाई के बच्चे नौकर की तरह समझते तो उसका मन खून के आँसू रोने लगता।

"अरे इसका एक बाप तो मर गया और दूसरा अब छोड़ कर भाग गया" माई के बेटे को एक दिन सोनू को यह चिढ़ाते सुना तो बिन्दु को जैसे सौंप सूप गया।

"मासूम सोनू के मन में कैसा विष-बीज बो रहे हैं ये बच्चे, पर इन्हें कैसे मालूम यह सब! इसका मतलब घर में भी इस तरह की बातें होती होंगी।

बुरी तरह छटपटाई बिन्दु का मन हुआ, इससे अच्छा तो एक छोटा-सा किराये का कमरा ले ले। पेंशन तो है ही, उसी से गुजारा हो ही जाएगा।

पर भाभी ऊपर ही ऊपर भले कुछ भी कहे, चाहती वह भी नहीं थी कि बिन्दु उस घर से जाए। एक तो उन्हें मुफ्त की नौकरानी मिली हुई थी, ऊपर से महीने के खर्चे के नाम पर बिन्दु से उसकी पेंशन का एक हिस्सा भी वह हड़प कर जाती।

बिन्दु पिंजरे में बन्द पर-कटे पछी की तरह फड़फड़ा रही थी। कुछ दिनों से नजाने क्यों उसकी आँखों में रह-रहकर सास-ससुर की छवि तैर आती। मन ग्लानि से भर उठता। कभी लगने लगता, उनके साथ बुरा किया उसने, इसीलिए शायद आज ईश्वर ने ही यह सजा दी उसको।

लेकिन अब सोचने से क्या फायदा! कैसे कर सकती है वह अपने इस किये का पश्चात्ताप! क्या अब ऐसे ही घुट-घुटकर जीना उसकी नियति बन गयी है। वह यही सोचती रहती।

सत्ताईस

इधर पल्लवी को अब सेना की सेवा करते छह माह से ऊपर का समय हो गया था, लेकिन इस अल्प समय में ही अपनी मेहनत और लगन से उसने अपने उच्च अधिकारियों का दिल जीत लिया। उसकी देश-भक्ति का जज्बा और जुनून देखकर सब हैरान होते कि आखिर यह बच्ची किस माटी की बनी हुई है!

देश-सेवा के साथ-साथ पल्लवी के भीतर गाँव में एक संस्थान खोलने का विचार भी अब जोर मारने लगा था। लेकिन समझ में नहीं आ रहा था, वह ऐसा करे क्या? श्रवण की चिन्ता उसे अलग थी। आर्थिक रूप से वह अब भले ही सक्षम हो चुका था, लेकिन शारीरिक अपंगता तो थी ही। उसके लिए कुछ ऐसा काम गाँव में ही चाहिए था, जिसे वह बगैर दौड़-भाग के बैठे-बैठे कर सके। पल्लवी ने सोचा कि क्यों न वह शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांग बच्चों के लिए एक संस्थान खोल दे। इसमें उसका स्वयं का अनुभव भी काम आएगा। यह आइडिया क्लिक कर गया उसे। हाँ, यही ठीक रहेगा। उसने अपना मन बना लिया।

अगले ही माह पल्लवी को छुट्टी लेकर गाँव जाना था। वहीं सबसे बात करके इस योजना को मूर्त रूप देगी वह। उसने अपनी छुट्टी की प्राथमिकताओं में इसे भी शीर्ष स्थान पर शामिल कर लिया।

वह गाँव आयी तो शाम को सब के सब घेरकर बैठ गये उसे। महिला होते हए भी फौज में नौकरी? उनके लिए भारी कौतूहल का विषय था यह।

"आप क्या करती हैं वहाँ? कैसा लगता है? और भी आपकी तरह औरतें हैं वहाँ? क्या आपको सैनिकों के बीच डर नहीं लगता?" वगैरह-वगैरह।

वह यह बात भी नहीं पचा पा रहे थे कि एक औरतजात कैसे फौजियों वाला लड़ने-भिड़ने का कठिन और बहुत दुष्कर काम कर पाती होगी। उनकी नज़र में औरत का तो घर से बाहर काम लकड़ी-पत्ते काटना, पेड़-पहाड़ चढ़ना, पानी, ईंधन-चारा ढोने तक ही सीमित है, पर वहाँ यह क्या करती होगी, यह बात हर एक को बेचैन किये थी।

उनका यह मासूमियत भरा सवाल सुन पल्लवी हँस दी और फिर उन्हें प्यार से समझाने लगी, "अरे सब ताकत दिखाने वाले ही नहीं चाहिए वहाँ। ताकत कैसे लगाएँ, कहाँ लगाएँ, ये बताने वाले भी चाहिए। उन्हें सिखाने-पढ़ाने वाले चाहिए। फिर बिजली, पानी, सड़क, स्वास्थ्य से लेकर तमाम ऐसे काम हैं, जो हमारे सरकारी दफ्तर करते हैं। तोप-बन्दूक चलाने के लिए ताकत नहीं, दिमाग चाहिए और थोड़ा हौसला चाहिए।"

सुन-सुन कर गद्गद थे लोग। रात्रि भोजन के पश्चात भी देर रात तक युवक-युवतियों की टोली उसे घेरे रही और वह उन्हें सेना की तमाम बातें बताने के साथ-साथ सेना में भर्ती होकर देश की सेवा करने के लिए प्रेरित करती रही।

"अरे बहू आज ही आयी है, थक गयी होगी। बाकी बातें कल कर लेना उससे। आज आराम करने दो।" सुमित्रा कई बार आकर सबको अपने-अपने घर जाने को कह गयी, लेकिन न तो लोग अपने घर जाने को तैयार थे और न पल्लवी ही उन्हें छोड़ना चाहती थी।

"माँ, मैं थकी नहीं हूँ। अच्छा लग रहा है इतने दिनों बाद इन सबसे बात करके। आप तो बेकार ही परेशान हो रही हैं। इतने स्नेह से तो वैसे ही सारी थकान मिट जाती है!" सुमित्रा को आश्वस्त कर वह फिर उनसे गपशप में जुट गयी। अन्ततः देर रात उसने गाँववालों से विदा ली और अपने कमरे में चली आयी। सामने नज़र पड़ी। वही ध्रुव का मुस्कुराता हुआ चेहरा था। कुछ देर तस्वीर के सामने खड़ी रह गयी पल्लवी।

"देश के दुश्मनों को कभी नहीं बख्शेंगी ध्रुवा" उसकी मुट्ठियाँ भिंच गयीं।

अगले दिन भोजन के उपरान्त पल्लवी ने परिवार के सभी सदस्यों को साथ बिठा लिया।

"कुछ सलाह-मशविरा करना चाहती हूँ आप सबसे।"

और फिर उसने ध्रुव के नाम पर विकलांगता से लड़ने के लिए अपने गाँव में संस्थान खोलने की अपनी योजना उनके सामने रख दी और बोली, "वैसे भी क्षेत्रीय जन-प्रतिनिधियों और जनता की माँग पर गाँव तक सड़क बनाने का काम भी आरम्भ हो गया है। सड़क बन जाएगी तो आवागमन का साधन भी रहेगा और आने-जानेवालों को कोई परेशानी भी नहीं होगी।"

सुमित्रा और कल्याण सिंह को भला इसमें क्या आपत्ति होती? वे तो उसके सुझाव से और भी खुश हो गये। बेटे के नाम पर संस्थान की बात सुनकर उनकी आँखें भर आयीं। माँ ने फिर पल्लवी को ढेरों आशीष दे डाले।

अब समस्या श्री संस्थान बनाने के लिए जमीन कहाँ से आये! वैसे तो कल्याण सिंह की गाँव में दो-तीन नाली जमीन थी, लेकिन संस्थान बनाने हेतु वह स्थान उचित नहीं था।

"क्यों न हम अपने वो खेत किसी को देकर बदले में कहीं अच्छी जगह जमीन ले लें? अगर कुछ पैसा भी देना पड़े तो हर्ज नहीं।" पल्लवी ने सुझाया।

"लेकिन कौन देगा? और कहाँ पर?'' इस पर विचार-विमर्श हुआ तो गाँव के ही सोबन सिंह की जमीन उन्हें इस काम हेतु उचित लगी। जहाँ तक सड़क आने वाली थी, वहाँ से बहुत दूर भी नहीं थे उनके खेत।

सोबन सिंह के पास यूँ भी ज़मीन की कमी नहीं थी। गाँव के हर कोने में उनकी अमानत बिखरी पड़ी थी। पर उनसे कहें कैसे? कल्याण सिंह झिझक रहे थे।

कहते हैं, जब नेक नीयत से कोई काम किया जाए, तो उसके हज़ार रास्ते निकल आते हैं। पल्लवी और कल्याण सिंह झिझकते हुए सोबन सिंह के पास पहुँचे और उसे अपनी योजना के बारे में बताते हुए मदद के लिए विनती करने लगे।

"बेटी! तुमने ऐसा कैसे सोच लिया कि उन खेतों के बदले में मैं तुमसे खेत लूंगा। इस नेक काम में इसे मेरा योगदान समझ लो। यही नहीं, मैं कुछ और भी कर सकता हूँ तो वो भी बताओ।" एक ही साँस में अपने सारे उद्गार व्यक्त कर सोबन सिंह ने उसी पल यह समस्या हल कर दी। इतनी बड़ी समस्या का समाधान इतनी आसानी से हो जाएगा, इसकी तो कल्पना भी नहीं की थी कल्याण सिंह और पल्लवी ने। खुशी के मारे उनके मुँह से धन्यवाद के दो शब्द भी न निकल पाए। पर सोबन सिंह तो उनके आगे जैसे बिछे जा रहे थे। पल्लवी की तारीफ़ के तो पुल ही बाँध दिये उन्होंने, "ऐसी बहू तो कई जन्मों के पुण्य से ही मिलती है कल्याण सिंह जी। वरना आजकल कौन पूछ रहा सास-ससुर को! साथ रहना तो दूर, शक्ल देखना तक पसन्द नहीं करतीं वो। और पति के बाद तो सबकुछ समेट कर ही चल देती हैं। और एक ये है, सबकुछ छोड़ सास-ससुर की सेवा में लगी है। धन्य है बेटी तू! अरे लोग सीख लें इस बच्ची से।"

यूँ भी गाँव के लोगों के लिए नज़ीर बन गयी थी पल्लवी। अब तो जो बहुएँ गाँव में मजबूरन रह भी रही थीं, उनके भी सुर-ताल बदल गये। वह भी अब गाँव में ही मिलजुलकर काम करना चाहती थीं। सास-ससुर के प्रति नज़रिये में भी बदलाव आने लगा उनके। लड़कियों में तो अब जैसे अपने पैरों पर खड़े होने की होड़-सी लग गयी।

इधर, जमीन का मसला जब आसानी से हल हो गया था तो उस पर अब भवन बनाना था। कुछ पैसे पल्लवी ने अपने वेतन से बचा कर रखे थे तो कुछ श्रवण के पास थे, जो ध्रुव के फण्ड और श्रवण की स्वयं की कमाई थी।

पल्लवी ने गाँव के बुजुर्गों और युवकों से मुलाकात कर योजना का पूरा खाका उनके सामने खींच दिया और युवाओं को संस्था हेतु भवन-निर्माण की जिम्मेदारी भी सौंप दी। धनराशि का हिसाब रखने का जिम्मा जहाँ श्रवण को दे दिया गया, वहीं काम की देखभाल का दायित्व गाँव के ही बुर्जुगों को सौंप दिया गया।

गाँव में इस योजना को लेकर सभी उत्साहित थे। पल्लवी अपने सामने ही इस पुनीत काम का शुभारम्भ करना चाहती थी। इसलिए अगले दिन से ही पूरी टीम काम में जुट गयी थी।

"भाभी! आपके दिमाग में ये सारी बातें कैसे आती हैं?" शाम को भाइयों को खाना खिला कुन्ती पल्लवी के सामने बैठ गयी।

"क्यों, क्या किया मैंने ऐसा?"

"अरे ये पूछो, क्या नहीं किया?" और कुन्ती ने पल्लवी के नौकरी करने से लेकर संस्था खोलने तक का विचार और यही नहीं और भी न जाने क्या-क्या बातें फटाफट उसके सामने गिना दी। बातों ही बातों में फिर उसने अचानक मुद्दा बदला, "अरे भाभी, पता है बिन्दु भाभी के साथ क्या-क्या हुआ?" यह कहते हुए कुन्ती ने कुछ ऐसा मुँह बनाया, मानो कोई बहुत कड़वी चीज उसने मुँह में रख ली हो।

"क्या हुआ?" किशन भैया और ध्रुव की घनिष्ठता होने के कारण पल्लवी उत्सुक हो गयी बिन्दु के बारे में जानने को।

कुन्ती ने बिन्दु की सारी कहानी पल्लवी को सुना दी। साथ ही यह कहना भी नहीं भूली कि उसने सास-ससुर के साथ जो किया उसका फल तो भुगतना ही था। ईश्वर ने उसे उसके किए की ही सज़ा दी है।

"ये तो बहुत बुरा हुआ। उस वकील पर तो धोखाधड़ी का मुकदमा करना चाहिए था।" पल्लवी बोली।

लेकिन करेगा कौन? बिन्दु भाभी ने भले करम किए होते तो कोई उनके साथ खड़ा भी होता।" कुन्ती की ज़रा भी सहानुभूति बिन्दु के साथ नहीं थी।

बिन्दु के साथ जो कुछ भी हुआ, पल्लवी को बहुत बुरा लगा। शहीदों के आश्रितों के परिवारों के साथ इतना क्रूर मजाक! वह उसकी मदद को बेचैन हो उठी, लेकिन अभी तो इतनी छुट्टियाँ भी नहीं थी उसके पास।

"अगली बार आकर जरूर बिन्दु से मिलूँगी और जो भी मदद बन पड़ेगी, करूँगी। आखिर किशन भैया ने इतना कुछ किया था ध्रुव के लिए तो मेरी भी कुछ जिम्मेदारी बनती है।" वह मन-ही-मन बुदबुदायी।

संस्थान का काम अब शुरू हो गया था। अपने सामने जिम्मेदारियाँ तय कर पल्लवी ने आगे के दिशा-निर्देश दिये और अपनी नियुक्ति पर वापस चली गयी। पर इस बीच लोगों में बह इतना उत्साह भर गयी कि सभी उसका सपना पुरा करने में जी-जान से जुट गये।

अठाईस

"ताऊजी कुछ सुना आपने?" शहर से लौटे बिशन ने बड़ी राहत सी जताते हुए किशन के पिता से कहा।

"क्या बेटा?"

"यही कि बिन्दु भाभी को आखिर अपनी करनी की सज़ा मिल ही गयी।"

"क्यों क्या हुआ उसे? अपना सोनू तो ठीक है न!" बूढ़े जर्जर माथे पर अचानक चिन्ता की लकीरें और गहरी हो गयीं।

"हाँ, सोनू ठीक तो है लेकिन हाल अच्छे नहीं हैं भाभी और उसके।" और फिर बिशन ने सारी कहानी किशन के पिता को सुना दी।

थोड़ी ही देर में यह बात आग की तरह पूरे गाँव में फैल गयी, लेकिन एक भी आदमी ऐसा नहीं था, जो कहे कि बेचारी के साथ गलत हो गया। सब ये ही कहते, ये तो होना ही था उसके साथ। कैसे ठोकर मार कर चली गयी थी बिलबिलाते सास-ससुर को! भगवान के यहाँ देर है, पर अंधेर नहीं।

लेकिन किशन के माता-पिता यह खबर सुनते ही दु:खी हो गये।

"ठीक है उसने अच्छा व्यवहार नहीं किया हमसे। पर है तो हमारी पुत्रवधू ही। नादानी में कर गयी वह ये सब। और फिर सोनू का भविष्य भी तो जुड़ा है उससे। भगवान माफ कर देना उसे। वह जहाँ भी रहे, ठीक रहे।" बिन्दु की सास ने आसमान की ओर हाथ जोड़ते हुए कहा।

बिशन हैरान था उसकी व्यग्रता देखकर। उसने इतना बुरा व्यवहार किया और ये है कि उसके लिए मरी जा रही है। उसका मन आश्चर्य से भर गया। बोला, "ताई मझे जितना मालूम था मैंने बता दिया। और कुछ नहीं मालम मझे।"

"बिशन, तू वापस कब जा रहा है शहर?" किशन की माँ ने एक दिन उसे अपने पास बिठा लिया और फिर कुरेद-कुरेद कर वह बिन्दु और सोनू के बारे में पूछने लगी।

"बेटा, इस बार उनसे मिलकर आएगा तू! एहसान होगा तेरा मुझ पर।"

किशन की माँ ने गिड़गिड़ाकर हाथ जोड़ दिए उसके सामने।

बिशन ने उसके दोनों हाथों को अपने हाथों में थाम लिया। सोचने लगा, ठीक ही कहा है किसी ने कि मूल से सूद ज्यादा प्यारा होता है। शायद इसी वजह से वह बहू का बुरा व्यवहार भूल गयी है। फिर अचानक उसकी तन्द्रा टूटी।

"तू फिर कब आएगा?" किशन की माँ उतावली हो रही थी।

"अगले महीने।"

पर बेताब किशन की माँ बिशन के जाने से पहले ही उसके आने की प्रतीक्षा में लग गयी।

एक महीने बाद बिशन घर आया तो किशन की माँ उसके घर ही पहुँच गयीं।

क्या कहता बिशन उससे, कि देख आया है वह उनकी बहू और पोते का हाल! बहू की स्थिति घर की नौकरानी से भी बदतर है और सोनू! वह अपने मामा के बच्चों के हाथों का खिलौना बना है। अपने साथ-साथ सोनू का भविष्य भी बरबाद कर दिया है बिन्दु ने।

बिशन ने जब बिन्दु को बताया कि उसके सास-ससुर ने उसे उनका हाल जानने भेजा है तो उसकी आँखों में अचानक चमक उभर आयी।

"कैसे हैं वो?"

"बीमार रहते हैं, बहुत कमजोर हो गये हैं दोनों।"

बिन्दु सुनती रही, लेकिन कुछ कह नहीं पायी। कहे भी तो किस मुँह से! इस सबके लिए जिम्मेदार भी तो वही थी।

मन ही मन अपने को कोसने लगी,"काश! उसने सास-ससुर के बारे में जरा भी सोचा होता तो ये नौबत न आती।"

आज वह उनके पास लौट जाने को तैयार थी, लेकिन कुछ कह नहीं पायी। बस सर झुका लिया उसने और उसकी आँखें भर आईं।

बिशन ने जितना बताने लायक समझा, उतना बता दिया। किशन की माँ वापस चली आयी मन-ही-मन कुछ सोचते हुए। आज रात ही बात करेगी वो किशन के पिता से।

"बहू और सोनू की स्थिति अच्छी नहीं है। बहुत बुरा हुआ उनके साथा" रात को किशन की माँ ने बात छेड़ी।

किशन के तो पिता की जैसे मुँह की बात छीन ली उसने। वह तो कब से कहना चाह रहे थे यही उससे। लेकिन डरते थे कहीं वह बिफर न पड़े।

"हाँ, लेकिन अब हम क्या करें?" उन्होंने मन की बात मन में ही दबाए रखी।

"तुम बुरा न मानो तो एक बात कहूँ?" पत्नी ने झिझकते हुए पति से कहा।

"बोलो।" पति ने मन-ही-मन ईष्ट देव को याद किया कि हे प्रभु इसके भी मन में वही बात हो, जो मैं चाहता हूँ।

"क्यों न उन दोनों को गाँव ले आएँ?" -पत्नी की ये बात सुन पति उठ बैठे।

"नहीं, अगर तुम ठीक समझो तो, नहीं तो..." हड़बड़ा गयी पत्नी। उसे लगा पति शायद इसी बात पर क्रोधित होकर उठ खड़े हुए हैं।

पर वह कुछ नहीं बोले। बस अपलक निहारते रहे पत्नी को। उसकी ममता और संवेदना के आगे श्रद्धावनत। फिर धीरे से बोले, "ठीक कहती हो तुम।" उनका गला भर आया।

यह सुनते ही उत्साह से भरी किशन की माँ चहक उठी, "मैं कल ही बिशन से बात करती हूँ, वो बिन्दु से बात कर लेगा।"

बरसों बाद आज उन्हें पत्नी की आवाज में खनक महसूस हुई।

किशन की माँ को सारी रात नींद न आई। अगले दिन सुबह-सुबह वह बिशन के घर पहुँच गयी।

"ताई, सुबह-सुबह! कोई खास बात है क्या?" बिशन इस तरह उसे हाँफते आया देख घबरा उठा।

"बेटा तू वापस कब जा रहा है? वहाँ जाकर बिन्दु से पूछना कि क्या वह घर आने को राजी है? ये सन्देशा तू मेरा जरूर पहुँचा देना उस मूर्ख तक। मैं तेरा उपकार जिन्दगी भर नहीं भूलूँगी।"

"धन्य हैं ऐसे सास-ससुर!" बिशन ने मन-ही-मन उन्हें नमन किया। जो बहू उन्हें उस असीम दुःख की घड़ी में बिलखता छोड़ गयी, आज उसी के बरे वक्त पर कैसे छटपटा रहे हैं ये लोग! उसे फिर भी सीने से लगाने को बेताब हैं।

"ठीक है ताई, मैं बात करूँगा भाभी से।"

सास-ससुर का सन्देशा सुन बिन्दु का मन हुआ, वह अभी अपना सामान बाँध गाँव की ओर चल दे। लेकिन अपनी करनी याद आयी तो कदम स्वतः ही रुक गये। वह सोच में पड़ गयी कि किस मुँह से जाऊँ उनके पास? वह आत्मग्लानि से भरी सिर झुकाए बैठी रही। हाँ या ना, कुछ नहीं बोल पायी वह।

बिशन समझ गया कि भाभी शर्मिन्दा है, इसलिए वह बेचारी कुछ कह नहीं पा रही। उसी ने चुप्पी तोड़ी, "भाभी, ताई ताऊजी ने माफ कर दिया है आपको। यहाँ दूसरों के रहमोकरम पर रहने से अच्छा है अपने घर पर मालकिन बन कर रहो। आप अपना सामान बाँध लो। अगले हफ्ते मैं गाँव जा रहा हूँ। आपको साथ ले चलूँगा।"

बिन्दु के गाँव जाने का निर्णय भाई-भाभी को पता चला तो उनके तो जैसे होश ही उड़ गये। उन्हें अब महसूस हुई बिन्दु की अहमियत। उसके जाने से तो वे हर तरफ से नुकसान में थे। उन्होंने उसे समझाने की बड़ी कोशिश की। सोन की पढ़ाई का हवाला दिया, लेकिन बिन्दु अब कुछ सुनने वाली नहीं थी।

सास-ससुर दोनों खुश थे कि बहू और पोता अब उनके साथ थे। सोन को वहीं गाँव के स्कूल में भर्ती करवा दिया गया। अब रोज सुबह दादाजी की उँगली पकड़ वह स्कूल जाता और छुट्टी के समय भी उनके साथ ही वापस आता। दादा के भी पैरों का दर्द अब न जाने कहाँ गायब हो गया!

सोनू की दादी फूले नहीं समा रही थी। पोते के रूप में उन्हें जीने का सहारा मिल गया था। इतना नुकसान उठाने और धोखा खाने के बाद बिन्दु भी गाँव आकर अब अपनी जिन्दगी से सन्तुष्ट लग रही थी।

"जीवन में शायद कभी कुछ अच्छा किया था, जो ऐसे सास-ससुर मिले।" वह मन ही मन सोचती।

बिन्दु को मिलने वाली पारिवारिक पेंशन ही अब खर्चे के लिए पर्याप्त थी, बल्कि उसमें से तो काफी रुपया बच ही जाता।

"बहू कुछ बचा कर भी रख, हमारे सोनू की आगे की पढ़ाई के काम आएगा। बस भगवान उसे सुखी और स्वस्थ रखे।" दादा जी सोन के भविष्य को लेकर अभी से चिन्तित थे।

इतने सारे झंझावातों को झेलने के बाद परिवार में फिर से खुशियाँ लौट आयीं।

उनतीस

इस बार पल्लवी को साल भर बाद ही छुट्टी मिल पायी। वह गाँव आयी तो संस्थान का भवन तैयार था। दरअसल वह इस बीच भी लगातार पत्रों के आदान-प्रदान के जरिये काम की प्रगति की जानकारी लेती रही। जब पक्की सूचना मिल गयी कि भवन तैयार है, तभी उसने छुट्टी के लिए आवेदन किया, ताकि कार्यक्रम के दौरान वह गाँव में समुचित समय दे सके।

यह संस्थान पूरे गाँव के बेजोड़ प्रयास का प्रतिफल था। सब लोगों ने जी-जान लगा दी थी इसके पीछे। इलाके में यह चर्चा का विषय था। दूर-दूर तक इसका इतना प्रचार हो गया कि लोग बड़ी बेसब्री से इसके खुलने की बाट जोहने लगे। इस बीच पल्लवी ने जिस संस्था में पहले काम किया था, उनसे सम्पर्क कर संस्था के दो-तीन लोगों को प्रारम्भिक प्रशिक्षण हेतु गाँव भेजने के लिए निवेदन भी कर दिया।

इस नेक काम में अब तो और भी लोग बढ़चढ़कर आगे आने लगे। लोगों में बेसब्री बढ़ती जा रही थी। वे पल्लवी के आने की प्रतीक्षा में लग गये कि कब वह आए और कब संस्थान का विधिपूर्वक शुभारम्भ हो।

सामाजिक सरोकार के इस पुनीत कार्य के श्रीगणेश अवसर पर लोगों का हुजूम उमड़ आया। तमाम जनप्रतिनिधियों, अधिकारियों के साथ-साथ पल्लवी के माता-पिता भी इस जलसे में शामिल थे।

भवन के उदघाटन हेतु सभी की सहमति से जब पल्लवी का नाम पुकारा गया तो वह कल्याण सिंह की ओर मुड़ गयी।

"इस सम्मान के असली हकदार आप हैं।" और वह सास-ससुर दोनों का हाथ पकड़ कर उन्हें आगे ले आयी।

अपने आप को मिले इस सम्मान से वे दोनों भावविभोर हो उठे। बेटे-बह के कृत्यों से कल्याण सिंह और सुमित्रा आज पूरे क्षेत्र में सम्मान के हकदार बन गये थे।

बेटी को मिले इस अभूतपूर्व सम्मान से रमाकान्त और पार्वती भी गद्गद थे। रमाकान्त को तो आज पहली बार बेटी पर इतना फख हो रहा था। उन्हें पहली बार लगा कि उन्होंने आजीवन बहुत धन कमाया और हमेशा अपने परिवार की सुख-समृद्धि उससे खरीदने का प्रयत्न किया, किन्तु ऐसी आत्मिक शान्ति का एहसास इससे पहले उन्हें कभी नहीं हुआ।

तालियों की जोरदार गड़गड़ाहट के बीच शुरू हुआ रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम, जिसे श्रवण की देखरेख में तैयार किया गया था। कार्यक्रम के अन्त में श्रवण ने अपनी मधुर आवाज में एक गीत गाकर सबको मन्त्रमुग्ध कर दिया।

पास तेरे लगा मेला, किसने कहा तू है अकेला

किन्तु तूने जिन्दगी में, सदा ही संघर्ष झेला।

प्रातः तुझको ओस कण से, स्वर्णिमा जैसे सजाती,

सूर्य किरणें लालिमा, देने तुझे नित प्रात: आतीं।

सूर्य तुझको तेज देने, पास अपने है बुलाता।

सुहाना हर मौसम तुझे, गोद में लेकर सुलाता।

सान्ध्य बेला की सुहानी, रात है लोरी सुनाती।

प्रभात की निश्छल हँसी भी, नित्य तेरे गीत गाती।

प्रातः बेला, दिवस, सन्ध्या ये अनोखे सभी प्यारे

फिर कहाँ तू है अकेला, साथ तेरे बहुत सारे।

पास तेरे लगा मेला, किसने कहा तू है अकेला।

किन्तु तूने जिन्दगी में, सदा ही संघर्ष झेला।

गीत सुन पल्लवी कहीं खो-सी गयी। यही तो वह अन्तिम कविता थी, जो ध्रुव ने युद्धक्षेत्र में जाते हुए रास्ते में लिख कर पल्लवी को भेजी थी। पल्लवी ने ही उसे श्रवण को लयबद्ध करने को दिया था और आज श्रवण ने उस गीत को गाकर ध्रुव की यादों को पल्लवी के मन में ताजा कर दिया।

"श्रवण तुमने तो गजब कर दिया। तुम्हारे गाने का चयन और इसकी धुन अद्भुत थी। और फिर तुमने जो प्यारा सुर इसे दिया, उसने और भी चार चाँद लगा दिए इसमें।" घर पहुँचकर पल्लवी ने श्रवण की खूब पीठ ठोंकी तो उसकी आँखें छलछला आयीं।

"आपने ही तो कहा था कि यह भैया की आखिरी रचना है। तो मुझे लगा इसके लिए इससे अच्छा समय नहीं हो सकता।"

पल्लवी ने श्रवण को गले से लगा लिया। कुछ देर तक दोनों नि:शब्द आँसू बहाते रहे। बस थोड़ी देर में ही मन हल्का हो गया दोनों का।

रमाकान्त और पार्वती को अगले दिन लौटना था।

"बेटी मुझे गर्व है तुम पर।" जाते समय रमाकान्त ने पल्लवी के सिर पर हाथ रखा और तेजी से निकल आए। पल्लवी जहाँ खड़ी थी, वहीं खड़ी रह गयी। यही थी उसकी सच्ची सफलता। जो लोग पहले से ही उसके प्रशंसक थे, उनकी प्रशंसा सुनने से अधिक महत्त्वपूर्ण था उसके अपने पिता का यह हृदय परिवर्तन।

"बेटी तुझसे बात करनी थी।" शाम को पल्लवी को एकान्त में पाकर सुमित्रा ने बात आरम्भ की।

"जी, माँ जी?"

लेकिन सुमित्रा के चेहरे पर हिचकिचाहट भाँप पल्लवी ने उसे दोबारा पूछा तो अटकते-अटकते सुमित्रा ने बात शुरू की।

"तू हमारी बेटी है। हर माँ-बाप का सपना होता है कि उसकी बेटी का घर बसा रहे..." फिर थोड़ी देर के लिए चुप हो गयी सुमित्रा।

पल्लवी ने माँ के मन की थाह तो पा ली, पर वह नासमझ बनी रही।

"बेटी तू शादी करके अपना घर क्यों नहीं बसा लेती?" बातों को घुमा-फिरा कर कहने में कतई अक्षम सुमित्रा ने सीधे अपने मन की पीड़ा पल्लवी से व्यक्त की।

पल्लवी कुछ देर चुप रही। फिर संयत स्वर में बोली, "माँ! ध्रुव के होते हुए दूसरी शादी! ऐसे कैसे हो सकता है?"

"ध्रुव होता तो मैं ऐसा क्यों कहती बेटी!" सुमित्रा की आँखें डबडबा आयीं।

"माँ ध्रुव है। वह मेरे तन-मन में है। ध्रुव मेरी आत्मा में है। मेरे हर काम में मेरे साथ रहता है वह। उसके बिना एक कदम भी आगे बढ़ाना सम्भव नहीं है मेरे लिए।"

सुमित्रा समझ गयी। पल्लवी के मन-मस्तिष्क से भूव की यादों को मिटाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है। पर वह यह जतलाना चाहती थी कि कहीं भविष्य में अगर उसे जीवनसाथी की जरूरत महसूस हुई तो वह यह सोच कर

संकोच न कर बैठे कि माँ-पिताजी क्या कहेंगे! खैर उसने बेटी को जीभर कर आशीर्वाद दिया और देर तक उसे अपने सीने से लगाए रही।

माँ की ममता वहाँ सबको द्रवित कर गयी। और सबसे विदा लेकर वह दोनों चल दिये।

सास-ससुर तो उसे दुआ देते नहीं अघा रहे थे।

पल्लवी का मन भर आया। कितनी भाग्यशाली है वह, जिसे इतना प्यार करने वाले सास-ससुर मिले हैं। वरना विवाह के कुछ ही माह बाद ध्रुव के शहीद होने पर दबी जुबान से गाँव के ही कुछ लोगों ने तो उसे अपशकुनी तक कहना शुरू कर दिया था।

अगले कुछ दिन संस्थान की व्यवस्था में व्यस्त रही पल्लवी। सोबन सिंह जी को उसने संस्थान के संरक्षक का दायित्व सौंपा, तो गाँव की कुछ लड़कियों को पढ़ाने की जिम्मेदारी दे दी। उन लड़कियों को भी शहर से आयी संस्था के लोगों से प्रशिक्षण लेना था। संस्था की आमदनी और खर्च का हिसाब रखने का जिम्मा श्रवण को दिया गया और साथ ही संस्था में पढ़ने वाले बच्चों को संगीत सिखाने की जिम्मेदारी भी उसी पर थी।

अपने वेतन का एक हिस्सा हर महीने संस्थान को देने की ज्यों ही पल्लवी ने घोषणा की तो उसकी देखादेखी आर्थिक सहायता देने वालों की होड़ लग गयी।

सभी लोगों का उत्साह देखकर पल्लवी भावविभोर थी। उसकी मेहनत रंग ले लायी थी। लोग भी उसे दुआ देते नहीं अघा रहे थे। आखिर, बड़े पुण्य का काम किया था उसने विकलांगों को नया जीवन देने का काम। और फिर ध व के नाम की अमिट स्मृति भी स्थापित हो गयी थी उसके गाँव में। .

पल्लवी का बड़ा सपना साकार हो गया। वह मन-ही-मन भगवान का आभार जता रही थी।

"कितनी खुश हो रही होगी आज ध्रुव की आत्मा!"

बाकी दिन उसने अब संस्थान की सेवा में लगा दिये।

"बेटी तुम्हारा तार आया है।" डाकिये ने पल्लवी को पुकारा, जब वह बच्चों को पढ़ाने में व्यस्त थी।

तार सेना मुख्यालय से था। सीमा पर तनाव बढ़ने के कारण उसकी छुट्टियाँ निरस्त कर दी गयी थीं।

"पल्लवी को अगले दिन ही वापस जाना पड़ेगा।" थोड़ी ही देर में ये खबर आग की तरह पूरे गाँव में फैल गयी। शाम को पल्लवी ने संस्थान से

सम्बन्धित सभी लोगों से मुलाकात कर उनसे भविष्य की योजनाओं के बारे में चर्चा की। उन्हें साधुवाद दिया और अन्त में भावुक हो गयी, "ध्रुव की आखिरी निशानी को मैं आप सब लोगों के सुपुर्द किए जा रही हूँ।"

और फिर हाथ जोड़ कर उसने विदा लेने की इजाजत ली।

अगले दिन आधे से ज्यादा गाँव पल्लवी को छोड़ने बस अड्डे पर मौजूद था। कल्याण सिंह और सुमित्रा को वह दिन याद आ गया जब सीमा पर लडाई छिड़ने के कारण ध्रुव को वापस जाना पड़ा था और इसी तरह गाँव के सारे लोग उसे छोड़ने उमड़ पड़े थे।

"हे ईश्वर! हमारी पल्लवी को सुरक्षित रखना!" सुमित्रा अपनी अलग ही धुन में थी। वह मन-ही-मन अपने कुल देवता का स्मरण किये जा रही थी।

पल्लवी का मन उत्साह से भरा था। आज वह ध्रुव का मिशन पूरा करने जा रही थी।

ध्रुव की वह कविता रह-रहकर उसे याद आ रही थी, जिसे वह बार-बार पढ़ा करती थी, क्योंकि इस कविता में उसे ध्रुव का मिशन दिखाई देता था-

पुष्पो! यदि नेह छिपाओगे तो,

तुम पुष्प नहीं कहलाओगे।

अर्पण का यदि भाव तजा तो

तुम जीवन भर अकुलाओगे।

थोड़ी ही देर में बस आ गयी। गाँव के सभी लोगों का अभिवादन स्वीकार कर पल्लवी बस में बैठ गयी और चल पड़ी अपने असली अभियान की ओर।


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हिंदी समय में रमेश पोखरियाल निशंक की रचनाएँ